मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली
दुनियाभर में शुरुआत में ऐसा माना जाता था कि पर्यावरण के प्रति जागरूकता बीसवीं सदी की देन है और उसके बाद से लोगों में वन्य जीवों के संरक्षण और जंगलों को बचाने की मुहिम शुरू हुई. लेकिन पर्यावरण समाजशास्त्री मोहम्मद सैदुल इस्लाम ने लिखा है, यह पर्यावरणवाद को देखने का महज एक नजरिया है और दुनियाभर में औद्योगीकरण के पहले एक पुराना पर्यावरणवाद भी अस्तित्व में था.
डॉ इस्लाम का जोर खासतौर पर इस्लामिक पर्यावरणवादी विचारधारा पर है. उनके विचारों का आधार पवित्र कुरान के कथनों की व्याख्या पर है, जिसमें गैर-इंसानी जीवों को भी बराबर का अधिकार देने की गारंटी दी गई है और जानवरों के प्रति दया की भावना को मुस्लिमों के लिए आस्था का विषय बताया गया है.
उनके मुताबिक, कुरान की एक आयत कहती है, “इस धरती पर कोई जानवर नहीं, न ही दोनों पंखों से उड़ने वाला कोई जीव है, बल्कि वह सभी तुम्हारी तरह ही हैं.”
शोध पत्रिका जेस्टॉर में लिविया गर्शॉन लिखती हैं कि बीसवीं सदी में, मोरक्को के मौलाना मुफ्ती इमामा ताजुद्दीन एच. अलहिलाली ने कुरान की आयतों को कारखानों से पैदा होने वाले प्रदूषण से हवा और समुद्र को पहुंचने वाले नुक्सान पर लागू किया है, जिससे कुदरत पर हमला होता दिखता है और जीव-जंतुओं को भी नुक्सान होता है.
शोध पत्रिका जेस्टॉर में लिविया गर्शॉन को उद्धृत करती हुई लिखती हैं “अलहिलाली ने लिखा है कि धरती हमारी पहली मां है, इसलिए इसका हम पर कुछ तयशुदा अधिकार भी हैं.”
सदियों तक मुस्लिम विद्वानों ने ‘हिमा’ के विचार को सुरक्षित और प्रतिष्ठित रखा है. हिमा का मतलब होता है एक सुरक्षित या संरक्षित इलाका. इस्लामी कानून पानी के संसाधनों के इस्तेमाल और जमीन के उपयोग के बारे में कायदे तय करते हैं. और इसके मुताबिक, उपयोगी पेड़ों को काटना मना है.
इस्लाम ने शोध पत्रिका जेस्टोर में लिखा है, “कई मुस्लिम देशों में अब कुछ वन्य इलाकों को सुरक्षित रखा जाता था, जहां न तो विकास के काम किए जा सकते थे और न ही खेती की जा सकती थी. और यही आधुनिक वन्यजीव अभयारण्य बन गए हैं.”
बेशक, सभी मुस्लिम या मुस्लिमबहुल देशों में पर्यावरण के लक्ष्यों को प्राथमिकता नहीं दी जाती है, लेकिन डॉ. इस्लाम ने अपने लेख में ऐसी चिंताओं को लेकर बढ़ती जागरूकता का इशारा किया है.
शोध पत्रिका जेस्टॉर में लिविया गर्शॉन इस्लामी दर्शनशास्त्री और विद्वान सैयद हुसैन नस्र का जिक्र करती हैं, जिनका कहना है कि यूरोपीय जागरण ने उससे पहले अस्तित्व में रहे प्राकृतिक संतुलन के विचार को खत्म करके मानव केंद्रित विश्वविचार पेश किया.
डॉ इस्लाम लिखते हैं, “नस्र पर्यावरण संकट को एक आध्यात्मिक संकट की तरह देखते हैं. वह नहीं चाहते कि इस्लाम खुद को विभिन्न कर्मकांडों में उलझाकर थक जाए, बल्कि दुनिया की जिम्मेदारी निजी तौर पर अपने कंधों पर उठाए.”
ऐसे विद्वानों की अपील के मद्देनजर अमेरिका के स्थानीय समूहों मसलन डीजी ग्रीन मुस्लिम जैसे पर्यावरण संगठन जागरूकता बढ़ाने में लगे हुए हैं जो मुस्लिमबहुल आबादी वाले बड़े देशों में भी यह काम कर रहे हैं.
मिसाल के तौर पर, जंजीबार में 2008 में इस्लाम आधारित संरक्षण गाइड तैयार किया गया था, जो टिकाऊ मछली उद्योग को बढ़ावा देता है. यही नहीं, अफ्रीकी मुस्लिम पर्यावरण नेटवर्कत ने जकात की रकम को पर्यावरणीय शिक्षा और टिकाऊ विकास की परियोजनाओं में खर्च किया है. मलेशिया के तेरेंग्गानू प्रांत में 400 मस्जिदों ने कछुओं के संरक्षण और उसके अवैध शिकार के खिलाफ हाथ मिलाएं हैं.
हालांकि जेस्टॉर की शोध पत्रिका के मुताबिक, इन कोशिशों ने दुनियाभर के पर्यावरणविदों का ध्यान खींचा है लेकिन सचाई यह भी है कि इनमें इस्लामी परंपरा और समृद्ध इतिहास की झलक दिखती है.