एक साल बेमिसालः हिंदुस्तान में मजहबी एकता हमारा असली सरमाया है

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 20-01-2022
एक साल बेमिसालः रोशनी यहां है
एक साल बेमिसालः रोशनी यहां है

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

क्या देश में धार्मिक सद्भाव बनाने के लिए हमें इसके स्टोरी खोजने की जरूरत है? नहीं. गंगा-जमुनी तहजीब हमारे जेहन में बुनियाद की तरह पैवस्त है और इसे खोजने की नहीं, बस लोगों को याद दिलाने की जरूरत है. 23 जनवरी 2021 से अपना सफर शुरू करते हुए बारह महीनों और छह ऋतुओं के हमने ऐसी कुछ कहानियो की याद लोगों की दिलानी चाही, जिनसे हमारे देश का डीएनए तैयार हुआ है.

यह कहानियां रोशनी के पैगाम सरीखी हैं और इनसे उजाले की ओर का रास्ता दिखता है.

भारत में इतिहास के छात्रों ने 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जितना पढ़ा है,उसमें से कई महत्वपूर्ण और प्रेरक कहानियों को भुला दिया गया है. सामान्य विद्यार्थियों को जाने दीजिए, इतिहास के छात्रों की भी शायद ही कभी रॉयल गढ़वाल राइफल्स के चंद्रसिंह गढ़वाली और उनके सैनिकों के बारे में बताया गया हो. भारत में हम में से कितने लोग गढ़वाली को आजाद हिंद फौज के गठन के पीछे एक प्रेरणा के रूप में याद करते हैं?

1930 में, जब महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया, चंद्रसिंह गढ़वाली रॉयल गढ़वाल राइफल्स के साथ पेशावर में तैनात थे, जहां इस आंदोलन का नेतृत्व खान अब्दुल गफ्फार खान कर रहे थे. 22 अप्रैल, 1930 तक अंग्रेजों ने गफ्फार खान और पेशावर के अन्य प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था.

22 अप्रैल की रात को एक अंग्रेज अधिकारी ने गढ़वाली सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा कि पेशावर के लोग मुस्लिम पठान हैं, जो हिंदुओं की दुकानों पर हमला कर सकते हैं इसलिए उन्हें अगली सुबह इस पठान भीड़ पर गोली चलाने के लिए तैयार रहना चाहिए.

अधिकारी के जाने के बाद चंद्र सिंह ने गढ़वाली सैनिकों की एक गुप्त बैठक की और पूछा, "क्या कोई गढ़वाली ऐसा करने के लिए तैयार है?". इस पर सभी सिपाहियों ने एक स्वर में उत्तर दिया कि वे अपने देशवासियों पर गोलियां नहीं चलाना चाहते. चंद्र सिंह को यही उत्तर चाहिए था. उन्होंने जलियांवाला बाग, पंजाब में गोरखा सैनिकों और केरल के मोपला में गढ़वाली सैनिकों की गलतियों को न दोहराने के लिए एक भाषण दिया.

अगले दिन, 23 अप्रैल, 1930 को, कैप्टन रिकेट रॉयल गढ़वाल राइफल्स के 72 सैनिकों को अपने साथ किस्सा ख्वानी बाजार, पेशावर ले गए, जहां भारतीय देशभक्त अपने नेताओं, विशेषकर गफ्फार खान की गिरफ्तारी के विरोध में एकत्र हुए थे. रिकेट ने सैनिकों को आदेश दिया, "गढ़वाली,तीन राउंड फायर", तुरंत चंद्र सिंह, सार्जेंट मेजर, चिल्लाया, "गढ़वाली, फायर मत करो".

गढ़वाली के सैनिकों ने अपने हथियार जमीन पर रख दिए. इस बीच, अगले दिन पूरी गढ़वाली बटालियन को कोर्ट मार्शल में ट्रायल के तहत रखा गया. मुकदमे के दौरान गढ़वालियों ने अदालत से कहा, "हम अपने निहत्थे भाइयों को गोली नहीं मारेंगे... आप चाहें तो हमें बंदूकों से उड़ा सकते हैं".

चंद्र सिंह गढ़वाली को मौत की सजा सुनाई गई थी जबकि अन्य को अलग-अलग कारावास या कालेपानी की सजा सुनाई गई थी. बाद में सजा को कम कर दिया गया और 11 साल बाद चंद्र सिंह को रिहा कर दिया गया.

स्टोरीः जब चंद्रसिंह गढ़वाली ने मुसलमान भाइयों पर गोली चलाने से किया था इनकार

इस देश की यही असली विरासत है कि एक हिंदू सैनिक मुसलमानों पर गोलियां चलाने से इनकार करता है और यह घटना पश्चिमी भारत के पेशावर (अब पाकिस्तान) में होती है तो ठीक दूसरे छोर पर, करीब एक सदी के बाद पटना में हिंदुओं के पवित्र त्योहार छठ पर मुस्लिम महिलाएं, बुर्के और हिजाबों में, सड़कों और गंगा घाटों की सफाई के लिए निकल पड़ती हैं. साफ-सफाई के इस त्योहार के नियमों और परंपराओं का ख्याल रखती हुई मुस्लिम महिलाएं प्रसाद तैयार करने के लिए मिट्टी के चूल्हे भी तैयार कर रही होती हैं.

