देहलवी खानदान, जिसने जलाए रखी उर्दू की ‘शमां’

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 10-02-2022
युनूस देहलवी अपने परिवार के साथ
युनूस देहलवी अपने परिवार के साथ

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

दिल्ली के आसफ अली मार्ग पर शायद उस इमारत की तरफ आपकी निगाह भी नहीं जाएगी, जिसकी छत पर पीपल के पेड़ उग रहे हैं और जिसपर लगे बोर्ड की इबारत भी पढ़ने लायक नहीं बची है. बिलाशक यह विडंबना ही है. यह उर्दू की मशहूर पत्रिका ‘शमां’ का दफ्तर था, और ‘शमां’ वह पत्रिका थी जिसकी प्रति हासिल करने के लिए लोग दीवानावार कोशिशें करते थे. यहां तक कि इसके पाठकों के लिए कुछ प्रतियां कराची तक स्मगल भी की जाती थी.
 
दिल्ली में कुछेक दशक पहले बहुत सारे लोग उर्दू पढ़ना जानते थे और ऐसे लोगों में शायद ही ऐसा कोई होगा जिसने ‘शमां’ न पढ़ी हो. ‘शमां’ अपने जमाने की मासिक साहित्यिक और फिल्मी पत्रिका थी. और लोगों के दिलों में उसकी ऐसी जगह है कि जानने वाले लोग अब भी उसको बड़े दर्द के साथ याद करते हैं.
 
शमां का उजाड़ हो चला दफ्तर
 
दिल्ली ही क्यों, यहां से बारह सौ किलोमीटर दूर झारखंड के छोटे-से खूबसूरत शहर मधुपुर में चालीसेक साल की शगुफ्ता परवीन आह भरती हुई कहती हैं, “यहां बड़ी मुश्किल से स्टेशन पर बुकस्टॉल में मिला करती थी शमां. हम बुकसेलर से मिन्नतें करके शमां की प्रतियां मंगाते थे.”
 
शगुफ्ता की बात सोलहों आने सच है, 1950 के दशक से 1980 के आखिरी सालों तक ‘शमां’ शबाब पर थी और इसकी प्रतियां तस्करी से पाकिस्तान तक भेज दी जाती थी. और उसी मैगजीन के जनक थे मोहम्मद युसुफ देहलवी. 
 
 
शमां के पाठक नहीं, परवाने हुआ करते थे

वैसे तो देहलवी परिवार को शोहरत दिलाने की नींव मोहम्मद युसूफ देहलवी और उनकी पत्रिका शमां ने किया लेकिन उनका इतिहास और अधिक पुराना है. मैगजीन ने तो उन्हें आधुनिक युग में पहचान दिलाई, लेकिन इनकी खानदानी रवायत बड़ी बेशकीमती रही है. असल में, इस खानदान का चमकता सितारा रहीं सादिया देहलवी (अव दिवंगत) ने एक साक्षात्कार में कहा है कि 17वीं शताब्दी में मुगल बादशाह शाहजहां के कहने पर एक छोटा-सा दल पश्चिमी पंजाब से दिल्ली पहुंचा था और यहीं बस गया. इस परिवार की विरासत शानदार व्यंजनों की थी. और दिल्ली की खानपान की परंपरा में कुछ व्यंजनों का योगदान इस परिवार का भी है. बहरहाल, इसी खानदान के मोहम्मद युसुफ देहलवी ने 1939 में ‘शमां’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. 
 
मोहम्मद युसुफ देहलवी के तीन बेटे थे जिन्होंने शमां मैगजीन की दशा और दिशा तय की. उनमें सबसे बड़े युनूस देहलवी, मंझले इदरीस देहलवी और इलियास देहलवी सबसे छोटे थे. इस पत्रिका की लोकप्रियता इतनी थी कि वास्तव में, ‘शमा’ और ‘खिलौना’ को लंदन, कराची और न्यूयॉर्क ले जाने के लिए विशेष उड़ानें बुक की गईं और तीनों भाई, यूनुस, इलियास और इदरीस, साथ जाते थे. यूनुस की ड्यूटी एयर इंडिया या पीआइए कराची सेक्टर पर थी.
 
 
युनूस देहलवी ने 1994 तक शमां का कामकाज देखा था
 
युसुफ देहलवी के बाद संपादक बने थे मोहम्मद युनुस देहलवी. युनुस पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे और उनकी पत्नी जीनत कैसर ने भी इस पत्रिका का कामकाज देखा था.
 
युनूस देहलवी इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूजपेपर सोसाइटी (आईईएनएस) के अध्यक्ष (1969-70) होने के अलावा, ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन लिमिटेड (एबीसी) की गवर्निंग काउंसिल के सदस्य थे. वह दुनिया भर में कई उर्दू पुरस्कारों के विजेता थे. उन्हें उर्दू दिल्ली पुरस्कार, एडिनबरा उर्दू सर्कल, जॉन गिलक्रिस्ट स्वर्ण पदक, साहिर पुरस्कार के अलावा अनेक सम्मान मिले थे. 
 
ऐसा नहीं है कि कि देहलवी परिवार सिर्फ प्रकाशन के धंधे में ही हो. द शमा ग्रुप के संस्थापक हाफिज मोहम्मद यूसुफ देहलवी के पोते और इलियास देहलवी के बेटे मोहसिन देहलवी ने देहलवी नेचुरल्स नाम की कंपनी भी बनाई है. यह यूनानी और आयुर्वेदिक फॉर्मूलेशन के उत्पादन और मार्केटिंग लगी हुई कंपनी है. 1978 में मोहसिन देहलवी अपने दादाजी के हर्बल निर्माण व्यवसाय (1926 में स्थापित) में शामिल हुए थे. बहुत कम समय में देहलवी नेचुरल्स भारत की सबसे सम्मानित कंपनियों में से एक बन गई है.
 
