फ़िराक़ हूं और न जोश हूं मैं, मजाज़ हूं सरफ़रोश हूं मैं

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 2 Years ago
मजाज़
मजाज़

 

आवाज विशेष । शायर मजाज़ का जन्मदिन

-ज़ाहिद ख़ान

मजाज़ की ख़ूबसूरत, पुरसोज शायरी के पहले भी सभी दीवाने थे और आज भी उनकी मौत के इतने सालों बाद, यह दीवानगी जरा सी कम नहीं हुई है. मजाज़ सरापा मुहब्बत थे. तिस पर उनकी शख़्सियत भी दिलनवाज़ थी. वे जब अपनी सुरीली आवाज और ख़ूबसूरत तरन्नुम में नज़्म पढ़ते, तो चारों और ख़ामोशी पसर जाती. सामयीन उनकी नज़्मों में डूब जाते. बाज आलोचक उन्हें उर्दू का कीट्स कहते थे, तो फ़िराक़ गोरख़पुरी की नज़र में, ‘‘अल्फ़ाज़ों के इंतख़ाब और संप्रेषण के लिहाज़ से मजाज़, फ़ैज़ के बजाय ज्यादा ताकतवर शायर थे.’’

दीगर शायरों की तरह मजाज़ की शायराना ज़िंदगी की इब्तिदा, ग़ज़लगोई से हुई. शुरुआत भी लाजवाब,‘‘तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए/इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए/इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में/सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए छलका भी गए.’’ लेकिन चंद ही ग़ज़लें कहने के बाद, मजाज़ नज़्म के मैदान में आ गए. आगे चलकर नज़्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया. अलबत्ता बीच-बीच में वे ज़रूर ग़ज़ल लिखते रहे.‘‘कुछ तुझ को ख़बर है हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए/वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भूल गए, वो दीदा-ए-गिर्यां भूल गए.’’

अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज़ नौजवानों दिलों की धड़कन बन गए. उनके शे’र, हर एक की ज़बान पर आ गए. ऐसे ही उनके ना भुलाए जाने वाले कुछ मशहूर शे’र हैं, ‘‘जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़/न हो सके, तो हमारा जवाब पैदा कर.’’, ‘‘सब का मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके/सबके तो ग़रीबां सी डाले अपना ही ग़िरेबां भूल गए.’’

‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने मजाज़ को एक नई पहचान दी. मजाज़ का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था. बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निजाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था. ‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन गई. नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज़्म में उनके ख़्यालों की अक्काशी की है. ‘आवारा’ नज़्म पर यदि ग़ौर करें, तो इस नज़्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतेजाज़ और बगावत के सुर भी हैं. यही वजह है कि वे नौजवानों की पंसदीदा नज़्म बन गई. आज भी यह नज़्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है.‘‘शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं/जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं/गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं/ए-ग़मे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं.’’

‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फ़िदा नहीं थी, मजाज़ के साथी शायर भी इस नज़्म की तारीफ़ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए. उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफ़री ने लिखा है,‘‘यह नज़्म नौजवानों का ऐलाननामा थी और आवारा का क़िरदार उर्दू शायरी में बग़ावत और आज़ादी का पैकर बनकर उभर आया है.’’

इस नज़्म के अलावा मजाज़ की ‘शहरे-निग़ार’, ‘एतराफ़’ वगैरह नज़्मों का भी कोई जवाब नहीं. ख़ास तौर पर जब वे अपनी नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को ख़िताब करते हुए कहते थे, ‘‘जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर/अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर/......तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर/जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर.’’ तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज़्बा पैदा करती थी. उनमें अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुज़रने का जज़्बा जाग उठता था. वे अपने वतन पर मर मिटने को तैयार हो जाते थे. मजाज़ की ज़िंदगानी में उनकी नज़्मों का सिर्फ एक मजमुआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साजे-नौ’ के नाम से भी शाया हुआ.

बर्रे सगीर के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने मजाज़ की किताब ‘आहंग’ की भूमिका लिखी थी. भूमिका का निचोड़ है,‘‘मजाज़ की समूची शायरी शमशीर, साज़ और जाम का शानदार संगम है. ग़ालिबन इसी वजह से उनका कलाम ज्यादा मक़बूल भी है.’’ मिसाल के तौर पर वे उनका एक शे’र पेश करते हैं, जो किताब की शुरुआत में ही है,‘‘देख शमशीर है यह, साज़ है यह, जाम है यह/तू जो शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है यह.’’ अपनी इसी भूमिका में फ़ैज़ उनकी शायरी का मूल्यांकन करते हुए आगे लिखते हैं,‘‘मजाज़ इंक़लाब का ढिंढोरची नहीं, इंक़लाब का मुतरिब (गायक) है. उसके नग़में में बरसात के दिन की सी सुकूनबख़्श ख़ुनकी है और बहार की रात की सी गर्मजोश तास्सुर आफ़रीनी !’’ मजाज़ के कलाम के बारे में कमोबेश यही बात अली सरदार जाफ़री ने भी कही है,‘‘मजाज़ की शायरी शमशीर, जाम और साज का इम्तिजाज़ (मिश्रण) है.’’

