निर्देशक एमएस सथ्यू और उनकी ऑल टाइम ग्रेट फिल्म ‘गर्म हवा’

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 06-07-2021
एम एस सथ्यू की फिल्म गरम हवा बंटवारे के दर्द पर बनी सबसे अहम फिल्मों में से एक है
एम एस सथ्यू की फिल्म गरम हवा बंटवारे के दर्द पर बनी सबसे अहम फिल्मों में से एक है

 

जन्मदिन विशेष । एम एस सथ्यू

ज़ाहिद खान

हिन्दी सिनेमा में बहुत कम ऐसे निर्देशक रहे हैं, जिन्होंने अपनी सिर्फ एक फिल्म से फिल्मी दुनिया में ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि आज भी उसकी कोई दूसरी मिसाल ढ़ूढ़ें नहीं मिलती. निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू यानी एमएस सथ्यू ऐसा ही एक नाम और साल 1973 में आई उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’, ऐसी ही एक कभी न भूलने वाली फिल्म है.

एमएस सथ्यू की इकलौती यही फिल्म, उनको भारतीय सिनेमा में बड़े फिल्मकारों की क़तार में खड़ा करती है.

‘गर्म हवा’ को रिलीज हुए, आधी सदी होने को आई, मगर यह फिल्म आज़ भी अपने विषय और संवादों की वजह से हमारे मन को उद्वेलित, आंदोलित करती है. मुल्क़ के अंदर आज़ादी के शुरुआती सालों में हिंदोस्तानी मुसलमानों की जो मनःस्थिति थी, वह इस फिल्म में बखूबी उभरकर सामने आई है.

फिल्म न सिर्फ मुसलमानों के मन के अंदर झांकती है, बल्कि बंटवारे से हिंदोस्तानी समाज के बुनियादी ढांचे में जो बदलाव आए, उसकी भी सम्यक पड़ताल करती है. निर्देशक एमएस सथ्यू ने बड़े ही हुनरमंदी और बारीकता से उस दौर के पूरे परिवेश को फिल्माया है. ‘गर्म हवा’, एमएस सथ्यू की पहली हिन्दी फिल्म थी. इससे पहले उन्होंने फिल्म निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद के सहायक निर्देशक के तौर पर फिल्म हक़ीकत में काम किया था. रंगमंच और सिनेमा में एनिमेशन आर्टिस्ट, असिस्टेंट डायरेक्टर (चेतन आनंद), निर्देशन (फिल्म और नाटक), मेकअप आर्टिस्ट, आर्ट डायरेक्टर, प्ले डिजाइनर, लाइट डिजाइनर, लिरिक्स एक्सपर्ट, इप्टा के प्रमुख संरक्षक, स्क्रिप्ट राइटर, निर्माता जैसी अनेक भूमिकाएं एक साथ निभाने वाले एमएस सथ्यू की पैदाइश देश के दक्षिणी प्रदेश कर्नाटक के मैसूर की है.

एक कट्टरपंथी ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई, 1930 को जन्मे एमएस सथ्यू को उनके परिवार वाले वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, लेकिन सथ्यू ने अपने पिता की मर्ज़ी के खिलाफ़ बीए की पढ़ाई पूरी की और उसके बाद बाद सिनेमा और थियेटर में अपने भविष्य की तलाश में मुंबई रवाना हो गए. जहां उन्हें कुछ अरसे के स्ट्रगल के बाद कामयाबी भी हासिल हुई.

फिल्म ‘गर्म हवा’ जब रिलीज हुई, तो उसने बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखाया. अलबत्ता फिल्म क्रिटिक द्वारा यह फिल्म खूब पसंद की गई. साल 1974 में फ्रांस के मशहूर ‘कांस फिल्म फेस्टिवल’ में गोल्डन पॉम के लिए इस फिल्म का नॉमिनेशन हुआ. भारत की ओर से यह फिल्म ‘ऑस्कर’ के लिए भी नामित हुई. राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए इसे सर्वोत्तम फीचर फिल्म का ‘नरगिस दत्त राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला. यही नहीं फिल्म को तीन ‘फिल्म फेयर अवार्ड्स’ भी मिले. जिसमें बेस्ट डायलॉग कैफ़ी आज़मी, बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड शमा ज़ैदी व कैफ़ी आज़मी और बेस्ट स्टोरी अवार्ड इस्मत चुगताई की झोली में गए.

