..एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 30-04-2021
..एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो
..एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

 

मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली / नंदुरबार (महाराष्ट्र )

देश के छोटे-बड़े हिस्सों में आज भले आॅक्सीजन, अस्पतालों के बेड और जीवनरक्षक दवाईयों की कथित कमी से हाहाकार मचा है. मगर इस विकट दौर ने यह साबित किया है कि कोई चाहे तो सरकारों पर निर्भर हुए बिना भी ‘अपनों’ तक ऐसी विपत्ति को फटकने नहीं दे सकता. ऐसे ही सूझ-बूझ रखने वाले दूरदर्शी व्यक्ति हैं महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल जिला नंदुरबार के जिलाधिकारी डॉ राजेंद्र भारुड.
 
उनके प्रयासों से न केवल इस जिले में कोरोना पर लगाम लगा हुआ है. देश के इस इकलौते जिले में आज भी 150 आईसीयू बेड खाली पड़े हैं. यहां ऑक्सीजन और मेडिकल सुविधाएं इतनी सरपलस हैं कि पड़ोसी राज्यों के लोग भी कोरोना से जान बचाने के लिए यहां आने लगे हैं.देश का यह इकलौता जिला है जिसके पास अपना दो ऑक्सीजन प्लांट है और तीसरा लगाने की तैयारी चल रही है.
 
भारतीय प्रशासनिक अधिकारी डॉ राजेंद्र भारुड एमबीबीएस किए हुए हैं. मेडिकल प्रैक्टिस के दौरान ही उन्होंने यूपीएससी की प्रतियोगी परीक्षा पास की थी. वह बताते हैं, ‘‘ व्यवस्थित ढंग से कोरोना को नियंत्रण करने में उनकी मेडिकल की पढ़ाई बहुत काम आई. आज भी उसकी मदद से बहुत कुछ करने को प्रयासरत हैं.’’
 
वह बताते हैं. पिछले वर्ष के अंतिम महीने जब अपने देश में कोरोना मरीजों की संख्या घट रही थी. उस दौरान ब्राजील और अमेरिका में महामारी की दूसरी लहर शुरू हो गई थी. तभी वह समझ गए थे कि देर-सवेर कोरोना की दूसरी लहर का कहर भारत पर भी टूटने वाला है. उस वक्त से उन्होंने अपने जिले को कोरोना से बचाने पर काम शुरू कर दिया.
 
गौरतलब है कि पिछले वर्ष और इस बार भी कोरोना का कहर महाराष्ट्र पर कुछ ज्यादा है. सर्वाधिक केसेज और मृत दर इस प्रदेश में है. पिछले चौबीस घंटे में महाराष्ट्र में 63,309 नए मामले आए और985 लोगों की मृत्यु हुई.
 
इसके बावजूद 16 लाख की आबादी वाले महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल नंदुरबार की कहानी कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच महाराष्ट्र सहित देश के बाकी हिस्सों से बिल्कुल जुदा है.
 
घटता कोरोना दर

मरीजों की बढ़ती संख्या और कम पड़ती स्वास्थ्य व्यवस्था से जहां मृतकों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही है, वहीं नंदुरबार का बुनियादी ढांचा मजबूत होने से महामारी नियंत्रण में है.इस जिले में 150 आईसीयू बेड खाली हैं.यहां के दो ऑक्सीजन संयंत्र से 2,400 लीटर प्रति मिनट के हिसाब से ‘प्राणवायु’ का उत्पादन किया जा रहा है. इसके पर्याप्त संसाधन और मजबूत स्वास्थ्य ढांचे को देखते हुए पड़ोसी राज्यों मध्य प्रदेश और गुजरात के सीमावर्ती जिलों के लोग भी इलाज के लिए नंदुरबार आने लगे हैं.
 
डीएम डाॅ राजेंद्र कहते हैं, इस अतिरिक्त भार के बावजूद वह और उनकी टीम ने यहां कोरोना पर लगाम लगा रखा है. दूसरी लहर में यहां 1,200 कोरोना पॉजिटिव हो गए थे, पर उन्हें ठीक कर घर भेजने देने के बाद अब यह संख्या मात्र 300 रह गई है. वह कहते हैं कि समय पर उचित इलाज मिल जाने से रोगियों की संख्या निरंतर घट रही है.
 
वह इसका श्रेय जिला  प्रशासन के कर्मचारियों, डॉक्टर्स और स्वयंसेवक को देते हैं. उनकी मदद से जिले में कोविड का टीकाकरण अभियान भी बहुत मजबूत तरीके से चल रहा है.
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दूरदर्शिता आ रही काम

वह बताते हैं कि पिछले वर्ष जब कोरोना की दर में गिरावट आने लगी थी, तब उन्होंने रिलैक्स महसूस करने के बजाए और जोर-शोर से इससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी थी.यहां तक कि सितंबर 2020 में 600 लीटर प्रति मिनट उत्पादन करने वाला जिले में पहला ऑक्सीजन प्लांट स्थापित किया. तब जिले में  कोविड के मात्र 190 मामले थे.
 
इस वर्ष मार्च को एक और ऑक्सीजन प्लांट लगाया गया है. अप्रैल में जब प्रतिदिन 1,200 के करीब कोरोना के नए मामले आने लगे तो उन्होंने आॅक्सीजन के तीसरे प्लांट की स्थापना की तैयारी शुरू कर दी. स्थिति यह है कि जल्द ही नंदुरबार 3,000 लीटर प्रति मिनट ऑक्सीजन उत्पादन करने वाला इकलौता आदिवासी जिला बन जाएगा.
 
