पुस्तक समीक्षाः उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 की एक झलक

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 30-01-2022
किताब का कवर
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पुस्तक समीक्षा । उत्तर प्रदेश इलेक्शंस 2022 मोर दैन ए स्टेट एट स्टेक

प्रो. जसीम मोहम्मद

चुनाव आते हैं और अखबारों और पत्रिकाओं के पन्ने चुनाव प्रचार और चुनाव के संभावित परिणामों पर पर्दा उठाने वालों से भरे होते हैं. पश्चिम बंगाल के चुनावों में एक नया विकास देखा गया. कुछ किताबें थीं, किताबों के रूप में चुनावों पर पर्दा उठाने वालों का विस्तार. अनिल माहेश्वरी का " उत्तर प्रदेश इलेक्शंस 2022 मोर दैन ए स्टेट एट स्टेक" उत्तर प्रदेश में चल रहे राज्य विधानसभा चुनावों पर नवीनतम पर्दा उठाने वाला है.

200 पन्नों की यह किताब पाठक को राज्य के दौरे, चुनावों में मुद्दों, गलती की रेखाओं पर ले जाती है जो चुनाव में राजनीतिक दलों के चुनावी भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं.

भारत के 14 प्रधानमंत्रियों में से नौ उत्तर प्रदेश के निर्वाचन क्षेत्रों से चुने गए हैं, जो देश की सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है और 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के साथ सबसे जटिल राजनीतिक युद्ध का मैदान है. कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है. कोई आश्चर्य नहीं कि यूपी में चुनाव देश में सबसे गर्मागर्म बहस और बारीकी से देखे जाने वाले राजनीतिक मुकाबलों में से हैं. पुस्तक सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठाती है: 2022 में यूपी में विजेता के रूप में उभरने की क्षमता किसके पास है? यह जीत 2024 में लोकसभा के अगले आम चुनावों को कैसे प्रभावित करेगी?

2017 के विधानसभा चुनावों में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यूपी में भारी जीत दर्ज की, 403 सीटों वाली विधानसभा में 312 सीटें हासिल कीं. समाजवादी पार्टी (सपा) ने 47 सीटें जीतीं और उसकी सहयोगी कांग्रेस को केवल सात सीटें मिलीं. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 19 सीटों ही जीत पाई, जो उसकी अब तक की सबसे खराब स्थिति है. चुनावी दौड़ में बसपा और कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए दो प्रमुख खिलाड़ियों - भाजपा और सपा के बीच सीधी लड़ाई के उभरने के मद्देनजर वर्तमान चुनाव अप्रत्याशित हो गए हैं.

पुस्तक में, अनिल माहेश्वरी जाति और धार्मिक कारकों का विश्लेषण करते हैं, जो भाजपा से सत्ता वापस लेने के लिए राजनीतिक गठबंधनों पर कड़ी नज़र रखते हुए चुनावी परिणामों को रंग देते हैं. उत्तर प्रदेश के भविष्य के बारे में व्यावहारिक भविष्यवाणियों के साथ, और विस्तार से, यह पुस्तक उन लोगों के लिए रुचिकर हो सकती है जो भारतीय लोकतंत्र और इसके वाहन 'चुनाव' में रुचि रखते हैं.

यह पुस्तक पाठक को 1952 से पहले के सभी चुनावों में वापस ले जाती है. राज्य की राजनीति में ब्राह्मणों के गिरते राजनीतिक भाग्य की चर्चा "राम बनाम परशुराम" अध्याय में की गई है. 1989 के बाद से कोई भी ब्राह्मण राज्य के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठित कुर्सी पर नहीं चढ़ सका. इसके बावजूद, ब्राह्मणों की संख्या निवर्तमान सदन में घर की कुल संख्या का लगभग 13 प्रतिशत थी. फिर प्रतियोगिता लोकलुभावनवाद की राजनीति पर विस्तार से चर्चा की गई है.

पुस्तक का लगभग पांचवां हिस्सा मुस्लिम राजनीति को समर्पित है, जो 20 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के खिलाफ 80 प्रतिशत बहुमत के प्रभुत्व के उभरे परिदृश्य में, राज्य में 'धर्मनिरपेक्ष' राजनीतिक दलों द्वारा 2014 में बड़े पैमाने पर भाजपा के उदय तक इस्तेमाल किया गया था. सभी रंगों और रंगों के राजनीतिक दलों के राजनीतिक भाग्य को नुकसान पहुंचाने वाले इस बेरोकटोक वायरस का एक अध्याय में विश्लेषण किया गया है.

चार प्रमुख खिलाड़ियों पर संक्षिप्त नोट्स वाला एक अध्याय है - मौजूदा योगी आदित्यनाथ, पूर्व सीएम अखिलेश यादव और मायावती के अलावा प्रियंका वाड्रा गांधी, जो भव्य पुरानी पार्टी कांग्रेस के लगभग ग्रहण किए गए राजनीतिक महत्व को पुनर्जीवित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं. ओबीसी कारकों और गठबंधन की राजनीति पर भी अलग-अलग अध्यायों में चर्चा की गई है, इसके अलावा “हिंदुत्व के उदय और उदय” पर एक और अध्याय समर्पित किया गया है.

किताबः उत्तर प्रदेश चुनाव 2002: एक राज्य से अधिक दांव पर

लेखक: अनिल माहेश्वरी

प्रकाशक: ओम बुक्स इंटरनेशनल; जनवरी 2022;

198 पृष्ठ; कीमतः 395 रु.

(लेखक एयूएस नामसाई के प्रोफेसर हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)