हिंदी दिवस विशेषः मुनव्वर राणा ने क्यों कहा,  लिपट जाता हूँ माँ से

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 14-09-2021
हिंदी दिवस विशेषः मुनव्वर राणा ने क्यों कहा,  लिपट जाता हूँ माँ से
हिंदी दिवस विशेषः मुनव्वर राणा ने क्यों कहा,  लिपट जाता हूँ माँ से

 


मो जबिहुल कमर “जुगनू” / नई दिल्ली 
 
हिन्दी और उर्दू भाषा को लेकर अक्सर बहस-मुबाहिसे का दौर चलता है. कभी- कभी यह बड़े मुद्दे का रूप ले लेता है, जबकि उर्दू और हिंदी किसी धर्म से जुड़ी भाषा नहीं है. विदित हो कि कुछ लोग उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा मनवाने पर तुले रहते हैं.
 
ऐसे लोगों को संकीर्ण मानसिकता का व्यक्ति ही कहा जा सकता, क्योंकि दोनों भाषाओं के बीच जो समानताएं हैं, वह न उर्दू और फारसी में हैं और न ही संस्कृत और हिंदी में. ज्ञात हो कि एक समय जब न उर्दू थी और न ही हिंदी तब हिंदवी बोली जाती थी. इसे फिर ‘रेख्ता’ का नाम दिया गया. वैसे मुनव्वर राणा ने भी क्या खूब कहा है, ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है.
 
हिंदी दिवस के मौके पर जब  देश के कई विद्वानों व बुद्धिजियों  से बात की तो उन्होंने उर्दू और हिंदी के बारे में इस तरह के तथ्य दिएः
 
kaseemउर्दू लेखक व सहायक प्रोफेसर कसीम अख्तर ने कहा कि हिंदी और उर्दू के बीच दरार सबसे पहले अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो‘ के सिद्धांत के पक्ष में खींची थी. जबकि पहले मीर और गालिब जैसे प्रसिद्ध कवि स्वयं को हिंदी या हिंदी साहित्यिक सेवा का दर्जा देते थे.
 
बारहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी के अंत तक हिंदी और उर्दू के बीच कोई अंतर नहीं था. फारसी भाषा और साहित्यिक परंपरा से प्रभावित होकर साहित्यकारों ने नास्तिक लिपि में अपनी रचनाएं लिखीं और इन भाषाओं को हिंदवी या हिंदी और देहलवी कहा गया. 
 
प्रो अख्तर ने कहा कि अमीर खुसरो की रचित मसनवी नूह सिपहर को भारत के बारह प्रमुख भाषाओं के साथ ‘देहलवी‘ में भी रचित की गई थी. ऐसे संस्कृत भाषा और साहित्यिक परंपरा का पालन करने वाले साहित्यकारों ने अपनी कृतियों को लिखने के लिए नागरी या कैथी लिपि का इस्तेमाल किया. इस भाषा को भाखा भाषा कहा गया था. प्रो अख्तर ने कहा कि विश्लेषण करने पर इन भाषाओं की कोई विशेष धार्मिक पहचान कतई नहीं लगती है.
 
mojirदरभंगा निवासी साहित्यकार व अध्यापक डॉ. मोजिर आजाद ने कहा कि हिंदी का इतिहास बताता है कि हिंदी कभी भी शासकों और शोषकों की भाषा नहीं रही. चाहे वह संस्कृत हो या धार्मिक अनुष्ठानों में सज्जनों और विद्वानों द्वारा अपनाई जाने वाली भाषा हो या मुगल शासकों की आधिकारिक भाषा फारसी हो.
 
वे सभी भाषा और शब्दावली के संदर्भ में हिंदी को निश्चित रूप से बनाते या प्रभावित करते हैं, लेकिन कुलीनों का अहंकार प्रबल होता है. ये भाषाएं हिंदी को छू भी नहीं सकतीं. हिंदी ने अपने शर्मीले स्वभाव को बरकरार रखा है.
राजभाषा का दर्जा हासिल करने के बावजूद जब भी अंग्रेजी ने रूढ़िवादिता दिखाई या क्षेत्रीय भाषाओं ने अपनी आवाज बुलंद की, हिंदी ने जवाबी कार्रवाई के बजाय झुकना पसंद किया. उन्होंने कहा कि हिंदी कभी भी विस्तारवादी प्रकृति की नहीं रही.
 
दुनिया के कई देशों में हिंदी भाषी लोगों की उपस्थिति है, वाणिज्य के क्षेत्र में भी हिंदी की मजबूत पकड़ है. सत्ता में या उसके पास उनकी निर्णायक उपस्थिति है. उन्होंने कहा कि  हिंदी और हिंदी भाषी लोग हमेशा से जमीन के बजाय दिल जीतने में विश्वास रखते हैं. यह उनका स्वभाव है कि वे टूटने के बजाय जोड़ने में विश्वास करते हैं.
 
gulabगुलाम रब्बानी आमंत्रित सदस्य, दिल्ली एडवाइजरी कॉन्ट्रैक्ट लेबर बोर्ड, दिल्ली सरकार ने कहा कि इतिहास हमें बताता है कि हिंदी हमारे बहु-जाति और बहु-धार्मिक देश में अपने मूल से ही मिश्रित संस्कृति की एक शक्तिशाली अभिव्यक्ति रही है.
 
हिंदी पुनर्जागरण निर्विवाद रूप से उपनिवेशवाद विरोधी थी, लेकिन स्वतंत्रता-पूर्व काल में, यहां तक कि सबसे उदार और विचारशील हिंदू और मुस्लिम नेताओं को भी एक संकीर्ण धार्मिक पहचान और व्यापक रूप से समावेशी संस्कृति के बीच चयन करने की दुविधा का सामना करना पड़ा था. वे हिंदी और उर्दू के विद्वान थे, लेकिन वे भाषा और अपनी संस्कृति की व्याख्या के आधार पर धर्म को आधार बनाने की प्रवृत्ति से पीड़ित होते रहे.
 
pradeepअधिकारी प्रदीप कुमार ने कहा कि प्रौद्योगिकी ने अनुवाद को सरल और सर्व सुलभ कर दिया है. फिल्में रिलीज के समय ही अनेक भाषाओं में डब होकर हर तरह के दर्शकों तक पहुंचती हैं. क्षेत्रीय सिनेमा और हिंदी सिनेमा तथा भारतीय सिनेमा और विश्व सिनेमा के बीच की दूरियां खत्म हो रही हैं.
 
अंग्रेजी भाषा की बेस्ट सेलर किताबें लगभग तत्काल ही हिंदी में उपलब्ध हो जाती हैं. कई हिंदी के अखबार अंग्रेजी से अनुवाद की बुनियाद पर निकल रहे हैं. गूगल तत्काल ही एक भाषा से दूसरी भाषा में कामचलाऊ अनुवाद कर देता है.
 
अनुवाद में जो गलतियां दिखती हैं, वे भी बेहतर सॉफ्टवेयर आने के साथ कम हो जाएंगी. लिपियों का महत्व भी कम हो रहा है. रोमन लिपि में टाइप कर किसी भी भारतीय भाषा की लिपि में अपने कंटेंट को पाया जा सकता है. फोनेटिक टूल्स दिनों दिन परिमार्जित होते जा रहे हैं. स्पीच रिकग्निशन टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ही बोलकर लिखना संभव हुआ है.