राकेश चौरासिया / नई दिल्ली
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला ने अपनी फेसबुक वाल पर मशहूर साहित्यकार असगर वजाहत के 75 बहारें देखने पर बधाई प्रेषित की है.
शंभुनाथ शुक्ला अमर उजाला के कई संस्करणों में स्थानीय संपादक रहे हैं.
असगर वजाहत कमाल की हिंदी शख्सियत हैं. उनकी उम्र हजारी हो.
शुक्ला ने असगर वजाहत के पाकिस्तानी संस्मरण में कटास राज मंदिर की यात्रा और उनके लिखे नाटक ‘जिन लाहौर नई वेख्या ओ जनम्याई नई’ का जिक्र किया है.
मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर को एक बार श्रीराम सेंटर में एक नाटक करना था. उन्होंने कई पांडुलिपियों में से ‘जिन लाहौर नई वेख्या ओ जनम्याई नई’ को बीन लिया.
इस खेल को बाद में भारत भर में बहुत बार खेला गया. किंतु इसे एक बार पाकिस्तान में खेला गया, तो उसे प्रतिबंधित कर दिया गया था.
‘जिन लाहौर नई वेख्या ओ जनम्याई नई’ असगर वजाहत साहब का वो अद्भुत नाटक है, जिसमें यह नगर का विवरण नहीं, बल्कि भारतीय उप महाद्वापीय संस्कृति का सद्भाव-दर्शन है.
इस नाटक का अंतरद्वंद्व यह है कि बंटवारे के बाद लखनऊ से दिल्ली गए एक मुसिलम परिवार को लाहौर में एक ऐसी हवेली आवंटित हुई, जिसमें निपट अकेली हिंदू बुढ़िया रहती थी.
शुरुआत में हिंदू बुढ़िया चाहती थी कि यह मुस्लिम परिवार यहां से चला जाए और मुस्लिम परिवार भी यही चाहता था कि यह हिंदू बुढ़िया कहीं चली जाए.
मगर दोनों की उम्मीदें पूरी न हो सकीं. वे दोनों महज इस वजह से अपनी-अपनी ख्वाहिशों को परवान चढ़ते देखना चाहते थे कि दोनों के मजहब अलग-अलग थे.
जबकि विधाता को कुछ और ही मंजूर था. विधाता ने नया खेल रचा.
मजबूरी में दोनों साथ-साथ रहने लगे.
कालक्रम में उनकी ख्वाहिशों और भाषा की बाधा पर नेह का बंधन भारी पड़ गया. इतना कि वह मुस्लिम परिवार उस बुढ़िया को अपनी मां ही समझने लगा.
कालांतर में बुढ़िया जब मरी, तो क्या करें, इस सवाल पर जब वह मुस्लिम परिवार लाहौर के मौलवी के पास मशविरे के लिए गया, तो मौलवी के कहे मुताबिक मुस्लिम परिवार ने बुढ़िया की शव यात्रा निकाली. राम-नाम सत्य बोला. और फिर उसका पाकीजा रावी दरया के तट पर अग्नि संस्कार किया.
बाद में कट्टरपंथियों ने उस मौलवी की हत्या कर दी.
मौलवी साहब ने इंसानियत को जिंदा रखके खुद मौत को गले लगा लिया.
इस तरह यह नाटक कालजयी कृति हो गया.
वर्तमान संदर्भ में, आरएसएस के सर संघ चालक मोहन भागवत ने कल ही कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता जैसी कोई चीज नहीं है.
मोहन भागवत गाजियाबाद में रविवार को आयोजित डॉ. ख्वाजा इफ्तिखार अहमद की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर लोगों को संबोधित कर रहे थे.
सच भी है, क्योंकि हिंदू-मुस्लिम अलग-अलग इकाई नहीं हैं. जिनके बाप-दादे एक, जिनमें रक्त संबंध एक, जिनका कुर्सीनामा/सिजरा/वंशवृक्ष एक.
तो हिंदू-मुस्लिम अलग-अलग इकाई कैसे हो सकते हैं?
न्यूट्रॉन, प्रोटोन और इलेक्ट्रॉन को तो विखंडित किया जा चुका है, लेकिन इकाई को भंग करने का उपकरण अभी तक नहीं बना है.
और फिर वह इकाई ही क्या, जो भंग हो जाए.
बलोचिस्तान से बंगलादेश तक के हिंदू और मुसलमान वो इकाई हैं, जिनकी केवल, मात्र, सिर्फ और फकत पूजा-पद्धति अलग है.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)