एक आंदोलनकारी लोक शाहीर

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 2 Years ago
एक आंदोलनकारी लोक शाहीर
एक आंदोलनकारी लोक शाहीर

 

आवाज विशेष । 29 अगस्त, लोक शाहीर अमर शेख़ की पुण्यतिथि    

ज़ाहिद ख़ान

अमर शेख़ एक आंदोलनकारी लोक शाहीर थे. वे जन आंदोलनों की उपज थे. यही वजह है कि अपनी ज़िंदगी के आखिरी समय तक वे आंदोलनकारी रहे. देश की आज़ादी के साथ-साथ ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ और ‘गोवा मुक्ति आंदोलन’ में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही. उन्होंने इन आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.

अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गव्हाणकर जैसे होनहार साथियों के साथ अमर शेख़ बंबई इप्टा में शुरुआत से ही शामिल हो गए थे. ज़मीन से जुड़े इन कलाकारों ने ‘तमाशा’ (महाराष्ट्र का लोक नाट्य), लावणी (लोक नृत्य) और ‘पोवाड़ा’ (लोक गाथा) जैसी महाराष्ट्र की लोक कलाओं को एक नई ज़िंदगी दी. उनमें नये रंग भरे, नये प्रयोग किए. कारख़ानों में कामगारों और ग्रामीण इलाकों में किसानों के बीच जब वे इन कलाओं को पेश करते, तो बड़े पैमाने पर दर्शक उनसे जुड़ जाते थे. उनमें नया जोश जाग उठता था.

20 अक्टूबर, 1916 महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वार्शी तालुके में एक गरीब परिवार में जन्मे अमर शेख़ का असली नाम मेहबूब हुसेन पटेल था. गरीबी की वजह से वे बमुश्किल सातवीं जमात तक पढ़ पाए. उनका बचपन अभावों में बीता. स्कूल की पाठशाला से ज्यादा उन्हें ज़िंदगी की पाठशाला ने पढ़ाया-सिखाया. संघर्ष ही उनके गुरु थे. ज़िंदगी के गुज़ारे के लिए उन्होंने छोटे-छोटे काम किए. मसलन अख़बार बांटना, मिल की नौकरी और यहां तक कि ट्रकों पर क्लीनर के तौर पर चले. साल 1930 में उन्होंने महज़ चौहदह साल की उम्र में पहली बार आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लिया. अमर शेख़ की मां को लोक गीत गाने का बड़ा शौक था. वे गीत गाते-गाते अपना घर का काम करती थीं. ज़ाहिर है कि इन गीतों का असर अमर शेख़ के बाल मन पर भी पड़ा और वे भी कविता, गीत लिखने-गाने लगे. पन्द्रह-सोलह साल की उम्र से ही उन्होंने कविता, गीत लिखना शुरू कर दिया था. उनकी आवाज़ भी बहुत अच्छी थी. जिसका असर यह हुआ कि वे बहुत ज़ल्दी ही अपनी बस्ती में लोक गायक के तौर पर मक़बूल हो गए. 

अमर शेख़ की ज़िंदगी में बड़ा मोड़ उस वक्त आया, जब वे भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा से जुड़े. इप्टा से जुड़ने के बाद, उनकी मुलाकात अदाकार बलराज साहनी से हुई. बलराज साहनी को अमर शेख़ की आवाज़ बहुत पंसद आई. उन्होंने अमर शेख़ से न सिर्फ अपनी आवाज़ और परिष्कृत करने को कहा, बल्कि उन्हें नये ख़याल भी दिए.

सच बात तो यह है कि अमर शेख़ ने आगे चलकर अपना जो सांस्कृतिक ग्रुप ‘अमर कला पथक’ बनाया, उसमें बलराज साहनी का बड़ा हाथ था. इस ग्रुप में उनके साथ अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गव्हाणकर भी थे. ‘अमर कला पथक’ का काम जनता में जागरूकता फैलाना था. इस ग्रुप के माध्यम से अमर शेख़ किसानों, कामगारों के दुःख-दर्द को सामने लाने का काम करते थे. शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाते. यही नहीं लोगों को आज़ादी की अहमियत समझाते. अधिकारों के लिए संघर्ष को आवाज़ देते. यही वजह है कि किसानों और कामगारों में अमर शेख़ की मकबूलियत बढ़ती चली गई. लोग उन्हें ‘लोकशाहीर अमर शेख़’ कहकर पुकारने लगे.

अमर शेख़ को मौके के मुताबिक गीत लिखने में महारथ हासिल थी. इप्टा के साथियों के साथ वे मज़दूर बस्तियों और किसानों के बीच जाते और वहां तमाशा, पोवाड़ा और लावणी के जरिए उन्हें बेदार करते. इन लोक कलाओं का मजदूर तबके पर गहरा असर पड़ता, वे उनके साथ जुड़ जाते थे.