साल 2005 में ‘इंडिया टाईम्स मूवीज’ ने जब बॉलीवुड की सर्वकालिक बेहतरीन 25 फिल्में चुनी, तो उसमें उन्होंने ‘गर्म हवा’ को भी रखा. एक अकेली फिल्म से इतना सब कुछ हासिल हो जाना, कोई छोटी बात नहीं. फिल्म ‘गर्म हवा’ में ऐसा क्या है ?, जो इसे सर्वकालिक महान फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है.

खुद एमएस सथ्यू की नज़र में ‘‘फिल्म की सादगी और पटकथा ही उसकी ख़ासियत है.’’ जिन लोगों ने यह फिल्म देखी है, वे जानते हैं कि उनकी यह बात सौ फीसद सही भी है. साल 1947में हमें आज़ादी देश के बंटवारे के तौर पर मिली. देश हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया. बड़े पैमाने पर लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पलायन हुआ. हिंदोस्तानी मुसलमानों के सामने बंटवारे के बाद, जो सबसे बड़ा संकट पेश आया, वह उनकी पहचान को लेकर था.

आज़ाद हिंदोस्तान में उनकी पहचान क्या होगी ? गोया कि यह वही सवाल था, जो आज़ादी से पहले भी उनके दिमाग को मथ रहा था. भारत के बंटवारे के बाद जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान की बजाय हिंदोस्तान को अपना मुल्क़ चुना और यहीं रहने का फैसला किया, उन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी. देखते ही देखते वे अपने मुल्क़ में पराए हो गए. मानो बंटवारे के कसूरवार, सिर्फ वे ही हों.

आज़ादी को मिले सात दशक से ज्यादा गुज़र गए, मगर हिंदोस्तानी मुसलमान आज भी कमोबेश उन्हीं सवालों से दो-चार है. पहचान का संकट और पराएपन का दंश आज़ भी उनके पूरे अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख देता है. यही वजह है कि ‘गर्म हवा’ आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है. फिल्म जब रिलीज हुई, तब तो इसकी प्रासंगिकता थी ही, मौजूदा हालात में इसकी और भी ज्यादा प्रासंगिकता बढ़ गई है. फिल्म का शीर्षक ‘गर्म हवा’ एक रूपक है, साम्प्रदायिकता का रूपक ! यह साम्प्रदायिकता की गर्म हवा आज भी हमारे मुल्क़ पर फन फैलाए बैठी है. यह गर्म हवा जहां-जहां चलती है, वहां-वहां हरे-भरे पेड़ों को झुलसा कर रख देती है. फिल्म के एक सीन में सलीम मिर्जा और तांगेवाले के बीच का अर्थवान संवाद है,‘‘कैसे हरे भरे दरख़्त कट जा रहे हैं, इस गर्म हवा में.’’

‘‘जो उखड़ा नहीं, वह सूख जाएगा.’’ एक तरफ ये गर्म हवा फ़िजा को जहरीला बनाए हुए है, तो दूसरी ओर सलीम मिर्जा जैसे लोग भी हैं, जो भले ही खड़े-खड़े सूख जाएं, मगर उखड़ने को तैयार नहीं. कट जाएंगे, मगर झुकने को तैयार नहीं.

फिल्म ‘गर्म हवा’ की शुरुआत रेलवे स्टेशन से होती है, जहां फिल्म का हीरो सलीम मिर्जा अपनी बड़ी आपा को छोड़ने आया है. एक-एक कर उसके सभी रिश्तेदार, हमेशा के लिए पाकिस्तान जा रहे हैं. सलीम मिर्जा के रिश्तेदारों को लगता है कि बंटवारे के बाद अब उनके हित हिंदोस्तान में सुरक्षित नहीं. बेहतर मुस्तक़बिल की आस में वे अपनी सरज़मीं से दूर जा रहे हैं. पर सलीम मिर्जा इन सब बातों से जरा सा भी इत्तेफ़ाक नहीं रखते. वे अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि को ही अपना मुल्क़ मानते हैं. बदलते हालातों में भी उनका यकीन जरा सा भी नहीं डगमगाता. अपने इस यकीन पर वे ज़िंदा हैं, ‘‘गांधीजी की क़ुर्बानी रायगा नहीं जाएगी, चार दिन के अंदर सब ठीक हो जाएगा.’’

बहरहाल पहले उनकी बड़ी बहिन, फिर भाई और उसके बाद उनका जिगर का टुकड़ा बड़ा बेटा भी हिंदोस्तान छोड़, पाकिस्तान चला जाता है. पर वे तब भी हिम्मत नहीं हारते. हर हाल में वे खुश हैं. जबकि एक-एक कर, दुःखों का पहाड़ उन पर टूटता जा रहा है. अपने उनसे ज़ुदा हुए तो हुए, साम्प्रदायिक दंगों की आग में उनके जूते का कारखाना जलकर तबाह हो जाता है. पुरखों की हवेली पर कस्टोडियन का कब्जा हो जाता है. और तो और ख़ुफिया महकमा उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम भी लगा देता है, जिसमें वे बाद में बाइज्जत बरी होते हैं. इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सलीम मिर्जा को आस है कि एक दिन सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा. ज़िंदगानी के संघर्ष में वे उस वक्त पूरी तरह टूट जाते हैं, जब उनकी जान से प्यारी बेटी आमना ख़ुदकुशी कर लेती है.

