सदियों पहले भारत में बच्चों में टीकाकरण का था चलन, यूरोपियनों ने हमसे सीखा तरीका

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 26-12-2021
बंगाल में टीकाकरण करते टीकादार की तस्वीर (फोटो सौजन्यः blatner.com)
बंगाल में टीकाकरण करते टीकादार की तस्वीर (फोटो सौजन्यः blatner.com)

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्रिसमस की सौगात देशवासियो को दी है और आगामी 3 जनवरी से 15 साल से अधिक उम्र के बच्चों के टीकाकरण के अभियान शुरू होना का ऐलान किया है. कोविड 19 के ओमिक्रोन वैरिएंट के खतरे को देखते हुए बच्चों के टीकाकरण को शुरू करने की बहुत सारे विशेषज्ञ मांग कर रहे थे. यहां तक कि विपक्षी दल कांग्रेस के सांसद और नेता राहुल गांधी ने ट्वीट करके भी इसकी मांग की थी.

ओमिक्रोन के बढ़ते खतरे के बीच विशेषज्ञ टीकाकरण को सुरक्षित बचने का एक रास्ता बता रहे हैं और कुछ खास आयु वर्ग के (बुजुर्गों) के बूस्टर डोज की भी अनुमति दी गई है. पर, इन सबके बीच एक सवाल उठता है कि आखिर वैक्सीनेशन होता क्या है और हिंदी में इनको टीकाकरण क्यों कहते हैं और भारत में टीकाकरण का क्या इतिहास है.

क्या एडवर्ड जेनर के मशहूर चेचक के टीके को ही आधुनिक टीके की शुरुआत कहा जाना चाहिए या भारत में भी इसका कुछ इतिहास है? इसके जवाब के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. कुछ सदी पीछे.

मध्यकालीन बंगाल के गांवो में एक खास तरह की पूजाएं हुआ करती थीं. मंत्रों के तेज उच्चारणों और ढाक यानी ढोल की आवाजों के बीच शंख ध्वनि होती रही थी और इस मौके पर आते थे एक खास किस्म के पुजारी. यह पुजारी बच्चे के पास जाता था और उसके माथे पर एक छोटा-सा चीरा लगाकर अपने साथ लाई कोई चीज़ उस चीरे की जगह पर लगा देता था.

बंगाल में बच्चे का टीकाकरण करते टीकादार

इतिहासकार और अर्थशास्त्री अनिंद्य सेनगुप्ता लिखते हैं, “इसके बाद इस बच्चे को अलग कमरे में रखा जाता था और अगले कुछ दिनों तक उसे ठंडा खाना दिया जाता था. उसके कमरे के बाहर गांव की औरतें रंगोली या अल्पना बनाती थीं और उस पूजा के दौरान महिलाएं एक खास देवी शीतला माता की कथा कहती थीं और उनके गीत गाया करती थीं.”

बच्चे को अगर हल्का बुखार हो जाता था तो गांव में इस बात की खुशी होती थी कि उनकी कोशिश कामयाब रही है और बच्चे को देवी माता ने अपना आशीर्वाद दे दिया है. सेनगुप्ता कहते हैं, “अगले कुछ दिनों में बच्चे का बुखार धीरे-धीरे कम हो जाता था. लेकिन इसके बाद से आगे पूरी जिंदगी भर वह देवी उस बच्ची की रक्षा करती थी और बच्ची के माथे पर जो चीरे का दाग़ रह जाता था, उसको ही कहा जाता था टीका. इस मौके के लिए बुलाए गए खास पुजारियों को कहा जाता था टीकादार और समाज के कथित रूप से निचली जातियों यानी माली या नापित यानी नाई जाति के होते थे. और अगर वो ब्राह्मण भी हुए तो भी समाज में उनकी स्थिति नीचे ही होती थी.”

शीतला माता

सेनगुप्ता ने भारत के आर्थिक इतिहास पर अपनी किताब लक्ष्मीनामा में जिक्र किया है, “यह टीकादार नवंबर से लेकर मार्च की शुरुआत के बीच टीके लगाने का काम करते थे,और इस दौरान ये लोग चेचक के मरीज़ों के फोड़ों से मबाद इकट्ठा करते थे और इसको बांस के छोटी कमाचियों में रखते थे और फिर इसको बच्चों को लगाने के लिए पानी मिलाकर पतला बनाते थे. इन टीकादारों को टीकाकरण के इस काम के लिए शुल्क के रूप में अनाज दिया जाता था.”

माता शीतला,जैसा कि नाम से ही जाहिर है, उनका नाम ‘शीतल’शब्द से आया है जिसका मतलब होता है ठंडक. और यह देवी माता बुखार को दूर भगा देती थीं खासकर अगर वह बुखार चेचक या खसरे यानी स्मॉल पॉक्स या मीजल्स से आया हो.