वहीं सज्जाद ज़हीर की नजर में ‘‘मजाज़ इंक़लाब, तब्दीली और उम्मीद का शायर है.’’ बल्कि उनका तो यहां तक मानना था, ‘‘मजाज़ ने उर्दू की इंक़लाबी शायरी का रिश्ता फारसी और उर्दू की बेहतरीन शायरी से जोड़ा है.’’ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मजाज़ की ‘ख़्वाबे सहर’ और ‘नौजवान ख़ातून से ख़िताब’ नज़्मों को सबसे मुकम्मल और सबसे कामयाब तरक़्क़ीपसंद नज़्मों में से एक मानते थे. फ़ैज़ की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफ़ाकी जतला सकता है. ‘नौजवान ख़ातून से ख़िताब’ नज़्म, है भी वाक़ई ऐसी,‘‘ हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था/ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था/......दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल/तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था/.......तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन/तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.’’ इस नज़्म में साफ़ दिखलाई देता है कि मजाज़ औरतों के हुक़ूक के हामी थे और मर्द-औरत की बराबरी के पैरोकार. मर्द के मुकाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे. उनकी निग़ाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था.

मजाज़ शाइरे-आतिश नफ़स थे, जिन्हें कुछ लोगों ने जानबूझकर रूमानी शायर तक ही महदूद कर दिया. यह बात सच है कि मजाज़ की शायरी में रूमानियत है, लेकिन जब उसमें इंक़लाबियत और बग़ावत का मेल हुआ, तो वह एक अलग ही तर्ज की शायरी हुई.‘‘बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना/तिरी जुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है/ब-ई-सैले-गमो-सैले-हवादिस/मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है.’’ मजाज़ ने दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह ग़ज़लों की बजाय नज़्में ज़्यादा लिखीं. उन्होंने शायरी में मोहब्बत के गीत गाये, तो मज़दूर-किसानों के जज़्बात को भी अपनी आवाज़ दी.

मजाज़ ने अपनी नज़्मों में दकियानूसियत, सियासी गुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी, और सामंतवादी निजाम, सियासी गुलामी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. उनकी नज़्मों में हमें आज़ादख़्याली, समानता और इंसानी हक़ की गूंज सुनाई देती है. ‘हमारा झंडा’, ‘इंक़लाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मज़दूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफ़िर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंगे-नौ’ वगैरह उनकी नज़्में इस बात की तस्दीक करती हैं.

यह नज़्में कहीं-कहीं तो आंदोलनधर्मी गीत बन जाती हैं. मिसाल के तौर पर उनकी एक और मशहूर नज़्म ‘इंक़लाब’ देखिए,‘‘छोड़ दे मुतरिब बस अब लिल्लाह पीछा छोड़ दे/काम का ये वक़्त है कुछ काम करने दे मुझे/.....फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब/उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब/.....ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम/रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम.’’ मजाज़ अंग्रेजी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद दोनों को ही अपना दुश्मन समझते थे. उनकी नज़र में दोनों ने ही इंसानियत को एक समान नुकसान पहुंचाया है.

मजाज़ ने अपनी नज़्मों में न सिर्फ़ अंग्रेजी हुकूमत के हर तरह के जुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की‘‘बोल! अरी ओ धरती बोल !/राज सिंघासन डाँवाडोल/......क्या अफ़रंगी क्या तातारी/आँख बची और बर्छी मारी/कब तक जनता की बेचैनी/कब तक जनता की बे-ज़ारी/कब तक सरमाया के धंदे/कब तक ये सरमाया-दारी/बोल ! अरी ओ धरती बोल !’’ बल्कि जब दुनिया पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ़ासिज्म का ख़तरा मंडराया, तो उसके ख़िलाफ़ भी वे ख़ामोश नहीं रहे. ऐसे शिकस्ता माहौल में उन्होंने न सिर्फ एक तफ़्सीली बयान दिया बल्कि एक नज़्म ‘आहंग-ए-नौ’ भी लिखी.

5 दिसम्बर, 1955 को महज़ 44 साल की उम्र में मजाज़ इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए. मजाज़ को बहुत कम उम्र मिली. यदि उन्हें और उम्र मिलती, तो वे क्या हो सकते थे ?, इसके बारे में शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में लिखा है,‘‘बेहद अफ़सोस है कि मैं यह लिखने को ज़िंदा हूं कि मजाज़ मर गया. यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था और क्या हो सकता था. मरते वक्त तक उसका महज़ एक चौथाई दिमाग ही खुलने पाया था और उसका सारा कलाम उस एक चौथाई खुले दिमाग की ख़ुलावट का करिश्मा है. अगर वह बुढ़ापे की उम्र तक आता, तो अपने दौर का सबसे बड़ा शायर होता.’’ मजाज़ लखनवी अपनी सरजमीं लखनऊ की ही एक कब्रिस्तान में दफ़न हैं और कब्र पर उनकी ही मशहूर नज़्म ‘लखनऊ’ का एक शे’र लिखा है,‘‘अब इसके बाद सुब्ह है और सुब्हे-नौ मजाज़/हम पर है ख़त्म शामे-ग़रीबाने-लखनऊ.’’