कवर स्टोरीः साहित्य का शून्य

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] • 2 Years ago
साहित्य का शून्य
साहित्य का शून्य

 

कवर स्टोरी । स्मृतिशेष

अरविंद कुमार और मंजीत ठाकुर

इस कोरोना महामारी न जाने कितने जख्म दिए हैं. संस्कृति और समाज को तो खासा चोट पहुंचाया है इसने. मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी को सामाजिक दूरी बरतने को मजबूर कर दिया. मानव ने मिलजुलकर साहित्य, संगीत और तहजीब रची, न सिर्फ उसको कम कर दिया, बल्कि बड़े नामों को, दुआ जैसी शख्सियतों को हमसे दूर भी कर दिया. उन्हीं में से एक थे, डॉ नरेंद्र कोहली.

डॉ कोहली कितने प्रसिद्ध थे यह बताने की जरूरत नहीं है. उनकी किताबें ऐसी होती थी कि दूरदराज के गांवों के लोग डाक के जरिए और वीपीपी के जरिए उनकी किताबें मंगाकर पढ़ते थे.

डॉ नरेन्द्र कोहली का जन्म 6 जनवरी 1940 को हुआ था और वह 17 अप्रैल, 2021 को दिवंगत हो गए. कोहली ने साहित्य के सभी प्रमुख विधाओं, मसलन उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी और गौण विधाओं मिसाल के तौर पर संस्मरण, निबंध, पत्र और आलोचनात्मक साहित्य में अपनी लेखनी चलाई है.

हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारंभ करने का श्रेय नरेंद्र कोहली को ही जाता है. पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियां सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं और उनके समाधान को समाज के सामने पेश करना कोहली की खासियत रही है. कोहली सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार रहे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया. 2017 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.

दूसरी तरफ, दुष्यंत कुमार ने हिंदी गजलों की परंपरा को मुकाम पर पहुंचाया था, उसे जिन शायरों ने आगे बढ़ाया उसमें अदम गोंडवी के बाद के लोगों में कुंवर बेचैन तथा जहीर कुरैशी भी शामिल थे.

उत्तर प्रदेश में जन्मे और जिंदगी भर गाजियाबाद में एक कॉलेज में हिंदी  पढ़ाने वाले कुंवर बेचैन भी राहत इंदौरी की तरह लोकप्रिय थे. उन्होंने गजल को जनता में लोकप्रिय बनाया. आज के स्टार कवि कुमार विश्वास उनके ही शिष्य हैं.

मध्य प्रदेश के गुना में 5 अगस्त, 1950 को जन्मे जहीर कुरैशी ग्वालियर में रहते थे और वही से उन्होंने अपनी गजलों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई थी. 1975 से उन्होंने लिखना शुरू किया था और वह ‘चांदनी का दुख’, ‘भीड़ में सबसे अलग’,‘लेखनी के स्वप्न’,‘एक टुकड़ा धूप’जैसे गजल संग्रह के लिए जाने जाते थे. उनकी गजलों में आम आदमी की विडंबना, सत्ता और राजनीतिक मूल्यों के पतन और समाज में हो रहे बदलावों पर गहरा कटाक्ष भी हुआ करता था.

माधुरी पत्रिका के पूर्व संपादक और हिंदी को प्रख्यात कोषकार अरविंद कुमार का भी कोरोना के कारण निधन हो गया. वह 92 वर्ष के थे. उनके परिवार में पत्नी के अलावा एक पुत्र और पुत्री है.

कुमार कुछ दिन पहले अमेरिका से आए थे और अपनी बेटी के पास रह रहे थे. उनका पुत्र अमर कुमार इन दिनों अपनी आत्मकथा लिख रहे थे और एक शब्दकोश पर काम कर रहे थे. हिंदी का पहला थिसॉरस समांतर कोश तैयार करने का श्रेय उन्हें जाता है जो 1996 में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने छपा था.