सेनगुप्ता कहते हैं, “पुराणों में, शीतला माता को देवी दुर्गा का ही एक रूप बताया गया है, जो एक यज्ञ से ज्वरासुर यानी बुखार के दानव के साथ ही निकली थीं. शीतला माता की बहुत सारी कहानियां बंगाल की लोककथाओं में मिल जाता है और खासतौर पर बंगाल के मध्यकालीन मंगल काव्यों में भी उनकी बहुत चर्चा है.” 

चीन में इनॉक्युलेशन नाक में ब्लो पाइप के जरिए चेचक के सूखे मैटर को डालकर किया जाता था

दुनियाभर में हाल में, यानी 1980 के दशक में स्मॉल पॉक्स यानी चेचक पर काबू पाया जा सका, लेकिन उसके पहले इसका कोई इलाज नहीं था. सदियों तक, दुनिया भर मे चेचक फैलने से लाखों लोगों की मौत होती रही. लेकिन यह बात लोगों को पता थी कि एक बार चेचक से ग्रस्त होने के बाद, उससे चंगुल से बच निकले लोगों को दोबारा ये रोग नहीं होता. इस ज्ञान ने कृत्रिम प्रतिरोधक क्षमता बनाने के लिए इंसानी बुद्धि को उकसा दिया.

सेनगुप्ता कहते हैं, “शीतला माता के उपासक टीकाकरण की जिस विधि को अपनाते थे उसको ‘वेरियोलेशन’कहा जाता है. वैरियोलेशन लफ्ज़ आया है ‘वेरियोला’से जो चेचक के लिए लैटिन शब्द है.”

अठारहवीं सदी के यूरोपियन लेखकों ने लिखा है कि शीतला माता की पूजा करने वाले उत्तर भारत और पूर्वी भारत में टीकाकरण या इनोक्युलेशन की यह विधि बहुत प्रचलित थी. सेनगुप्ता कहते हैं, “दक्षिण भारत में शीतला माता की पूजा नहीं होती थी, वहां इनकी जगह लोग मरिअम्मा की पूजा करता था.” 

ओडिशा और उत्तरी आंध्र प्रदेश के टीकाकारों से सीखकर ब्रिटिश डॉक्टरों ने साल 1780 के दशक से मद्रास और उसके आसपास के इलाकों में यूरोपियनों और ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजियों को इनोकुलेट करना शुरू दिया.

सतरहवीं सदी तक, भारत के साथ ही इनोकुलेशन या टीकाकरण की यह विधि चीन और अफ्रीका के बड़े हिस्से में प्रचलित थी. चीन में टीका लगाने की इस विधि की शुरुआत आज से 1000 साल पहले शुरू हो चुकी थी और सन 1600 के आसपास चीन में इस विधि के लिखित सुबूत भी उपलब्ध हैं. ऐसा हो सकता है कि इन तीनों इलाकों में वैरिओलेशन या टीका लगाने की विधि अगल-अलग समय में अलग अलग विकसित हुई हो या फिर एक जगह से दूसरी जगह के लोगों ने सीखी हो.

सेनगुप्ता बताते हैं, “1717 में इस्तांबुल में ऑटोमन दरबार में ब्रिटिश राजदूक की पत्नी लेडी मेरा वॉर्टले मॉन्टेगू ने एक चिट्ठी अपनी सहेली सारा चिसवेल को लिखकर इंग्लैंड भेजी थी जिसमें उन्होंने तुर्की में चल रहे टीकाकरण की प्रक्रिया का ब्योरा लिख कर भेजा था. खुद लेडी मेरी को चेचक हो गया था और उन्होंने अपने बच्चों का वहां टीकाकरण करवाया था और इस चलन को इंग्लैंड में फैलाने में उनकी अहम भूमिका रही थी.”

लेडी मांटेग्यू

इसी तरह साल 1721 में जब बोस्टन में चेचक महामारी ने काफी तांडव मचाया उसके बाद प्यूरिटन मिनिस्टर कॉटन मैथर ने वैरोओलेशन यानी टीका लगाए जाने को काफी बढ़ावा दिया. और यह तरीका उन्होंने अपने पश्चिमी अफ्रीकी गुलाम ओनेसिमस से सीखा था.

