साकिब सलीम / नई दिल्ली
भारत हमेशा विविध धर्मों का देश रहा है. फिर भी, सबकी संस्कृति एक है.वर्तमान समय में भले ही लोगों को विश्वास न हो, लेकिन सदियों से भारतीय लेखक देश की समन्वित संस्कृति को दर्शाने वाले अन्य धर्मों की प्रशंसा में लिखते रहे हैं. इकबाल, हसरत मोहानी, हाफिज जालंधरी, मीराजी, नजीर अकबराबादी आदि मुस्लिम शायर ऐसे कुछ प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने ‘हिंदू’ देवताओं के लिए स्तवन लिखा है.
इस महा शिवरात्रि पर मैं पाठकों को भगवान शिव की स्तुति में नजीर अकबराबादी द्वारा लिखी गई एक उर्दू कविता को पुनर्जीवित करना चाहता हूं.
गुजरे सालों में हालांकि कई अन्य मुस्लिम शायरों ने भगवान शिव का आह्वान करते हुए लिखा है, लेकिन नजीर अकबराबादी ऐसा करने वाले शुरुआती उर्दू कवियों में से एक हैं, जबकि दूसरों ने उनका अनुसरण किया. गालिब से पहले नजीर 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में रहे.
इसी तरह इकबाल ने अपनी कविताओं में नए भारत की तुलना ‘शिव मंदिर’ से की है. मोहम्मद सनाउल्लाह ‘मीराजी’ को शिव और पार्वती को आदर्श प्रेममय युगल मानते हैं और कई अन्य मुस्लिम शायर भगवान शिव की बात कहते नजर आते हैं, लेकिन मुझे नजीर के मुकाबले कोई अन्य उर्दू शायर शिव को इतना समर्पित शायर नहीं लगा.
महादेव जी का ब्याह (भगवान महादेव का विवाह समारोह) नामक स्तवन में नजीर अकबराबादी फरमाते हैं:
पहले नांव गनेश का, लीजिए सीस नवाय.
जा से कारज सिध हों, सदा मुहूरत लाय.
वर्तमान समय में इन पंक्तियों को पढ़ते हुए किसी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक मुसलमान शायर अपने पाठकों से इस कहानी के शुरू होने से पहले भगवान गणेश का नाम सुमरिने के लिए कह रहा था. इसमें खास यह भी है कि इस मुस्लिम शायर को भारत की इस परंपरा का पूरा ज्ञान था कि सनातन वैदिक हिंदू धर्मी किसी भी शुभ कार्य से पहले गणेश वंदना करते हैं, चाहे वह गद्य या पद्य के लेखन की शुरुआत ही क्यों न हो.
नजर अकबराबादी के लफ्जों शिव का ब्याह इस तरह है:
बोल बचन आनंद के, प्रेम, प्रीत और चाह.
सुन लो यारो, ध्यान धर, महादेव का ब्याह.
जोगी-जंगम से सुना, वो भी किया बयान.
और कथा में जो सुना, उस का भी परमान.
सुनने वाले भी रहें हंसी-खुशी दिन-रैन.
और पढ़ें जो याद कर, उन को भी सुख चैन.
और जिसने इस ब्याह की, महिमा कही बनाय.
उसकी भी हर हाल में, शिव जी रहें सहाय.
खुशी रहें दिन रात वो, कभी ना हो दिलगीर.
महिमा उसकी भी रहे, जिसका नाम ‘नजीर’.
( नांव-नाम, परमान-प्रमाण, कारज-कार्य, सिध-सिद्ध, जंगम-एक प्रकार का पंथ हो जो गा-गाकर भगवान शिव की कथा सुनाने की प्रथा अब भी कायम रखे हुए है)
एक इतिहासकार के रूप में मैंने इस कविता को इस संदर्भ में याद किया है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वर्तमान टकराव 19वीं और 20वीं शताब्दी के बीच ‘ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपा गया’ एक क्रमिक विकास है. कोई आश्चर्य नहीं, 1857 से पहले लिखने वाले नजीर को वर्तमान समय की तरह भगवान शिव के हिंदुत्व के बारे में पता नहीं था. तब एक समर्पित मुसलमान शायर एक हिंदू ’ईश्वर’ की प्रशंसा में इसलिए लिख सका, क्योंकि उस समय दो धर्मों के बीच सीमांकन रेखा नहीं थी. इसके बजाय, भारतीय त्योहारों और अनुष्ठानों को सांस्कृतिक चिह्न के रूप में अधिक देखा जाता था.
यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि हालांकि भगवान शिव की प्रशंसा में लिखने की परंपरा जीवित है, लेकिन समय के साथ मुस्लिम शायरों में जुनून कम हो गया. 17वीं शताब्दी में अली मर्दान खान या 18वीं शताब्दी में नजीर ‘स्तुतियां’ लिख रहे थे, जिन्हें 20वीं शताब्दी में मीराजी द्वारा ‘प्रशंसा’ में बदल दिया गया था.