अमर शेख़ का सम्पूर्ण साहित्य उठाकर देख लीजिए, इस साहित्य में सामाजिक विसंगतियों, असमानताओं और वर्गभेद का जहां मुखर विरोध है, तो वहीं वे अपनी कविताओं और गीतों से अवाम को साम्राज्यवादी ताकतों, जागीरदाराना निज़ाम और सरमायेदारी के खिलाफ उठाने का आह्वान भी करते हैं. वे मुल्क में लोकशाही के हिमायती थे. अंग्रेजी हुकूमत में किसानों, कामगारों की जो बदहाल आर्थिक स्थिति थी, उनकी रचनाओं में इसका चित्रण प्रचुर मात्रा में मिलता है.

देश और देशवासियों की यह हालत देखकर वे ख़ामोश तमाशाही नहीं हो जाते, बल्कि अपने गीत, कविताओं, लावणी और पोवाड़े में जबर्दस्त प्रतिरोध दर्ज करते हैं. अवाम में सामाजिक, राजनैतिक चेतना जगाने का काम करते हैं. ताकि वे अपने हक़ के लिए आगे आएं. अमर शेख़ का ज़्यादातर लेखन साम्राज्यवाद और सरमाएदारी के खिलाफ है. जनता की जो मूल समस्याएं हैं, वही उनकी रचनाओं के विषय रहे. जनता और उनकी समस्याएं अमर शेख़ की रचनाओं के केन्द्र में रहीं. शायरी उनके लिए मन बहलाने का साधन नहीं थी, वे इसे एक आंदोलन के तौर पर लेते थे. अपनी शायरी से अवाम में बेदारी लाना ही उनका एक मात्र मकसद था.

आज़ादी के बाद भी अमर शेख़ का संघर्ष खत्म नहीं हुआ. महाराष्ट्र से जब साल 1957 में ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ की मांग उठी, तो वे भी इस आंदोलन में शामिल हो गए. प्रदेश की जनता को इस आंदोलन से जोड़ने और इसकी सर्वव्यापकता के लिए ‘अमर कला पथक’ और ‘लाल बापटा’ के कलाकारों लोक शाहीर अन्ना भाऊ साठे, दत्ता गव्हाणकर और अमर शेख़ ने महत्वपूर्ण योगदान दिया. अपने गीतों और पोवाड़ों से जनता को अपने साथ जोड़ा. ढपली की थाप पर जब अमर शेख़ अपनी बुलंद आवाज में गीत, पोवाड़े गाते तो उसका जनता पर ज़बर्दस्त असर होता. जनता आंदोलित हो जाती.

अपनी शायरी के साथ अमर शेख़ की शख़्सियत भी ग़ज़ब थी. लंबे-लंबे बाल, आंखे तेजस्वी और बुलंद आवाज. धोती और कुर्ता उनकी पसंदीदा पोशाक थी. वे जब अपनी बुलंद आवाज़ में शायरी पढ़ते, तो माइक की ज़रूरत नहीं पढ़ती थी. उनकी आवाज़ में वह जादू और कशिश थी कि लोग खिंचे चले आते थे. मशहूर अदाकार ए. के. हंगल ने अपनी आत्मकथा ‘पेशावर से बम्बई तक’ में अमर शेख़ की शख़्सियत के बारे में लिखा है, ‘‘अमर शेख़, मराठी रंगमंच का चमकता हुआ एक अभिनेता था, वह एकल प्रदर्शन में विश्वास रखता था. उसके गीतों में हज़ारों-हज़ार दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने की शक्ति थी.’’ ए. के. हंगल और अमर शेख़ दोनों ने मिलकर एक एकांकी ‘सूरज’ का मराठी ज़बान में ‘सरजे राव रामोशी’ रूपान्तरण किया. जिसे बाद में अमर शेख़ ने अपने नाट्य ग्रुप ‘अमर कला पथक’ के ज़रिए खेला.

महाराष्ट्र से दिल्ली में संसद तक जो मार्च निकला, अमर शेख़ इस रैली की अगुवाई करने वाले अहम लीडरों में से एक थे. संसद के सामने जो धरना हुआ, इस धरने में अमर शेख़ ने ढपली बजाते हुए, लगातार सात घंटे तक गीत गाए. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उनके गीत गाने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि जैसे मुंह से आग निकल रही हो. बहरहाल इस मोर्चे की मांग के आगे सरकार झुकी और खुद प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू मोर्चे के लीडरों से मिलने आए और उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी मांग पर विचार किया जाएगा. इस आंदोलन का ही नतीज़ा था कि 1 मई 1960 को महाराष्ट्र का गठन हुआ. महाराष्ट्र गठन के बाद भी अमर शेख़ ख़ामोश नहीं बैठ गए, गोवा मुक्ति आंदोलन जब शुरू हुआ, तो इस आंदोलन में भी उन्होंने शिरकत की.

