लखनऊ : सड़कों पर परचे बांट कर रूपरेखा वर्मा याद दिला रही हैं शहादत

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 15-07-2022
प्रो. रूपरेखा वर्मा
प्रो. रूपरेखा वर्मा

 

नाजो खान/ लखनऊ

सड़कों पर पर्चा बांटने वाले या किसी कंपनी का प्रचार करते हुए पर्चे बांटते आपने अक्सर देखे होंगे. लेकिन कुछ दिन पहले नवाबों की नगरी लखनऊ में एक दुबली-पतली कद कांठी की कांधे पर पर्स लटकाए करीब 75 वर्षीय बुजुर्ग महिला पर्चे बांटते देखी गई तो सुर्खियों में आ गईं.

आत्मविश्वास से भरी यह महिला इसलिए चर्चा में नहीं आई कि वह पर्चे बांट रही थी वह इसलिए चर्चा में आई की क्योंकि वह लखनऊ विश्वविद्याल की पूर्व कुलपति रुपरेखा वर्मा हैं. उन्हें इस तरह सड़कों पर पर्चे बांटते देख हर किसी की मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. कई लोगों ने उनका वीडियों बनाया वीडियो ट्वीटर पर वायरल भी हो गया. 

इस सवाल का जवाब सबकी तरह मुझे भी चाहिए था मैंने उनसे मिलने की कोशिश की कहीं एक मित्र के माध्यम से उनका नंबर मिला. फोन पर बात हुई तो उधर से बड़ी ही मीठी आवाज आई की बेटा आज तो समय नहीं है समय मिलने पर मैं खुद ही फोन करूंगी. मैं उनके फोन का इंतजार करती रही, लेकिन उनका फोन नहीं आया और मुलाकात नहीं हो पाई मेरी जिज्ञासा लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उनसे मिलने और यह जानने के लिए मैं आतुर थी कि आखिर इस तरह पर्चे बांटने के पीछे क्या वजह हो सकती है. मैंने खुद ही उन्हें फोन लगाया तो उन्होंने कहा फोन पर ही बात कर लो जो भी पूछना है. मिलने के लिये मैं फुरसत में तुम्हें बुला लूंगी.

लखनऊ विश्वविद्यालय में 40 वर्षों तक अध्यापन से जुड़े रहने वाली प्रोफेसर वर्मा को इस तरह से पर्चे बांटने की जरूरत क्यों पड़ी इस सवाल पर उन्होंने जवाब दिया पर्चे बांटने का मेरा मक़सद था 1857 में देश की आज़ादी के लिये हुए संघर्षों को सलाम करना और जनता को ये याद दिलाना कि जिस तरह हर धर्म और जाति के लोगों नें एकता के साथ आज़ादी के लिए संघर्ष किया उसी तरह आज भी सभी नफ़रत छोड़ कर देश की अहम समस्याओं को सुलझाने के लिये एकजुट हो कर काम करने की ज़रूरत है.

ये कार्यक्रम लखनऊ के बहुत से नागरिकों ने मिल कर किया था. उन सभी की भागीदारी थी.

उन्होंने बताया कि सांप्रदायिकता से देश सिर्फ़ बर्बाद होता है, कभी किसी देश को इससे फ़ायदा नहीं हुआ. इतिहास गवाह है इस बात का. अभी ताज़ा उदाहरण श्रीलंका और म्यांमार हैं. बर्बादी की कगार पर खड़े हैं. जब विभाजित जनता एक दूसरे से ही लड़ने में लगी रहती है तब उसके जीवन के असली मुद्दे (रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि) पीछे हो जाते हैं, और सत्तावान के लिये  इसका फ़ायदा उठा कर जनता पर ज़ुल्म करना और उनके हक़ छीनना आसान हो जाता है.

ब्रिटिश हुकूमत ने यही किया. डिवाइड ऐंड रूल पुराना मुहावरा है. जनता को धर्म, जाति, जेंडर वग़ैरह पर बाँटने और उनमें नफ़रत के बीज बोने वाले सबसे बड़े देशद्रोही हैं. विभाजित समाज देश की सबसे बड़ी कमज़ोरी है. देश का अपमान है.

प्रोफेसर वर्मा का इतिहास

मैनपुरी में जन्म लेने वाली प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा के पिता सरकारी डॉक्टर थे. पिता के अक्सर तबादले होते रहते थे. लेकिन उनके पिता ने परिवार के लिए मैनपुरी में ही स्थाई मकान बनवा दिया था. लेकिन उच्च शिक्षा के लिए रूप रेखा को लखनऊ आना पड़ा. वह लखनऊ विश्व विद्यालय में दर्शन शास्त्र की छात्रा रहीं और फिर यहीं दर्शन शास्त्र की प्रवक्ता और प्रोफेसर बनी और करीब एक वर्ष तक लखनऊ विश्विद्यालय में कुलपति का भी दायित्व संभाला.

भाई-बहनों में सबसे छोटी रहीं प्रोफेसर वर्मा ने आज तक विवाह नहीं किया. यह सवाल करने पर वह कहती हैं. किसी को मैं पसंद नहीं आई और कोई मुझे पसंद नहीं आया. प्रोफेसर वर्मा बताती हैं कि मैंने पर्चा नहीं लिखा है यह पर्चे जो मैं बांट रही हूं यह संस्था सांझी दुनिया के दीपक कुमार ने लिखा है.

उन्होंने कहा लोग शहीदों को न सिर्फ़ भूलते जा रहे हैं, उनकी मूल भावना को भी तार तार कर रहे हैं. आज़ादी के हर संघर्ष में विभिन्न धर्मों और जातियों ने मिल कर एक साथ ख़ून बहाया और त्याग किये. जागरूकता के लिये बैठकें की.

लखनऊ के मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने लड़ी आजादी की लड़ाई

उन्होंने कहा, 'अंग्रेजी राज से देश की आजादी का 75वां वर्ष है और हर जगह उस आजादी का जश्न मनाया जा रहा है तो हम लोग भी लखनऊ में जिस तरह आजादी की लड़ाई हुई उस पर ज्यादा ध्यान देते हुए उसे याद करना चाह रहे थे.

आज हमें देश की खातिर क्या करना है, इसकी बात करना चाह रहे थे. 1857 में लखनऊ में अंग्रेजों से खुला संघर्ष हुआ और उनमें से एक जगह यहां चिनहट थी, जहां पर अंग्रेजों से एक मौलवी अहमदुल्लाह शाह और घमंडी सिंह ने आम जनता को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और उस लड़ाई में अंग्रेज हार गये थे. पहली बार चिनहट में अंग्रेजों को हार मिली थी तो हम लोग उसका जश्नल मना रहे थे.'

उन्होंने कहा, 'वह लड़ाई आज भी हमें कुछ संदेश देने को मजबूर करती है. आप नाम देखिए अहमदुल्लाह शाह और घमंडी सिंह, यह एक उदाहरण है और विस्तार से देखिए कि हिंदू मुसलमान सभी मिलजुलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे.'

पर्चा बांटने के बाद प्रोफेसर वर्मा सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगीं तो कुछ लोगों ने ट्रोल भी किया. ट्विटर पर उन्हें कम्युनिस्ट से लेकर सपाई (समाजवादी पार्टी से जुड़े) होने का आरोप लगा. इन सवालों पर उन्होंने कहा कि 'कुछ लोग मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं. मैंने तो मार्क्स को ठीक से पढ़ा ही नहीं लेकिन लोग अपने आप लेबल चिपकाते हैं. हमें खुद ही पता नहीं कि असली कम्युनिस्ट कौन होता है.'

किसी दल से होने से इनकार.

प्रोफेसर वर्मा ने किसी भी राजनैतिक दल के साथ होने से इनकार करते हुए कहा, 'बंगाल में सिंगूर का मामला हुआ तो मैं उनके खिलाफ सबसे आगे थी. केरल में संविधान के खिलाफ बोलने वाले कम्युनिस्टों के खिलाफ मैंने आवाज उठाई. उदयपुर का कांड हुआ तो उसके खिलाफ सबसे पहले मैंने लिखा. पर अगर आपके मन में मैल भरा हो, आप यह चाहते हैं कि एकतरफ सांप्रदायिकता करें, दूसरी तरफ कोड़े मारते रहें तो आपको हमारी हर बात गलत लगेगी.'

उन्होंने कहा कि 'दरअसल, समस्या यह है कि लोग सामान्य व्यवहार चाहते ही नहीं है. यह नहीं चाहते कि हम कट्टर मुस्लिम के खिलाफ बोलें और कट्टर हिंदू के भी खिलाफ बोलें. एक चाहता है कि हम सिर्फ कट्टर हिंदू के खिलाफ बोलें, कट्टर मुसलमान के खिलाफ बिलकुल चुप रहें. दूसरा ये चाहता है कि हम सिर्फ कट्टर मुस्लिम के ही खिलाफ बोलें.'

प्रोफेसर वर्मा ने दावा किया, 'मैं संतुलित हूं, जो भी गलत बोलेगा उसके खिलाफ हूं, हर कट्टरता, बेवकूफी और जुल्म के खिलाफ हूं. चाहे सपा करे, चाहे भाजपा करे, चाहे कांग्रेस करे. हमने आपातकाल में सरकार के खिलाफ पोस्टर लगाए हैं, आंदोलन किया है. मैंने कभी लाल टोपी नहीं पहनी. किसी पार्टी के लिए प्रतिबद्ध नहीं हूं.'

सपा नेता पूजा शुक्ला के समर्थन में किया था प्रचार

रूपरेखा वर्मा से पूजा शुक्ला के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि पूजा के पक्ष में प्रचार इसलिए किया कि वह हमारी छात्रा थी. वह कुछ बेहतर कर रही है जिसमें हमने बस उसका समर्थन किया. उन्होंने बताया कि मेरा बस यही सपना है कि मैं एक समतावादी समाज चाहती हूं. जाति, धर्म, क्षेत्र, बोली, पहनावे, खान पान के आधार पर भेद न हो और हमारा सपना ऐसे देश को देखना है.'

उन्होंने कहा कि 'इधर कुछ सालों में धर्म और जाति के आधार पर नफरत और वैमनस्य बढ़ा है, इसलिए देश में विभाजनकारी चेतना ज्यादा बढ़ी है और एक-दूसरे के दुख दर्द को बांटने की चेतना खत्म होने के कगार पर दिखती है. यह चीज हमें कांटे की तरह चुभती है और हम सोचते हैं कि जितना दम बचा है लड़ा जाए.'

क्या लिखा पर्चे में

सभी शामिल हों नफरत की लाठी तोड़ो, आपस में प्रेम करो देशप्रेमियों

30 जून याद है आपको? जहां आप खड़े हैं इस वक्त ठीक इसी जगह बहा था आजादी के दीवानों का खून... अच्छा आज की 5 जुलाई याद है ? 1857 तो याद है ना ? आपसी शक नफरत हिंसा और अविश्वास के इस दौर में याद करना जरूरी है 1857 को, जब पूरे लखनऊ और अवध में गूंजा था "बजरंगबली या अली बजरंग बली" का नारा और महादेव मुहम्मद के झंडे साथ लहराए थे.. "बिरजिस केंद्र की ताजपोशी पर झूम उठी थी लखनऊ की अवाम ये गाते हुए कि "ई है हमार कन्हैया"

फेसबुक, व्हाट्सएप और टीवी चैनल पर जिस हिसाब से एक दूसरे के खान-पान, पहनावे यहाँ तक रंगों और नामों से नफरत देखने को मिल रही है उसे देख कर यकीन नहीं होता कि कभी हमारा निरक्षर मुल्क भी इससे कहीं ज्यादा समझदार था जैसे आज का पढ़ा लिखा मिडिल क्लास है. इन्हीं दिनों में हिन्दू मुसलमानों किसानों मजदूरों औरतों बच्चों की आम जनता यानी हर जाति धर्म के लोगों ने ने अपनी एकता और भाईचारे के दम पर पूरी दुनिया में कहीं न हारने वाली हेनरी लॉरेंस की गोरी फाज को लखनऊ में ध्वस्त कर दिया था. इसका नेतृत्व वाजिद अली शाह की मग फौज, दिलीप सिह घमण्डी सिंह जैसे सूबेदार राजा महमूदाबाद जैसे तालुकों और मौलवी अह्मदुल्लाशाह जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने किया था.

जी हां, 1857 जिसकी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे और नाना साहेब जैसों को याद करते हुए भूलना नहीं चाहिए कि इन्होंने ही आगे बढ़कर अपना नेतृत्व मुगल बहादुर शाह जफर को सौंपा था, जिनके दोनों बेटों के सर कत्ल करके अंग्रेजों ने उन्हें थाल में सजा के दिए थे और खुद बहादुर शाह इस हिंदुस्तान की मिट्टी में दफ्न होने के लिए तड़पते रहे, ईरान की मिटटी में नही.. जिसे कुछ लोग अब विदेशी कहने लगे. 1857 की जंगे आजादी के झंडे का रंग हरा था और उस पर हिन्दू प्रतीक कमल का फूल भी था और गरीबो की भूख का प्रतीक रोटी भी .

