तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवाँ सज्जाद ज़हीर

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 13-09-2021
सज्जाद जहीर
सज्जाद जहीर

 

आवाज विशेष । सज्जाद ज़हीर की पुण्यतिथि 

ज़ाहिद ख़ान 

हिन्दुस्तानी अदब में सज्जाद ज़हीर की शिनाख्त तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवां के तौर पर है. वे राइटर, जर्नलिस्ट, एडिटर और फ़्रीडम फ़ाइटर भी रहे. 1935 में थोड़े से तरक़्क़ीपसंद दोस्तों के साथ मिलकर लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की दागबेल डालने वाले सज्जाद ज़हीर ने अपनी सारी ज़िन्दगी प्रगतिशील मूल्यों को स्थापित करने और अवाम को वाजिब हक़ दिलाने, समाजी इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. वे मुल्क के लाखों पसमांदा इंसानों में ऐसा शऊर पैदा करना चाहते थे, जो उन्हें सामाजिक, आर्थिक शोषण और सियासी ग़ुलामी से निज़ात दिलाने में मददगार हो सके. दोस्तो में बन्ने भाई के नाम से मकबूल सज्जाद ज़हीर सांस्कृतिक आंदोलन के ज़रिए अवाम में चेतना जगाना चाहते थे. वह मानते थे कि सांस्कृतिक सजगता के ज़रिये सियासी और समाजी चेतना पैदा करके ही अवाम अपनी आज़ादी, हक़ और हुक़ूक की ख़ातिर लड़ सकती है. यह भी कि हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में लेखक, संस्कृतिकर्मी ही अहम भूमिका निभा सकते हैं.

उनकी यह क्रांतिकारी सोच यकायक नहीं बनी, बल्कि इसमें उस हंगामाख़ेज दौर का बड़ा रोल था. क़ानूनी तालीम के लिए वह साल 1927 से 1935 तक लंदन में रहे. 1930 से 1935 तक का दौर दुनियावी ऐतबार से बदलाव का था. पहली आलमी जंग के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही थी. जर्मनी, इटली में क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज्म का ख़तरा मंडरा रहा था. इन सारे संकटों के बावजूद उम्मीदें ख़त्म नहीं हुई थीं. हर ढलता अंधेरा पहले से भी उजला नया सबेरा लेकर आता है. जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर जॉर्जी दिमित्रोव के मुक़दमे, फ्रांस के मजदूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाक़ामयाब मज़दूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नये युग का आग़ाज हुआ. चुनांचे, साल 1933 में फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ्रांस में लेखक, कलाकारों का फ़ासिज्म के ख़िलाफ़ एक संयुक्त मोर्चा ‘वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ़ राइटर्स फ़ॉर दि डिफेन्स ऑफ़ कल्चर’ बना. जो आगे चलकर पॉपुलर फ्रंट (जन मोर्चा) के तौर पर तब्दील हो गया. इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार शामिल थे. लेखक, कलाकारों के इस मोर्चे को जनता के बीच बड़ी हिमायत हासिल थी.

विश्व परिदृश्य में तेजी से घट रही इन सब घटनाओं ने सज्जाद ज़हीर को काफ़ी मुतासिर किया. जिसका सबब, लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी. आगे चलकर उन्होंने तरक़्क़ीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया. स्पेन के फ़ासिस्ट विरोधी संघर्ष में सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद ज़हीर ने साल 1935 में आंद्रे गीडे व मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी हिस्सा लिया. इस सम्मेलन के अध्यक्ष मैक्सिम गोर्की थे. अपनी ज़िंदगी को एक नयी राह देने और एक ख़ास मक़सद और इरादे के साथ सज्जाद ज़हीर ने साल 1936 में लंदन छोड़ा. भारत वापस लौटते ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं. ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर उन्होंने भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों से विमर्श किया. इस दौरान वे कन्हैयालाल मुंशी, फिराक़ गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐजाज हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, अमरनाथ झा, डॉ. ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानरायन निगम, महमूदुज्जफर, सिब्ते हसन आदि से भी मिले. वह दिन भी आया, जब प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस लखनऊ में हुई. कॉफ्रेंस की सदारत मुंशी प्रेमचंद ने की. कॉन्फ़्रेंस बेहद कामयाब रही. उर्दू और हिन्दी के नामचीन साहित्यकारों ने शिरकत की, पर्चे पढ़े और आगे की राह तय करने पर अपना नज़रिया साझा किया. लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर जयप्रकाश नारायण, युसूफ मेहर अली, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी काँफ़्रेंस में हिस्सा लिया.