 
परिवार के साथ युनूस देहलवी
 
जीनत कैसर और युनुस देहलवी के परिवार में उनकी बेटी और मशहूर लेखिका सादिया देहलवी (अब दिवंगत) के एक बेटे वसीम अहमद, जो मुंबई में रहते हैं और पोते अली अहमद की जानकारी मिलती है. अली अहमद गुरुग्राम में रहते हैं.
 
 
 
मशहूर लेखिका सादिया देहलवी (अब दिवंगत)

इसकी विकास यात्रा में अन्य सहयोगी पत्रिकाएं भी जुड़ती गईं, ‘बानो’, ‘शाबिस्तान’, ‘खिलौना’, ‘मुजरिम’, ‘दोषी’ (हिंदी में), ‘आईना’ और ‘सुषमा’. इसमें ‘सुषमा’ की सामग्री ‘शमां’ का देवनागरी लिप्यंतरण या हिंदीकरण होता था. ‘शमां’ और ‘खिलौना’ जैसी पत्रिकाएं न केवल हाथो-हाथ बिक जाती थीं बल्कि इन्हें ‘ब्लैक’ में भी बेचा जाता था. ‘शमां’ की लोकप्रियता का एक और कारण इसकी ‘मुअम्मा’ (साहित्यिक पहेली) थी, जहां उर्दू उपन्यासों से शब्द भरने पड़ते थे और इसके लिए कुछ लोग लाखों रुपये दांव पर लगाते थे.
 
बहरहाल, उर्दू के पाठकों की कम होती संख्या और उनकी पढ़ने-लिखने में घटती दिलचस्पी की वजह से शमां का प्रकाशन 1999 में बंद हो गया.
 
लेकिन शमां को चलाए रखने वाले देहलवी खानदान खुद इतना काबिल और प्रतिभाशाली रहा है कि वह शमां की कवर स्टोरी बन सकता था. दिल्ली के समृद्ध सरदार पटेल मार्ग पर उनका आलीशान बंगला हमेशा इत्र और खुशबूदार सालन से महकता और सितारों की आमद से चमकता रहता था. दिल्ली आने वाला हर फिल्मी सितारा उनके घर आने में फख्र महसूस करता था. बहरहाल, पत्रिका के 1999 में बंद होने के चार साल के बाद देहलवी परिवार ने इस बंगले को भी बेच दिया. 
 
इस खानदान की शानदार खासियत है कि युनूस देहलवी ने अपने पिता की शुरू की गई पत्रिका को 1943 से 1994 तक उम्दा तरीके से चलाए रखा. हाजी युसूफ देहलवी का शुरू किया गया प्रकाशन संस्थान उर्दू के विकास में अहम किरदार अदा करता रहा और 1943 से 1994 तक वह दुनिया में उर्दू पत्रिकाओं का सबसे बड़ा प्रकाशन संस्थान बना रहा. जानकार बताते है कि उसके बाद परिवार में झगड़े बढ़ गए और खानदान बंट गया, बच्चों के अहं के आगे पत्रिकाओं की बलि चढ़ गई. युनूस देहलवी की मौत 7 फरवरी, 2019 को हो गई. उन्हें सैकडों लोगों की मौजूदगी में करोलबाग में दफनाया गया. 
 
एक वक्त था कि शमां उर्दू मासिक की लाखों में प्रतियां छपती थीं और उसकी मांग द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार या द इलस्ट्रेटेड वीकली जैसे साप्ताहिक पत्र से कहीं अधिक थी. 
दिलीप कुमार, अशोक कुमार, राज कपूर, आशा पारेख, नूतन, नरगिस, राज कुमार, संजीव कुमार, मोहम्मद रफ़ी, मलाइका पुखराज जैसे शीर्ष फिल्म अभिनेता और कई अन्य सरदार पटेल मार्ग पर यूनुस की हवेली में अक्सर आते थे.
 
बच्चों की मशहूर पत्रिका खिलौना का कवर
 
उस समय के प्रसिद्ध उर्दू कवि और लेखक - जैसे ख्वाजा अहमद अब्बास, हफीज जालंधरी, हसरत जयपुरी, कतील शिफाई, इस्मत चुगताई, सलाम मछली शहरी, रजिया सज्जाद जहीर, कृष्ण चंदर, राजा मेहदी अली खान, बलवंत सिंह, कन्हैया लाल कपूर. राम पाल, साहिर लुधिधिनावी, राम लाल, सिराज अनवर, बशेशर प्रदीप, शफीउद्दीन नैयर, कैफ अहमद सिद्दीकी, डॉ केवल धीर, केपी सक्सेना, अजहर अफसर, प्रकाश पंडित, आदिल रशीद, एमएम राजिंदर, जिलानी बानो, नरेश कुमार शाद, अबरार मोहसिन , मसूदा हयात, इशरत रहमानी, अबरार मोहसिन, ख़लीक अंजुम अशरफ़ी - के अलावा कई अन्य 1940 से 1990 तक घरेलू नाम हुआ करते थे. और उसकी वजह शमां और खिलौना जैसी पत्रिकाएं थीं.
 
‘खिलौना’ के कई पुराने प्रशंसक आज भी पुरानी किताबों के ढेर में इसे तलाशते हैं. लेकिन बेकार. बेशक, उर्दू की ‘शमां’ बुझ गई है, लेकिन जिस देहलवी खानदान ने छह दशकों तक इससे साहित्य में उजाला किए रखा, उसका नाम सुनहरे वर्क़ में लिखा हुआ रहेगा.