स्टोरीः बिहारः सौहार्द बनाने सड़कों पर उतरी मुस्लिम महिलाएं


पटना से थोड़ा और पूरब की ओर बढ़े तो बिहार के ही पूर्णिया जिले में गुलाम सरवर हैं जिनको शौक बागवानी का है लेकिन छठ में वह हिंदुओं के पूजाघरों में सजाने के लिए अपने पौधे देते हैं. यहां कोई वैमनस्य नहीं है, कोई भेद नहीं है.

छठ में सांप्रदायिक सौहार्द्र, हिंदुओं के पूजाघर में सजते हैं गुलाम सरवर के पौधे

अपने एक साल के सफर में हमने यह पाया है कि भारत के त्योहारो को किसी एक धर्म से बांधा नहीं जा सकता. ईद में हिंदू के घर भी सिवइयां बनती हैं और मुस्लिम रामलीला में हिस्सेदारी करते हैं.

मिसाल इटावा जिले के गांव चकवा बुजुर्ग के निवासी अल्लाह बख्श हैं. हिंदू-मुस्लिम साझा संस्कृति की अल्लाह बख्श के पास रहमत और रहमान दोनों है. उन्होंने दशहरे की रामलीला में अपने अभिनय से मशहूरियत भी खूब पाई है. बीते 30 सालों से रामलीलाओं में गंगा-जमुनी संस्कृति की रामायण के भरत और रावण के किरदार से लोगों की वाहवाही बटोर रहे हैं.

इटावा की बसरेहर रामलीला अल्लाह बख्श की खास है. यहां नजदीक में ही अल्लाह बख्श का गांव भी है. यहां उनके भरत और रावण के शानदार अभिनय की आवाम दीवानी है. अल्लाह बख्श के लिए दोनों पात्र उनके दमदार अभिनय से कई सालों से यहां रिजर्व रहे हैं.

अल्लाह बख्श अपने अभिनय में निरंतर बेहतरी लाने के लिए रामायण का पाठ करते हैं और यही उनका रियाज बन गया है.

स्टोरीः तारीख बन गया अल्लाह बख्श का रावण और भरत का किरदार  

प्रेम और भाईचारे की एक मिसाल कोलकाता से दुर्गापूजा के दौरान आई. कोलकाता के अलीमुद्दीन स्ट्रीट को मुसलमानों की आबादी का इलाका माना जाता है, और मुहल्ले में सिर्फ तीन हिंदू परिवार रहते हैं. लेकिन मुहल्ले के दस नौजवानों ने मिलकर उनके लिए दुर्गा पंडाल बनाया और हिंदू रीति-रिवाजों से दुर्गापूजा का आयोजन किया.

बेशक, मौजूदा माहौल में आसानी से भरोसा करना मुश्किल होगा, लेकिन जमीनी हकीकत अब भी उतनी बुरी नहीं है जितनी सोशल मीडिया पर बताई जा रही है.

कोलकाता के तौसीफुर रहमान की टीम ने क्यों किया दुर्गापूजा का आयोजन

उधर, कर्नाटक के शिवमोगा में दशहरा उत्सव से पहले, एक मुस्लिम महिला ने अपने दिवंगत पति के बनाए मंदिर में विशेष पूजा की. इसे निर्माण के बाद हिंदू समुदाय को सौंप दिया गया था. भगवती अम्मा मंदिर का निर्माण एक रेलवे कर्मचारी इब्राहिम शरीफ ने करवाया था. फामिदा के अब दिवंगत पति शरीफ घर में नमाज पढ़ते थे और मंदिर में पूजा.

कर्नाटकः दिवंगत इब्राहिम ने बनवाया मंदिर, पत्नी फामिदा ने की देवी पूजा

यह देश विविधता का है, दुनिया के तकरीबन सारे मजहब इस देश में पाए जाते हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों में अधिक आबादी मुसलमानों की हैं. और बार-बार हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा होने की खबरें उछाली जाती है.

पर ऐसा है नही. जमीनी हकीकत यह है कि दोनों समुदाय गुड़ और शक्कर की तरह घुले मिले हैं, वरना गंज डुंडवारा में राम बारात का स्वागत करने मुस्लिम समुदाय के लोग नहीं उमड़ पड़ते.

अगर शांति और अमन दोनों समुदायों की मंजिल नहीं होती तो कभी भी ऐसा नहीं होता कि मुहर्रम के ताजिए को रामलीला के मंच पर जगह दी जाती. पर, कानपुर के पास कठारा गांव में ऐसा हुआ और दोनों त्योहारों के आसपास पड़ने की वजह से अंदेशे के बादलों के बीच से अमन की उम्मीद का सूरज निकल आया.

सामाजिक भाईचारे में जो बुरी ताकतें दरारें खोजना चाहते हैं, उनके लिए असरार अहमद खान जोरदार जवाब हैं. कुल जमा खबर इतनी है कि चित्रकूट धाम के कामतानाथ मंदिर में हजारों श्रद्धालुओं की दर्शनार्थ भीड़ जुट रही है और असरार अहमद खान बतौर ग्राम प्रधान श्रद्धालुओं की मेजबानी कर रहे हैं और उन्हें भंडारा खिला रहे हैं.

अपने एक साल के सफर में हमने कुछ भाव-विभोर कर देने वाली रपटें पढ़ी और प्रकाशित की हैं. हिंदुस्तान की तहजीब में हमारा प्रेम वह सीमेंट है जो दोनों समुदायों को हमेशा एक करके रखा रहेगा.