जब वक़्त सामान्य नहीं हो, और न ही हालात आपको ख़्वाब देखने की इजाज़त दे रहें हो, ऐसे में एक ख़्वाबों को पंख देना अपनी आँखों के लिए ही सबसे बड़ी बात है. ऊपर से तब, जब आबो-हवा में गोले-बारूदों की बू फैली हो और अलगाववादी ताक़तों का जोर, जिनके असर में आकर नौजवान सही-गलत में फर्क करना भूल गए हों. जब नौजवान सही रास्ता चुनने की बजाए ग़लत रास्ते पर निकल रहे हों, तब खुद के लिए एक शेफ बनने की मंजिल तय करना आसान नहीं था. और तब भी अगर मन में कोई युवा यह ठान ले कि मुझे कश्मीर घाटी की मिठास को देश के कोने-कोने तक पहुंचाना है, यह अपने-आप में बड़ी बात हो जाती है.
मगर जब हौसले बुलंद हो तो ख़्वाबों को अपनी ज़मीन मिल ही जाती है. श्रीनगर के सैफ़ुल्लाह सूफ़ी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
सैफ़ुल्लाह सूफ़ी अभी 30 साल के हैं और शालीमार चॉकलेट नाम के ब्रांड के मालिक भी. उनसे बात करते हुए आपको सबसे पहली प्रेरणा तो यही मिलेगी कि अपने सपनों को कभी भी बीच रास्ते नहीं छोड़ना चाहिए. हार मानकर कभी भी बैठना नहीं चाहिए, चाहे हालात कितने ही मुश्किल क्यों न हों.
सूफ़ी कहते हैं, “हम एक वैसे समाज से ताल्लुक़ रखते हैं जहां पढ़ाई में अव्वल आना ही सबसे ज़रूरी बात है. अगर आप इम्तिहान में फ़र्स्ट क्लास नहीं लाते तो परिवार के अलावा नाते-रिश्तेदार भी ये मानकर चलते हैं कि आप ज़िंदगी में कभी भी क़ामयाब नहीं होंगे. आप अगर ए प्लस नहीं ला रहें अपनी क्लास में, तो ज़िंदगी आपकी नेगेटिव में ही कटेगी.”
अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए सैफ़ुल्लाह कहते हैं, “मैंने अपना ग्रेजुएशन तीन के बदले छह साल में पूरा किया क्योंकि मेरा दिल पढ़ाई में नहीं बल्कि चॉकलेट बनाने के नए-नए रेसिपी ढूंढने में उलझा हुआ था. मुझे कॉमर्स की बातें कम समझ आती. बजाए उसके, मुझे चॉकलेट की रेसिपी की कन्सिस्टेंसी का ज़्यादा पता होता था. लेकिन आसपास के लोग मेरे फेल होने का मज़ाक़ उड़ाते. घरवाले कई बार कहते कि बेकरी का ख़ानदानी कारोबार है उसी में लग जाओ मगर दिल कहता था सूफ़ी तुमने अपने लिए जो ख़्वाब बुना है उसको मत छोड़ो.”
ऐसी ही किसी एक उदास-सी शाम को सैफुल्लाह ने कुछ तय कर लिया. वह बताते हैं, “मैंने तय किया अब मैं दिल्ली जाऊँगा और चॉकलेट मेकिंग का कोर्स करुंगा. लेकिन चॉकलेट मेकिंग का कोर्स करना मुझे मंज़िल तक नहीं ला पाया. मैंने चॉकलेट बनाना सीख तो लिया था, लेकिन शुरू कहां से करूं यह समझ नहीं आ रहा था. फिर एक दिन मैंने तय किया कि अपनी घर के रसोई में चॉकलेट बनाना शुरू करूँगा. मैंने शौक़िया तौर पर कुछ चॉकलेट बनाए और अपने आसपास के लोगों को टेस्ट करवाया. सारे चॉकलेट हाथों-हाथों ख़त्म हो गए. सबने खूब तारीफ़ की तो वहां से कुछ हौसला मिला. फिर मैंने अपने कुछ दोस्तों से पैसे उधार लिए और शालीमार चॉकलेट के नाम से चॉकलेट बेकिंग की एक छोटी-सी शुरुआत की. मैंने कभी भी किसी दूसरी कम्पनी के फ़्लेवर को कॉपी करने के बजाय नए फ़्लेवर पर काम करना ज़रूरी समझा.”
काम चल निकला तो सैफुल्लाह ने पर्सनलॉइज़ चॉकलेट बनाने शुरू कर दिए. लोग अपनी शादी-सालगिरह के मौक़े पर ऑर्डर देने लगे. उन्हीं दिनों घाटी में लोकल फ़ुट्बॉल मैच चल रहे थे तो सैफुल्लाह ने तय किया कि जीतने वाली टीम को चॉकलेट की फ़ुट्बॉल गिफ़्ट करेंगे.
जब उन्होंने ऐसा किया तो उसके बाद रास्ते खुलते चले गए. आज सैफुल्लाह के पास ऑनलाइन ऑर्डर्स भी आ रहे हैं. और उनका ब्रांड शालीमार चॉकलेट भी खासा पॉपुलर हो गया है. सैफुल्लाह मुस्कुराते हुए कहते हैं, “कुछ ही दिनों मुझे मेरा हॉलमार्क मिलने वाला है.”
सैफ़ुल्लाह सूफ़ी की कहानी उन लाखों युवाओं को अपने लिए और अपने बल-बूते पर सपने चुनने का हौसला देने वाला है. सूफ़ी चाहते तो घरवालों की मदद ले सकते थे लेकिन उनको समाज के उन तमाम युवाओं को ये संदेश देना था कि अगर अपने पास पैसे न हो और आर्थिक रूप से आप मज़बूत नहीं भी हो फिर भी अपने हौसले के दम पर आप क़ामयाब हो सकते हैं. आज सूफ़ी सिर्फ़ अपने लिए नहीं बल्कि कई और लोगों को भी नौकरी देने में क़ामयाब हो रहें हैं. घाटी की रंगत हौले-हौले ही सही लेकिन बदल तो रही ही है.