पुस्तक समीक्षाः महामारी बाद की अर्थव्यवस्था और उसके भविष्य की नब्ज टटोलती है उल्टी-गिनती

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
किताब उल्टी गिनती का कवर
किताब उल्टी गिनती का कवर

 

पुस्तक समीक्षा । मंजीत ठाकुर

इससे पहले कि एक कथेतर किताब पर बात की जाए, पहली बात कि हिंदीभाषी समाज में पाठकों के एक नए वर्ग का उदय हुआ है जो खोज-खोजकर अच्छी किताबों को पढ़ता है. उन पर चर्चा करता है और उनके संदर्भ देता है. बेशक, सोशल मीडिया की सबसे विकराल समय और रील्स-युग में किताबों के लिए स्पेस मिल पा रहा है और यह बेहतर संकेत है.

अर्थशास्त्री-इतिहासकार और पूर्व-नौकरशाह अनिंद्य सेनगुप्ता और वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी की लिखी यह किताब राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित की है. किताब 'उल्टी गिनती' के संदर्भ में पाठकों के नए वर्ग के उदय की चर्चा इसलिए हुई क्योंकि मेरी जानकारी में अभी तक हिंदी के कथेतर वर्ग में खासकर अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखकर लिखी गई ऐसी कोई किताब पिछले पांच-साल में नहीं आई, जिसके बीसेक दिन के भीतर दूसरे संस्करण की जरूरत आन पड़ी हो.

'उल्टी गिनती' एक ऐसी किताब है जिसकी धार को दोतरफा सान चढ़ाई गई है. इसको लेखकद्वय में से एक अंशुमान तिवारी हैं, अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर जिनकी नश्तर टीपों से पिछली सरकारों के भी मंत्री हड़क जाते थे और मंदी और मुद्रा, चांदी और चंदा (बिलाशक राजनैतिक चंदा) की स्थितियों पर वह बेलाग स्तंभ लिखते रहे हैं. दूसरे लेखक, अनिंद्य सेनगुप्ता के पास अर्थव्यवस्था के गहन ज्ञान और इतिहास की समग्र दृष्टि तो है ही, खुद सेवानिवृत्त नौकरशाह होने नाते, अंदरखाने हो रही उठा-पटक के भी उन्हें राग-भास पता हैं.

आर्थिक विषयों के किताबों की सबसे बड़ी मुसीबत होती है उनके पारिभाषिक शब्दों का जंजाल, आंकड़े और फिर अगर मूल कथ्य के अंग्रेजी में कही गई हो तो उसके सस्ते अनुवाद से पैदा हुई जटिलता. 'उल्टी गिनती' एक किताब के तौर पर इन सबसे बचती है. इसमें आंकड़े हैं और जो अगर न हों तो आप अर्थव्यवस्था की बात करेंगे ही कैसे?

पर, सामान्य हिंदी पाठक लिए इसकी हिंदी प्रवाहमान है और साथ ही सहज ही. अंशुमान तिवारी की चमकदार हिंदी का धन्यवाद.

बहरहाल, किताब की शुरुआत में लेखकों की बात से निगाह उठाकर जैसे ही आप पहला अध्याय खोलते हैं, बगैर किसी पारिभाषिक शब्दों के बात एक मनहूस सुबह की होती है. गोविंद, खंडूजा और रोहन जैसे प्रतीक पात्रों के जरिए महामारी, महामारी से पहले की गोते लगाती अर्थव्यवस्था और फिर महामारी के बाद की दुनिया के बारे में अंदेशों का पूर्वानुमान है.

उल्टी गिनती के बारे में विस्तार से लेखक अनिंद्य सेनगुप्ता के साथ देखिए विस्तार से बातचीत


पूरी किताब तीन खंडों में बंटी हैं. लेकिन किस्सागोई के शेक्सपियराना तरीके की ही तरह यह किताब पहले खंड में कहानी स्थापित करती हुई महामारी में छोटे उद्यमों, लोगों और कारोबारियों की मुसीबत, मध्य वर्ग के समक्ष दरपेश संकट और सरकारी तदर्थवाद का परिचय कराती है. दूसरे खंड में किताब में कॉन्फ्लिक्ट गहरा होता है और अर्थव्यवस्था को दरारों के बीच दुविधाओं और तिलिस्मों के जाल की ओर संकेत किया जाता है.

लेकिन कथा का अवरोह बेशक त्रासद ही है. तीसरा खंड उल्टी गिनती के नाम से है, जिनमें हिंदुस्तान के सामने महामारी के बाद के दौर की चुनौतियों और लोगों के नागरिक से अधिक वोटर होने की विवशता का अफसाना है.

 

पर, लेखक कहीं दुविधा में फंसे हुए दिखते हैं. यह दुविधा हिंदी में किताब ‘चलाने’ और उसे अकादमिक जगत के ‘प्रमाणन’ के बीच की है. जिस गोविंद, रोहन और खंडूजा की कहानी से सामान्य पाठक तादात्म्य स्थापित करता है, उसमें ग्राफ, सारिणियां रसभंग पैदा करती हैं. पर, अर्थव्यवस्था पर लिखी किताब के लिए यह ‘अपरिहार्य शैतानियां’ हैं. शिक्षित वर्ग को यह किताब पढ़नी चाहिए, खासकर नव-पत्रकारों के लिए यह संदर्भ पुस्तक साबित होगी.

किताबः उल्टी गिनती

लेखकः अनिंद्य सेनगुप्ता, अंशुमान तिवारी

कीमतः 250 रुपए

प्रकाशकः सार्थक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली