आवाज-द वॉयस / नई दिल्ली
गालिब इंस्टीट्यूट नई दिल्ली के तत्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय गालिब संगोष्ठी के अवसर पर आलमी मुशायरे का भी आयोजन किया गया, जिसका गर्मजोशी से स्वागत किया गया.
महफिल का स्वागत करते हुए डॉ. इदरीस अहमद ने कहा ‘‘मैं गालिब संस्थान की परंपरा को ईमानदारी और समर्पण के साथ आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूं. मैं आप सभी से गालिब संस्थान का दौरा करने का अनुरोध करता हूं. पुस्तकालय का निरीक्षण करें, मैं आपकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करूंगा.’’
निदेशक इदरीस अहमद ने आगे कहा कि यहां के प्रकाशनों में ग्यारह पुस्तकें जोड़ी गई हैं और गालिब संस्थान का कलैण्डर भी प्रकाशित किया गया है, जिसमें कुछ लेखकों का कोरोना महामारी के दौरान निधन हो जाने के चित्र प्रकाशित किए गए हैं.
शमां रोशन करते शायरी
नज्म में कोरोना नियम-कायदों पर भी विशेष ध्यान दिया गया. अध्यक्षता डॉ. नरेश ने की. जबकि मोइन शादाब ने निर्देशक की भूमिका निभाई. पाठकों के स्वाद और वरीयताओं को संतुष्ट करने के लिए कुछ बानगी पेश हैः
जूते सीधे कर दिए थे एक दिन उस्ताद के
इसका बदला यह मिला तकदीर सीधी हो गई. (नवाज देवबंदी)
ख्याल-ओ-फिक्र हूं, शहरे-सुखन हूं
मैं अपने आप में एक अंजुमन हूं. (चंद्रभान ख्याल)
पहले एक बार मिल लिया जाए
फिर कोई फैसला किया जाए. (सलीम अमरोही)
एक मैं जो सिर्फ जिस्म से आगे न बढ़ सका
एक वो जो मेरी रूह के अंदर उतर गया. (सोहैब अहमद फारूकी)
तेरी आवाज ऊंची हो रही थी
मेरा खामोश होना लाजिमी था. (अश्कारा खानम कशफ)
रफ्ता-रफ्ता बज्म में वो यूं परी पैकर खुला
लब खुले, आंखे खुलीं, आबरू खुले फिर सिर खुला. (मतिन अमरोही)
कोई यजीद हो, रावन हो या कि हो फिरौन
सभी के जुल्म की मियाद खत्म होनी है. (फारूक जायसी)
उफ रे जालिम तेरे गुरूर की हद
शुक्र ये है कि तू खुदा न बना. (अफजल मैंगलोर)
हमें नसीब था जैसा वसीम बचपन में
ना वैसा घर है ना वो खानदान बाकी है. (डॉ वसीम राशिद)
सियासत से अदालत तक यहां सारे ही मेरे हैं
मुसलसल चीखते रहिए किसे क्या फर्क पड़ता है. (इरफान आरिफ)
जवान शख्स अगर है तो कोई बात नहीं
मगर बुढ़ापे में औरत बहुत जरूरी है. (डॉ. एजाज पॉपुलर)
बस मिलाकर हाथ अपनी उंगलियां गिन लीजिए
आपको भी शहर में रहने का फन आ जाएगा. (डॉ. नरेश)
हजार कांटों में खिलते गुलाब की सूरत
हम ऐसे लोग ही कुछ खाल खाल जिंदा हैं. (जफर मुरादाबादी)
मैं चुप हुआ तो बहुत बुलाने लगी दुनिया
जो थे भी नहीं, राज खोलने लगी दुनिया. (रशीद जमाल फारूकी)
हमारे आँसुओं की किस कदर तौहीन की
उसके सामने रोकर बहुत पछता रहे हैं हम. (मोइन शादाब)