लखनऊ की जंग जीतने के बाद जब बेगम हजरत महल और वाजिद अली शाह के बेट 14 बरस के बिरजिस कद्र की ताजपोशी हुई तो स्वायत के हिसाब से किसी मौलवी ने नहीं बल्कि एक मामूली सिपाही ने ताज पहनाया और नारा लगा ई है हमार कन्हय्या" ये जनता के राज आने की शुरुवात ही तो थी. ये था उस दौर का लखनऊ ये था उस दौर का अवध और हिंदुस्तान, ये उस दौर की एकता और समझदारी थी कि मामूली किसानों ने दुनिया की सबसे ताकतवर फौज को आमने सामने की लड़ाई में नेस्तनाबूद कर दिया था. वो फ़ौज जिसने नेपोलियन को हराया था.

इसी हार के बाद हिंदुस्तान को कंपनी के हाथ से ब्रिटेन ने अपने हाथ मे सीधे ले लिया. लाखों हिन्दू मुसलमान मारे गए तोपों के मुंह पर बांध के उड़ाए गए. हर दस कदम पर लटकाए गए. गांव के गाव जलाए गए कत्ले आम हुआ. और जो दूसरा सबसे खतरनाक काम हुआ वो कितने ही झूठ, लालच भ्रम फैला कर हिंदू और मुसलमानों को एक दूसरे से अलग करने की साजिश रची गयी. हिंदी उर्दू का बंटवारा किया गया. क्योंकि अंग्रेज जान गए थे कि ये एकता तोड़े बिना हिंदुस्तान पर हुकूमत नामुमकिन थी.

1857 हमारे देश की बुनियाद था

मगर आज 165 बरस बाद 2022 में हम नाम और चेहरा भर देख के एक दूसरे की जान लेने पर आमादा हो रहे हैं. अंग्रेज तो चले गए फिर इस तरक्की का क्रेडिट किसे दें जिसने अपने एजेंट हमेशा के लिये हमारे बीच छोड़ दिए.

उस दौर में भी भयानक महगाई हो गई थी बाजार में मंदी थी, लोगों पर दमन बढ़ता जा रहा था. आपसी एकता तोड़ने वाले लोग अंग्रेजी पिहू बन बैठे थे, वैसे ही आज के दौर की विदेशी कंपनियों बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट से लड़ने के लिये बेरोजगारी, मंहगाई से लड़ने के लिए किसानों और मजदूरों को हक दिलवाने के लिये वो एकता हमें फिर बनानी होगी. 1857 दोहराना होगा दोस्तों.

आजादी के 75 वें बरस पर और इस दौर में लखनऊ एक बार फिर आपसी एकता सदभाव और समानता के निरंतर और अनथक कार्यक्रमों की मुहिम शुरू करने जा रहा है जो हम सबको और तमाम शहरों को उम्मीद और भरोसे से भर देगा ."

चमक उठी थी सन सत्तावन में वो तलवार पुरानी थी आओ इसको धार दें, फिर से देश संवार दें

मेलजोल दोस्ती संवाद और कुर्बानियों के इतिहास के रौशन पन्नों के साथ ठीक उसी साझी एकता और भाईचारे के लिए सब एक हो रहे हैं. अपने दोस्तों, बच्चों सहकर्मियों, परिजनों के साथ,

वही सबील होंगी, साझी संस्कृति में पगी बूंदियों की मिठास होगी, हमारे गीत होंगे-हौसले होंगे-संकल्प होगा और एक नहीं शुरुवात होगी..

हम कौन हैं..? आप ही तो 'हम' हैं... आप एक व्यक्ति हो. संस्था हो. संगठन हो, बस जो भी ये सोचता है.. कि मौलवी डंका शाह और घमंडी सिंह की दोस्तियां और कुर्बानियां याद रखनी चाहिए. लक्ष्मी बाई की शहादत और बहादुर शाह जफर के बेटों के कटे सर हमारा इतिहास हैं जिनसे बिस्मिल, अशफाक और भगत सिंह जैसे लोग प्रेरणा पाते थे. जो ये मानते हैं कि देश से प्यार का मतलब सबको बराबरी का मौका है, संविधान का पालन है और गरीबों, वंचितों को भी बेहतर जीवन देना है वो सभी इस हम में शामिल है. हम जानते हैं इस दौर में देश का मौसम उदास है.. मगर हम ये भी जानते हैं कि अगर हम सब हर निराशा या जुल्म को फेंक कर एक हो गए तो हर ओर फिर से फूल खिला दंगे

आइए.. इस शुरुवात में अपना साथ दीजिए.. खुद जुड़िए.. औरों को जोड़िए.. जुल्म जब बढ़ते हैं- फूल और खिलते हैं