बेटी आमना की ख़ुदकुशी के बाद, वे फैसला कर लेते हैं कि अब हिंदोस्तान नहीं रुकेंगे. अपने परिवार को लेकर पाकिस्तान चले जाएंगे. अब आखिर, यहां बचा ही क्या है ! पर फिल्म यहां ख़त्म नहीं होती, बल्कि यहां से वह फिर एक नई करवट लेती है. फिल्म के आखिरी सीन में सलीम मिर्जा अपना मुल्क़ छोड़कर, उसी तांगे से स्टेशन जा रहे हैं, जिस तांगे से उन्होंने अपनों को पाकिस्तान के लिए स्टेशन छोड़ा था. तांगा रास्ते में अचानक एक जुलूस देखकर ठिठक जाता है. जुलूस मजदूर, कामगारों और बेरोजगार नौजवानों का है, जो ‘‘काम पाना हमारा मूल अधिकार !’’ की तख्तियां को लिए नारेबाजी करता हुआ आगे जा रहा है.

सिंकदर अपने अब्बा से आंखों ही आंखों में कुछ पूछता है. सलीम मिर्जा, जो अब तक सिंकदर की तरक़्क़ीपसंद बातों को हवा में उड़ा दिया करते थे, कहते हैं ‘‘जाओ बेटा, अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. इंसान कब तक अकेला ज़ी सकता है ?’’ सिकंदर, जुलूस की भीड़ में शामिल हो जाता है. सलीम मिर्जा इस जुलूस को देखते-देखते यकायक खुद भी खड़े हो जाते हैं और अपनी बेगम से कहते हैं,‘‘मैं भी अकेली ज़िंदगी की घुटन से तंग आ चुका हूं. तांगा वापिस ले लो.’’ यह कहकर वे भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं, जो अपने हक़ों के लिए संघर्ष कर रही है. बेहतर भविष्य का सपना और उसके लिए एकजुट संघर्ष का पैग़ाम देकर, यह फिल्म अपने अंज़ाम तक पहुंचती है.

एक लिहाज़ से देखें तो यह फिल्म का सकारात्मक अंत है. जो एक विचारवान निर्देशक के ही बूते की बात है. और यह सब इसलिए मुमकिन हुआ कि इस फिल्म से जो टीम जुड़ी हुई थी, उनमें से ज्यादातर लोग तरक़्क़ीपसंद और वामपंथी आंदोलन से निकले थे. फिल्म उर्दू की मशहूर लेखिका इस्मत चुग़ताई की कहानी पर आधारित है. इस कहानी को और विस्तार दिया, शायर कैफ़ी आज़मी ने. एमएस सथ्यू की पत्नी रंगमंच की एक और मशहूर हस्ती शमा ज़ैदी ने कैफ़ी के साथ मिलकर इस फिल्म की पटकथा लिखी. संवाद जो इस फिल्म की पूरी जान हैं, उन्हें भी कैफ़ी ने ही लिखा और उन्हें एक नई अर्थवत्ता प्रदान की. गर्म हवा के संवाद इतने चुटीले हैं कि फिल्म में कई जगह यह संवाद ही, अभिनय से बड़ा काम कर जाते हैं. मसलन‘‘अपने यहां एक चीज मजहब से भी बड़ी है, और वह है रिश्वत.’’

‘‘नई-नई आज़ादी मिली है, सब इसका अपने ढंग से मतलब निकाल रहे हैं.’’

फिल्म के मुख्य किरदार सलीम मिर्जा का रोल निभाया है, बलराज साहनी ने. उनके बिना इस फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. बलराज साहनी की यह आखिरी फिल्म थी. ‘गर्म हवा’ में उन्होंने जो अभिनय किया, वह मील का पत्थर है. बलराज साहनी ही नहीं फिल्म में और जितने भी कलाकार हैं, उन्होंने भी इसमें ग़जब का काम किया है. सलीम मिर्जा की बेगम के रोल में मशहूर रंगकर्मी शौकत आजमी, तो उनकी मां के रोल में बदर बेग़म खूब जमी हैं.