धन व्यवस्था में दिखाया हुनर

मजबूत स्वास्थ्य संरचना स्थापित करने के लिए अत्याधिक धन की आवश्यकता पड़ती है. कोरोना नियंत्रण के लिए तो और भी ज्यादा. मगर डीएम डॉ राजेंद्र ने यहां भी अपनी सूझबूझ दिखाई. परिणाम स्वरूप जिले में न केवल ऑक्सीजन प्लांट है. हर ब्लॉक में एम्बुलेंस, वेंटिलेटर, बेड, टीके, दवाइयां, स्टाफ, एक वेबसाइट युक्त एक कंट्रोल रूम भी काम कर रहा है.
 
डॉ राजेंद्र बताते हैं कि इस पर खर्च करने के लिए उन्होंने जिला योजना, विकास निधि, राज्य आपदा राहत कोष और सीएसआर फंड का इस्तेमाल किया. वह कहते हैं,“हम नहीं चाहते थे कि हमारे डॉक्टर किसी तरह के दबाव में हों. उन्हें अपनी जरूरत की हर चीज मुहैया हो.’’ उनके मुताबिक, एक ऑक्सीजन प्लांट स्थापित करने पर तकरीबन 85,00,000 रुपये लगे.

जानकर आश्चर्य होगा कि यहां मरीजों को ऑक्सीजन सिलेंडर से नहीं, सीधे अस्पताल तक पाइप लाइन बिछा कर सप्लाई की जा रही है. इसमें भी उनका डॉक्टरी ज्ञान काम आ रहा है. डीएम राजेंद्र कहते हैं,‘‘ समय पर रोगी को ऑक्सीजन मिल जाए तो इसकी खपत मात्र 30 प्रतिशत होती है और वह जल्दी ठीक भी हो जाते हैं.
 
मगर हालत बिगड़ने पर न केवल ऑक्सीजन की खपत 90 प्रतिशत तक बढ़ जाती है, किडनी और मस्तिष्क पर जोर पड़ने पर रोगी के ठीक होने में भी समय लगता है. सिलेंडर से ऑक्सीजन पहुंचाने में समय लगता है, इसलिए पाइप लाइन के जरिए इलाज स्थल तक ऑक्सीजन पहुंचाने की व्यवस्था की गई है. इससे यहां मृत्यु दर भी काबू में है.
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कोरोना से जंग की तैयारी

कोरोना के बढ़ते खतरे को देखते हुए जिले के तमाम स्कूलों एवं सामुदायिक भवनों को पहले की कोविड सेंटर में बदल दिया गया था. जिले में कोविड के लिए 7,000 बेड बनाए गए हैं. इसके अलावा 1,300 बेड आईसीयू और वेंटिलेटर सुविधाओं से सुसज्जित हैं. मरीजों को अस्पताल लाने के लिए 27 एंबुलेंस खरीदी गई हैं.
 
इसके अलावा शवों को ढोने के लिए भी दो एंबुलेंस लिया गया है. यही नहीं एमर्जेंसी में अतिरिक्त भाग-दौड़ न करना पड़े, इसलिए जिले के लिए पहले ही 50,00,000 रुपये मूल्य का रेमेड्सवियर खरीदा लिया गया था. सहायता लेने, देने के लिए प्रशासन की ओर से एक वेबसाइट और नियंत्रण कक्ष भी काम कर  रहा है.दूसरे शहरों से आने वालों पर नजर रखने के लिए एक टीम हमेशा स्थानीय रेलवे स्टेशन की निगरानी करती है.
 
पहली लहर के दौरान, जिले को फ्रंटलाइन डॉक्टरों का गंभीर संकट झेलना पड़ा था. इस क्षेत्र में कोई मेडिकल कॉलेज नहीं हैं, ऐसे में विशेषज्ञों को ढूंढना चुनौती थी. इसलिए डॉ राजेंद्र ने स्थानीय डॉक्टरों को अपने अभियान में शामिल कर लिया. उन्हें ऑक्सीजन के स्तर को बढ़ाने और रोगियों को खास तरीके से निगरानी रखने की ट्रेनिंग दी गई है.
 
यहां तक कि उन्हें टीकाकरण अभियान से भी जोड़ा गया.परिणाम स्वरूप जिले के 45 वर्ष से अधिक आयु के 3,00,000 व्यक्तियों में से एक लाख को पहली खुराक दी जा चुकी है. चूंकि आदिवासी बहुल जिला होने के कारण यहां लोगों को वैक्सीनेशन की जानकारी न के बराबर है.

इस लिए टीकाकरण के लिए लोगों को बुलाने के बजाय, उन्हें टीका देने के लिए जिले के हर हिस्से को 16 वाहन आवंटित किए गए हैं. डॉक्टर राजेंद्र बताते हैं कि इस काम में शिक्षकों और सरपंचों को
जरूरी जिम्मेदारी दी गई है.
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कुछ बातें डीएम राजेंद्र की भी

राजेंद्र खुद नंदुरबार जिले के साकरी तालुका में एक आदिवासी परिवार में पैदा हुए. उनके जन्‍म से पहले ही उनके पिता का देहांत हो गया. वह अपने परिवार की गरीबी के बारे में बताते हैं, ‘‘ इतने गरीब थे कि हमारे पास मेरे पिता का एक भी फोटो नहीं है.मुझे नहीं पता कि वह कैसे दिखते थे.
 
राजेंद्र की मां ने उनका लालन पालन किया. खर्च चलाने के लिए उनकी मां महुआ के फूलों से शराब बनाकर बेचती थीं.राजेंद्र बचपन से पढ़ने में होशियार थे.स्‍थानीय स्‍कूल से पढ़ने के बाद वह जवाहर नवोदय विद्यालय में पढ़ने गए.इसके बाद मुंबई के सेठ जीएस मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने लगे.पढ़ाई के आखिरी साल में ही उनका पहली बार में ही यूपीएससी में सलेक्‍शन हो गया.