फूलों के गुलशन में जिक्र तबस्सुम का...

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 14-05-2021
 तबस्सुम
तबस्सुम

 

विशाल ठाकुर

कुछ दिनों पहले की बात है. लैपटॉप पर तबस्सुम जी के बारे में एक खबर देख रहा था. मुंबई के एक अस्पताल से वह व्हीलचेयर पर बाहर आ रही थीं. चेहरे पर चढ़े मास्क में बेशक उनकी सदाबहार मुस्कान दब गई थी, लेकिन हवा में विक्टरी स्टाइल में लहराती उंगलियां बता रही थीं कि वह कोविड को पछाड़कर आई हैं. साथ में उनके बेटे होशांग गोविल भी थे. यूं भी कोरोना न जाने कितने ही सितारों को लील गया है, तबस्सुम जी को यूं सकुशल घर लौटते देखना राहत भरा लगा. और मुंह से अचानक निकल पड़ा- अरे वाहए ये होता है जज्बा. 76 की उम्र में कोरोना को हरा दिया.

मुझे नहीं पता था कि मेरे ऐसा कहने के बाद प्रश्नवाचक मुद्रा में दो सवाल मेरे सामने खड़े होंगे. कौन हैं यह? आपकी टीचर हैं? साल 2005 में जन्मे बच्चे को एकदम से कैसे समझाता कि ये कौन है. फिर भी उन्हें बताया कि मशहूर एक्ट्रेस हैं और दूरदर्शन पर फिल्मी सितारों के इंटरव्यूज लिया करती थीं.

पर दूसरे ही पल मुझे ये अहसास हो गया कि तबस्सुम जी की शख्सियत के परिचय के संदर्भ में ये बात मेरे नेटिजन्स (इंटरनेट को अपना धर्म मानने वाली आज की युवा पीढ़ी कह सकते हैं) के सिर के ऊपर से गुजर गयी है.

कुछ और कहता इससे पहले 2009 वाले ने तुरंत अपने टैब पर गूगल कर लिया और सवाल दागा- फूल खिले हैं गुलशन गुलशन, ये क्या है? ये कौन से जमाने के टेलिविजन पर आता था? 

जाहिर है अब वक्त बीते दौर की यादों की तरफ जाने का था. ये बताने का कि दूरदर्शन पर आने वाला देश का पहला फिल्मी सितारों से बातचीत का वो ब्लैक एंड व्हाइट, टेलिविजन शो जिसका नाम था फूल खिले हैं गुलशन गुलशन, आज के सैटेलाइट टीवी के चकाचौंध भरे और ग्लैमरस अंदाज वाले कॉफी विद करण से कैसे अलग था. ये भी आजकल ऐसे शोज क्यों नहीं दिखते. और खुदा ना खास्ता जो एक-आध है, उनसे नेटिजन्स कैसे जुड़ सकते हैं.

वैसे, नेटिजन्स पीढ़ी की एक बड़ी खूबी यह है कि बेशक अपने पेरेन्ट्स के जमाने के ही सहीए लेकिन नास्टैल्जीअ (गुजरे दौर की कोई याद) को लेकर उनमें भी जबरदस्त क्रेज दिखाई देता है. और जब बात नब्बे के शुरुआती दशक और मिलेनियम के आगाज की होती है, तो एक पल वो भी आता है, जब दशकों का फासला थोड़ा छोटा होने लगता है और चर्चा रोचक बन जाती है. लेकिन मेरे लिए दूरदर्शन की घटती लोकप्रियता और सैटेलाइट चौनलों का क्रेज, दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. लेकिन इससे पहलेे एक झलक जरा इस शो पर भी.

दो दशकों का वो सुनहरा सफर

फूल खिले हैं... का प्रसारण सन 1993 में बंद हुआ. देश का पहला सेलिब्रिटी टॉक शो जो दूरदर्शन, मुंबई के प्रसारण (2 अक्तूबर, 1972) के साथ 8 अक्तूबर, 1972 को शुरू हुआ था. हालांकि सत्तर के दशक में यह शो जब शुरू हुआए तो उस समय टीवी पर कमर्शियल शोज नहीं हुआ करते थे. एक-दो उदाहरण छोड़ दें, तो सन 80 के दशक में इसकी प्रसिद्धि अपने चरम पर थी और विज्ञापनदाताओं का यह पसंदीदा कार्यक्रम था, जिसके जरिये वह अपने ग्राहकों से जुड़ सकते थे.

हालांकि इसी दौर में रंगीन टीवी भी आ चुका था, लेकिन दिल्ली जैसे शहर में ऐसा भी नहीं था कि एक मुहल्ले के सभी घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी हो. एक बार अक्षय कुमार ने एक इंटरव्यू में पुरानी दिल्ली में बिताए अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताया था- मैं जब छोटा था, तो पड़ोस में टीवी देखने जाया करता था. वो लोग खुद तो सोफे पर बैठते थे और हमें नीचे फर्श पर अपने पैरों के पास बिठाते थे. एक दिन मैंने अपने पिताजी से आकर कहा कि आप टीवी ले आओ. हम जहां टीवी देखने जाते हैं, उनके खुर (पंजे) मेरी पीठ में लगते हैं.