मशहूर चरित्र अभिनेता एके हंगल का ज़िक्र किए बिना इस फिल्म की बात पूरी नहीं हो सकती. एके हंगल ने फिल्म में कराची से भागे एक सिंधी व्यापारी अज़मानी साहब की भूमिका निभाई है. अज़मानी साहब भी पाकिस्तान से अपने सीने में वही जख़्म लेकर आए हैं, जो सलीम मिर्जा को हिंदोस्तान में मिल रहे हैं. बावजूद इसके उनके मन में मुसलमानों के खिलाफ बिल्कुल भी बदले की भावना नहीं है. सलीम मिर्जा के दर्द को यदि कोई सबसे ज्यादा समझता है, तो वह अजमानी साहब हैं. अजमानी साहब के किरदार को एके हंगल ने बड़े ही संजीदगी और सादगी से निभाया है. सिकंदर मिर्जा के रोल में फारुख शेख, हलीम मिर्जा-दीनानाथ जुत्शी, शमशाद-जलाल आगा, बेदार मिर्जा-अबू शिवानी,आमना-गीता काक भी खूब जमे हैं.

फिल्म में निर्देशक एमएस सथ्यू ने कैफी आजमी की नज़्म का बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया है. कैफ़ी की यह बेहतरीन नज़्मों में से एक है. नज़्म फ़िरकापरस्ती पर है और फिल्म में बिल्कुल सटीक बैठती है. नज़्म दो हिस्सों में है. पहला हिस्सा फिल्म की शुरूआत में शीर्षक के दौरान पार्श्व में गूंजता है,‘‘तक़्सीम हुआ मुल्क़, तो दिल हुआ टुकड़े-टुकड़े/हर सीने में तूफां यहां भी था, वहां भी/हर घर में चिता जलती थी, लहराते थे शोले/हर घर में शमशान वहां भी था, यहां भी/गीता की न कोई सुनता, न कुरान की/हैरान इंसान यहां भी था और वहां भी.’’ नज़्म का बाकी हिस्सा फिल्म के आख़िर में आता है, ‘‘जो दूर से करते हैं नज़ारा/उनके लिए तूफ़ान वहां भी है, यहां भी/धारे में जो मिल जाओगे, बन जाओगे धारा/यह वक़्त का एलान यहां भी है, वहां भी.’’ बंटवारे की त्रासदी और उसके बाद एक सकारात्मक संदेश, गोयाकि फिल्म का पूरा परिदृश्य नज़्म में उभरकर सामने आ जाता है.

हिंदी सिनेमा इतिहास में ‘गर्म हवा’ ऐसी पहली फिल्म है, जो बंटवारे के बाद के भारतीय समाज की सूक्ष्मता से पड़ताल करती है. फिल्म का विषय जितना नाजुक है, निर्देशक एमएस सथ्यू और पटकथा लेखक कैफ़ी आज़मी ने उतना ही उसे कुशलता से हैंडल किया है. जरा सा भी लाउड हुए बिना, उन्होंने साम्प्रदायिकता की नब्ज़ पर अपनी अंगुली रखी है. ‘गर्म हवा’ में ऐसे कई सीन हैं, जो विवादित हो सकते थे, लेकिन एमएस सथ्यू की निर्देशकीय सूझ-बूझ का ही नतीज़ा है कि यह सीन जरा सा भी लाउड नहीं लगते. बड़े ही संवेदनशीलता और सावधानी से उन्होंने इन सीनों को फिल्माया है. फिल्म का कथानक और इससे भी बढ़कर सकारात्मक अंत, फिल्म को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करता है.

विभाजन से पैदा हुए सवाल और इन सबके बीच सांस लेता मुस्लिम समाज. विस्थापन का दर्द और कराहती मानवता. उस हंगामाखेज दौर का मानो एक जीवंत दस्तावेज है, ‘गर्म हवा’. भारतीय सिनेमा का जब-जब इतिहास लिखा जाएगा, उसमें फिल्म ‘गर्म हवा’ का नाम ज़रूर शामिल होगा. अपनी इस अकेली फिल्म से निर्देशक एमएस सथ्यू भारतीय सिनेमा में अमर रहेंगे. एमएस सथ्यू ने अपनी ज़िंदगानी के 91साल पूरे कर लिए हैं. वे आज भी रंगमंच और इप्टा में उसी ज़ोश-ओ खरोश के साथ सरग़र्म हैं, जैसे कि शुरूआत में थे. इतनी उम्र के बाद भी न तो उनके जज़्बे में कोई कमी आई है और न ही कमिटमेंट में. यही सब बातें हैं जो निर्देशक एमएस सथ्यू और उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’ को ऑल टाइम ग्रेट बनाती हैं.