अमर शेख़ आज़ादी के बाद भी अपने दल ‘अमर कथा पथक’ के मार्फ़त अवाम में सामाजिक,सियासी चेतना फैलाने का काम करते रहे. यहीं नहीं जब भी समाज और देश को उनकी ज़रूरत हुई, तो वे इसके लिए आगे निकलकर आए. चाहे स्कूल बनवाने के वास्ते हो या फिर चीन, पाकिस्तान के आक्रामण के समय देश के युद्ध कोष में मदद करने की बात हो, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए उन्होंने हमेशा चंदा इकट्ठा किया.

अमर शेख़ का कार्य क्षेत्र महाराष्ट्र ही रहा. शहीद ऊधम सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज और मल्हार राव होल्कर पर उनके लंबे पोवाड़े हैं. उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘युगदीप’ और गीतों की एक किताब ‘वक्त की आवाज़’ का संपादन भी किया. मराठी नाटक ‘झगड़ा’ और कुछ फिल्मों ‘प्रपंच’, ‘ज्योतिबा फुले’ में अभिनय किया. जिसमें फिल्म ‘प्रपंच’ में अदाकारी के लिए उन्हें राष्ट्रपति अवार्ड मिला. इप्टा द्वारा बनाई गई फिल्म ‘धरती के लाल’ के गीत अमर शेख़ के ही लिखे हुए हैं. लोक शाहीर अमर शेख़ के गीत-कविताओं की तीन किताबें हैं. जिनमें पहली किताब ‘अमर गीत’ है, जिसमें उनके गीत शामिल हैं. आज़ादी से पहले आई यह किताब, अंग्रेज हुकूमत ने जब्त कर ली थी. बाद में साल 1951 में यह किताब दोबारा प्रकाशित हुई. उनकी दूसरी किताब ‘कलश’ है. इस किताब में ज्यादातर उनकी कविताएं, तो कुछ पोवाड़े हैं. साल 1963 में आई, ‘धरती माता’ उनकी तीसरी किताब है. इस किताब में लावणी, पोवाड़ा और कविताएं शामिल हैं. कविताओं और गीत के अलावा अमर शेख़ ने दो नाटक ‘पहला बलि’ और ‘झगड़ा’ भी लिखे. ‘झगड़ा’ नाटक के लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. 

‘पाथरवड’, ‘ढोंगी’, ‘मोरीवाली’, ‘जलधारा नो’, ‘बेड़ी आई’, ‘कोकिले’ और ‘प्रथ्वी से प्रेमगीत’ अमर शेख़ की चर्चित कविताएं हैं. इन कविताओं में सामाजिक-आर्थिक विषमता, जातिवाद, वर्गभेद, सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों पर तो प्रहार है ही, जनता को शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने का पैगाम भी है. उनकी कविताओं और गीत में स्त्री का सम्मान और प्रकृति का शानदार चित्रण भी मिलता है. सत्ता और सियासी पार्टियों ने भले ही अमर शेख़ को भुला दिया हो, लेकिन सूबे के सर्वहारा वर्ग में अमर शेख़ का नाम पूरे अकीदे और उनके काम को शिद्दत से याद किया जाता है. यही एक सच्चे कलाकार की ज़िंदगी का हासिल है.

अमर शेख़ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित किताब ‘संग्राम कवि अमर शेख़’ के लेखक डॉ. अकरम पठान कहते हैं,‘‘अमर शेख़ एक क्रांतिकारी शख़्सियत थे. उन्होंने अपनी शायरी से समाज में चेतना पैदा करने का काम किया और शोषण करने वालों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की.’’ अमर शेख़ ने साहित्यिक और समाजी कामों की शुरुआत, अपने जिगरी दोस्त अन्ना भाऊ साठे के साथ की. उनके साथ अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा बिताया. यह महज इत्तेफ़ाक है कि अन्ना भाऊ साठे के निधन 18 जुलाई, 1969 के एक महीने बाद ही 29 अगस्त, 1969 को महज़ 53 साल की उम्र में अमर शेख़ ने भी इस दुनिया से अपनी विदाई ले ली. उनकी मौत एक दुर्घटना में हुई. वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में कहीं जा रहे थे कि उनकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई और इस दुर्घटना ने इस अज़ीम लोक शाहीर को हमसे हमेशा के लिए छीन लिया.