बहरहाल, अस्सी के दशक के मध्य तक दूरदर्शन के अलावा एक और चौनल डीडी2 भी आ गया था, जिसका बाद में नाम डीडी मेट्रो कर दिया गया था. टेलिविजन की दुनिया में आ रहे बदलावों का जिक्र इसलिए भीए ताकि ये समझा जा सके कि प्रतिस्पर्धी दौर के आने के बाद भी यह टॉक शो कैसे टिका रहा.

और बेशक, शो में फूंकने का श्रेय तबस्सुम जी को ही जाता है. मुझे याद नहीं पड़ता कि 21 साल का सफर किसी अन्य सेलेब टॉक शो ने पूरा किया हो. वो फूल खिले हैं... की प्रसिद्धि और तबस्सुम जी का अपना खास अंदाज ही था, जिसके चलते तमाम फिल्म सितारे उनके शो में खिंचे चले आते थे.

वैसे वह खुद हिन्दी फिल्मों में बतौर बाल कलाकार सन 1947 से अभिनय करती आ रही थीं. ये भी एक बड़ी वजह थी कि फिल्मी सितारे बातचीत में उनके साथ काफी सहज दिखाई देते थे. वह बेतकल्लुफ होकर उनसे कुछ भी पूछ लेने में हिचकिचाती नहीं थीं. और उनका स्टाइल, पहनावा, चार्म इतना गजब का था कि कई बार सामने बैठा स्टार भी उनके आगे फीका लगने लगता था.

सन 1981 में दीप्ती नवल का इंटरव्यू करते समय आज उन्हें देखिये. फारुख शेख के साथ उनकी फिल्म ‘चश्मेबद्दूर’ उसी साल रिलीज हुई थी, पर सारी चमक तबस्सुम जी के नूर से ऐसे झलक रही थी कि ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में भी वो नजारा किसी रंगीन फिल्म का दिख रहा था. और इस शो की एक खास यूएसपी इसकी बोलचाल भी थी, जिसमें हिन्दी-उर्दू की बेहद नफासत भरी गुफ्तगू शुमार होती थी.

लेकिन नब्बे के दशक में जब सैटेलाइट की आहत तेज हुई, तो आहिस्ता-आहिस्ता यह शो कहीं खोने सा लगा. वो शो जिसके दौर में हम लोग (1984-85), ये जो है जिंदगी (1984), बुनियाद (1986-87), रामायण (1987-88) और महाभारत (1989-90) जैसे धाकड़ शोज आकर चले गए. न जाने ऐसा कितनी बार हुआ होगा कि ऐन मौके पर लाइट चली गई और मूड ऑफ हो गया. और जो एक बार टेलिकास्ट हो गया, वो रिपीट नहीं होता था. हर चीज की एक उम्र होती, ये सोचकर आप तसल्ली कर लेते हैं.

जल्दबाजी से दूर सुस्ताते से ये शो

पर सही मायने में देखा जाए, तो फूल खिले हैं.. एक ऐसा शो था जो अपने में एक अनोखा शो था. अपनी-अपनी खासियतें होने के बावजूद वो चार्म, वो मजा, वो अपनापन न तो रॉंदेवू विद सिमी ग्रेवाल के शो (सन 1997) में दिखाई पड़ता है और ना ही करण जौहर के कॉफी विद करण में.

लेकिन इधर यू-ट्यूब पर रेख्ता के चैनल पर इरफान साहब द्वारा लिए गए फिल्मी सितारों के साक्षात्कार कुछ अलग किस्म के दिखाई पड़ते हैं. खासतौर से सेलेब्स के इंटरव्यूज को लेकर जो एक छवि बीते 20-25 वर्षों में चौनलों और प्रिंट मीडिया के बदलते स्वरूप के कारण बन चुकी है, उससे एकदम अलग किस्म के. चूंकि वह दूरदर्शन के लिए भी लंबे समय तक ऐसे इंटरव्यू शोज कर चुके हैं, इसलिए एक तसल्ली रहती है कि उनकी बातचीत में गहराई होगी और इसीलिए दिलचस्पी बनी रहती है.

कुछ-कुछ ऐसा ही फील लेखक-गीतकार-पत्रकार, नीलेश मिसरा के शो दि स्लो इंटरव्यू और दि स्लो कैफे में भी मिलता है. इन दोनों ही शोज में हर उम्र, हर दौर के फिल्मकार, सितारे और संगीतकार वगैराह आते हैं. आधे घंटे से लेकर एक घंटा (आमतौर पर) तक के एपिसोड होते हैं. नीलेश मिसरा गांव-खेतों में धूमते-फिरते या चारपाई पर बैठकर अपने शो के टाइटल को सार्थक करते हुए बातचीत करते हैं. ये एक जरिया हो सकता हैं गुजरे दौर के फूल खिले हैं गुलशन गुलशन को याद करने का.