सज्जाद ज़हीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गए और 1949 तक उन्होंने यह दायित्व संभाला. बन्ने भाई के व्यक्तित्व और दृष्टिसम्पन्न परिकल्पना की ही वजह से तरक़्क़ीपसंद तहरीक आगे चलकर हिन्दुस्तान की आज़ादी की तहरीक बन गई. मुल्क के तमाम अदीब, कलाकार और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन के साथ आ गए. साल 1942 से 1947 तक का दौर प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन का सुनहरा दौर था. यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैला. इन सांस्कृतिक आंदोलनों का आख़िरी मक़सद मुल्क की आज़ादी था. अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लिखने और तक़रीर करने के जुर्म में सज्जाद ज़हीर को तीन मर्तबा जेल हुई. इसके बावजूद वे अलग-अलग नामों से अख़बारों के लिए लगातार लिखते रहे. प्रगतिशील आन्दोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद और हर तरह की धर्मांधता की मुख़ालफ़त की, वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही व आंतरिक सामाजिक रूढ़ियों रूपी दुश्मनों से भी टक्कर ली. एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी नामवर साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर आ गए थे. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, मजाज़, कृश्न चंदर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुग़ताई, महेन्द्रनाथ, साहिर लुधियानवी, हसरत मोहानी, उपेन्द्रनाथ अश्क, सिब्ते हसन, रशीद जहां, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, राजिंदर सिंह बेदी, सागर निजामी जैसे आला नाम तरक्कीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफ़र थे. इनकी क़लम ने मुल्क में आज़ादी के हक़ में समां बना दिया. यह वह दौर था, जब तरक़्क़ीपसंद लेखकों को नये दौर का रहनुमा समझा जाता था. यहां तक कि तरक़्क़ीपसंद तहरीक को जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, रविन्द्रनाथ टैगोर, अल्लामा इक़बाल, ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी. वे भी इन लेखकों के लेखन एवं काम से बेहद मुतासिर और मुतमईन थे.

समाजवाद में गहरा अक़ीदा रखने वाले सज्जाद ज़हीर फ़ासिस्टों को छिपा हुआ साम्राज्यवादी मानते थे.यूं तो उनकी जिंदगी का ज्यादातर वक़्त संगठनात्मक कार्यों में ही बीता. फिर भी साहित्यिक लेखन के साथ-साथ वह देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक और राजनैतिक मसलों पर लगातार लिखते रहे. साल 1935 में छपे कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में उनकी भी कहानी शामिल थी. समाजी और सियासी ऐतबार से यह संग्रह उस समय काफ़ी मशहूर हुआ. हुक़ूमत की पाबंदी के साथ-साथ इस किताब को अपने ही मुल्क के प्रतिक्रियावादियों और संकीर्णतावादियों की तंगनज़री का सामना करना पड़ा. इस संग्रह के लेखकों को ‘अंगारे’ के लेखक के नाम से पुकारा जाता था. साल 1935 में ही पेरिस में लिखा गया सज्जाद ज़हीर का छोटा उपन्यास ‘लंदन की एक रात’ जैसा कि नाम से ज़ाहिर है सिर्फ़ एक रात का तब्सिरा है. अनोखे शिल्प का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इसमें मुल्क की आज़ादी की चाह लिए परदेस में रह रहे नौजवानों के जज़्बात का शानदार चित्रण किया है. ‘पिघला नीलम’ उनकी ऩज्मों का संग्रह है, जो उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी दौर में लिखा. सज्जाद ज़हीर का अहम अदबी शाहकार ‘रौशनाई’ है. यह किताब उन्होंने पाकिस्तान की जेलों में क़ैद की हालत में लिखी थी. अदबी हल्कों में इसे प्रगतिशील लेखक संघ का प्रमाणिक इतिहास माना जाता है. यह किताब, अकेले ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ' का ही दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि आज़ादी की जद्दोजहद के पूरे हंगामाख़ेज़ दौर और उस वक्त के सियासी, समाजी हालातों का भी ख़ाक़ा पेश करती है. साथ ही इसमें उनकी आलोचना की प्रतिभा भी देखी जा सकती है. इस किताब में अदब और ललित कलाओं के नुक़तों पर तो रोशनी डाली ही गई है, प्रगतिशील साहित्य की बुनियादी समस्याओं, बहसों, संवाद, कॉन्फ्रेंस, उद्देश्यों को भी कलमबद्ध किया गया है. बकौल रौशनाई के हिन्दी अनुवादक जानकी प्रसाद शर्मा, ‘‘रौशनाई में इतिहास, संस्मरण और शेरो अदब की समीक्षा के साथ-साथ मार्क्सवादी सिद्धांत निरूपण की धाराएं एक दूसरे में पैबस्त नजर आती है.’’ सज्जाद ज़हीर ने ईरान के अज़ीम गज़लगो हाफिज़ शिराजी की शायरी पर भी एक शोध प्रबंध ‘जिक़्र-ए-हाफिज़’ लिखा है. ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक, अदब और सज्जाद ज़हीर’, ‘मजामीन-ए-सज्जाद ज़हीर’, ‘उर्दू-हिन्दी हिन्दुस्तानी’, ‘उर्दू का हाल और मुस्तक़बिल’ उनकी दीगर किताबें हैं.