अपने अफ्रीकी गुलाम से सीखकर वैरोओलेशन करते कॉटन मैथर

हालांकि, शीतला माता महामारियों की पहली देवी नहीं थी. चेचक की बौद्ध देवी का नाम हरिति था और वह दो हजार साल पहले ही गांधार, जिसको आजकल हम कंधार कहते हैं में प्रकट हो चुकी थीं. सेनगुप्ता कहते हैं, “बौद्ध मान्यताओं के मुताबिक, हरिति के नाम का मतलब होता है चोरी करने वाली, और वह असल में बच्चों को खानेवाली राक्षसी या चुड़ैल थी जो बाद भगवान गौतम बुद्ध के संपर्क में आने से बच्चों की रक्षक बन गई.”

165 ईस्वी से 180 ईस्वी के बीच पूरे यूरोप और एशिया में चेचक या खसरे की महामारी फैल गई थी और इसमें उस वक्त, यानी आज से कोई 2 हजार साल पहले 50 लाख लोग मारे गए थे. रोमन इतिहास में इस घटना एंटनी प्लेग कहा जाता है.

हिरीति की प्रतिमा (गांधार, पहली से दूसरी शताब्दी)

सेनगुप्ता एंटनी प्लेग का संबंध भारत से बताते हैं. वह कहते हैं, “रोमन एंटनी प्लेग के कोई तीन दशक पहले ही ऐसा ही एक प्लेग कुषाण साम्राज्य में भी फैलकर उसको तबाह कर चुका था  और इसकी वजह से पूरे गांधार इलाके में हरिति की मूर्तियों की भरमार हो गई थी. शायद यही महामारी रेशम मार्ग यानी सिल्क रूट के जरिए यूरोप तक पहुंच गई थी.”

धीरे-धीरे हरिति बुखार के साथ साथ प्रजनन की देवी के रूप में भी बदल गई और वह इस उप महाद्वीप में यानी दक्षिण एशिया में कई सदियों तक पूजी जाती रही. उनकी छवियां या मूर्तियां अफ़ग़ानिस्तान से लेकर आज के बांग्लादेश के राजशाही तक मिली हैं साथ ही आंध्र प्रदेश में भी उनकी मूर्तियां खुदाई में मिली हैं. हरिति देवी की यात्रा जापान तक भी रही जहां उनको कीशिमोज़िन कहा जाता है.

सेनगुप्ता एक और दिलचस्प ब्योरा देते हैं. वह कहते हैं, “बुखार की एक अन्य बौद्ध देवी का नाम है पर्णशबरी. उनके नाम का सीधा मतलब पत्तों पहने वाली आदिवासी स्त्री है. पूर्वी भारत में वह वज्रयान या तांत्रिक बौद्ध धर्म मे लोकप्रिय थीं. दिलचस्प बात यह है कि शीतला माता शुरुआत में उनकी सहेली के रूप मे दिखती हैं. लेकिन पर्णशबरी की जगह धीरे-धीरे शीतला माता ने ली लेकिन पर्णशबरी आज भी तिब्बती बौद्ध धर्म में असली रूप में मौजूद है.”

बांग्लादेश के राजशाही में उत्खनित पर्णशबरी की ग्यारहवीं सदी की प्रतिमा. नीचे दाहिनी तरफ शीतला को उनकी सहेली के रूप में उत्कीर्ण हैैं

इस बात में कोई शक नहीं है कि उस ज़माने में जब बीमारियों का कोई अच्छा उपचार मौजूद नहीं था, इन जानलेवा महामारियों से राहत के लिए देवताओं को ही बुलाया जाता और ऐसा पूरी दुनिया में किया जाता था. बंगाल में आज भी मंदिरों की भरमार है. वहां शीतला माता के साथ ही हैजा के लिए ‘ओलाई चंडी’की पूजा की जाती थी और मुस्लिम समुदाय इसी देवी को ‘ओला बीबी’कहता था. इसी तरह खून में संक्रमण से छुटकारे के लिए ‘देवी रक्तबती’और त्वचा रोग के लिए ‘घेटू’ की पूजा की जाती रही है.

लेकिन, शीतला माता अन्य देवियों या देवताओं के मुकाबले इस मायने में अलग हैं कि उनकी पूजा में वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाता था.

शीतला माता के उन टीकाकारों के पूजा से लेकर हालिया कोविड वैक्सीन तक, टेक्नोलजी में बहुत परिवर्तन आया है. लेकिन बुनियादी सिद्धांत वही है, प्रतिरोधक क्षमता या इम्यून रेस्पॉन्स को जगाने के लिए कमजोर एंटीजन को शरीर में डालना.

तो अगली दफा जब आप टीकाकरण शब्द का इस्तेमाल करें, यह जरूर याद रखें कि आज से सैकड़ों साल पहले से हजारों टीकाकारों ने वैक्सीन की औपचारिक खोज से पहले ही लाखों लोगों का वैरोलेशन कर दिया था. नाम पूजा रहा हो लेकिन काम डॉक्टरों वाला था.