17 जनवरी, 1930 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में जन्मे अरविंद कुमार ने अपना कैरियर दिल्ली प्रेस से शुरू किया था और 1963 में वह फिल्मों की चर्चित पत्रिका माधुरी के संपादक बने थे. वह 1978 तक उसके संपादक रहे फिर वे इस्तीफा देकर दिल्ली आ गए और सर्वोत्तम डाइजेस्ट के संपादक बन गए.

इनके साथ ही, हिंदी के प्रख्यात लेखक एवं ‘कथन’पत्रिका के संपादक रमेश उपाध्याय भी कोरोना महामारी में दिवंगत हो गए. वह 79 वर्ष के थे. उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो पुत्रियां और एक पुत्र हैं. उनकी पत्नी भी कोरोना से पीड़ित हैं.

उत्तर प्रदेश के एटा जिले में 1मार्च, 1942 को जन्मे उपाध्याय सातवें दशक के महत्वपूर्ण कथाकार थे और उन्होंने साहित्य के जनवादी आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई थी. उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, अनुवाद तथा संपादन के क्षेत्र में 70 से अधिक किताबों का लेखन और संपादन किया था. वह प्रगतिशील मूल्यों के प्रतिबद्ध  लेखक थे और जनवादी लेखक संघ की स्थापना से जुड़े हुए थे. उपाध्याय की शिक्षा-दीक्षा राजस्थान और दिल्ली में हुई थी तथा वह दिल्ली विश्वविद्यालय के वोकेशनल स्टडीज कॉलेज में हिंदी के  प्राध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे थे और ‘कथन’पत्रिका का संपादन भी कर रहे थे.

उन्होंने समाज के विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर आज के सवाल श्रृंखला में 32 पुस्तकों का संपादन भी किया था. उनका पहला कहानी संग्रह 1968 में ‘जमी हुई झील’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था जिससे उनकी साहित्य जगत में पहचान बनी थी. उनके 15 कहानी संग्रह छपे थे. सत्तर के दशक में उन्होंने एक दशक तक पत्रकारिता भी की थी और दिल्ली प्रेस से भी जुड़े हुए थे.

उन्होंने कई चर्चित नाटक और नुक्कड़ नाटक भी लिखे थे, जिसमें ‘पेपरवेट’,‘गिरगिट’,‘राजा की रसोई’,‘हरिजन’,‘सफाई चालू है’बहुत लोकप्रिय हुआ था.

उन्होंने भीष्म साहनी पर भी एक किताब लिखी थी.अंग्रेजी और गुजराती से भी कई किताबों के अनुवाद किए थे, जिनमें सुभाषचंद्र बोस की जीवनी भी शामिल है.

जनवादी लेखक संघ प्रगतिशील लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच से जुड़े लेखकों ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है.

जिस तरह रमेश उपाध्याय को अस्पताल में आइसीयू बेड मिलने में दिक्कत हुई उसी तरह चर्चित चित्रकार और कथाकार तथा रेडियो प्रस्तोता प्रभु जोशी को अस्पताल में बेड मिलने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. रमेश जी को तो कुमार विश्वास की मदद से देर से बेड मिली पर प्रभु जोशी को तो एंबुलेंस में ही अपनी जान गंवानी पड़ी. वह इंदौर शहर की पहचान थे. चित्रकार बड़े थे या कहानीकार, कहना मुश्किल.

सारिका के नवलेखन अंक से साहित्य की दुनिया में पहचान बनाने वाले प्रभु जोशी लंबी कहानियों के मास्टर थे और उनके वॉटर कलर पर  हिंदी की दुनिया मोहित थी. उनके चित्र भारत भवन ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया और न्यूयॉर्क जैसे शहरों में संग्रहालयों में शोभा बढ़ाते रहे. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु जोशी हिंग्लिश के कटु आलोचक थे. वह बाजार और भूमंडलीकरण के भाषाओं पर पड़ते दुष्प्रभाव को लेकर हमेशा  चिंतित रहते थे.

उन्होंने हिंदी को भ्रष्ट करनेवाली ताकतों के खिलाफ खूब लिखा. उनका अंतिम वीडियो भाषा के सवाल पर था जो काफी वायरल हुआ.