भारतीय सिनेमा में ऐसे अभिनेता बेहद कम हुए हैं जिनकी दर्शकों और आलोचकों दोनों पर बराबर की पकड़ रही है. ‘जाने भी दो यारों’, ‘कथा’, ‘मंडी’ जैसी समांतर शैली की फिल्मों में नसीरुद्दीन शाह एक्टिंग के एक स्कूल सरीखे दिखते हैं. समांतर सिनेमा के उस नसीर ने अपनी एक खास शैली, सहज अभिनय, संवाद अदायगी और किरदार में उतर जाने के अपने एक खास ‘मेथड’ से आलोचकों का दिल जीत लिया तो दूसरी तरफ ‘मोहरा’, ‘त्रिदेव’, और ‘इश्क़िया’ जैसी अनगिनत व्यावसायिक फिल्में हैं, जिनके जरिए उन्हें दर्शकों की तालियां भी हासिल हुईं.
व्यावसायिक फिल्मों में भी नसीर कभी किसी एक खांचे में नहीं बंधे. ‘ए वेडनेसडे’ जैसी फिल्म में वह आम आदमी को नायक बनाते नजर आते हैं तो कभी ‘सरफरोश’ के आतंकवादी गवैये को परदे पर जिंदा कर देते हैं और कभी ‘कृष 2’ के महत्वाकांक्षी साइंसदान विलेन की क्रूरता को.
नसीरुद्दीन शाह के अभिनय और उनकी फिल्मों पर बहुत चर्चाएं हुई हैं. पर इसके अलावा उनके अंदर एक बेचैन बौद्धिक भी है, जो अपने मुल्क और उसकी विरासत को लेकर चिंतित रहता है. हर तरह की कट्टरवादी सोच के खिलाफ उनकी अपनी राय है, जिस पर कई दफा शोर-गुल भी हुआ, पर नसीर अपनी बात पर कायम हैं. वह साफ कहते हैं कि उनको हिंदुस्तान में महज मुसलमान होने के नाते रास्ते में रुकावटों का सामना नहीं करना पड़ा. बहरहाल, कोरोना महामारी के दौरान लगे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन में शाह ने खुद को बोर नहीं होने दिया, कुछ नया सीखते रहे. उनके व्यापक बातचीत की डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने, आज पढ़िए उस इंटरव्यू की पहली किस्तः
सवालः कोरोना महामारी ने देश और दुनिया को एक तरह से तबाह कर दिया. लॉकडाउन के समय का आपका क्या तजुर्बा रहा.
नसीरुद्दीन शाहः मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं हुई, क्योंकि मुझे घर पर रहने की आदत रही है. जब थियेटर का या कोई लिखने-पढ़ने का अगर कोई काम न हो तो मैं अक्सर महीनों घर पर गुजार देता हूं. मेरे लिए तो यह (लॉकडाउन) एक लंबी छुट्टी थी. इस दौरान, जो मेरे पढ़ने की फेहरिस्त में था, वह मैंने पढ़ा. कुछ लिखना भी शुरू किया. मैं दो-तीन नाटक भी करना चाहता हूं, तो उसकी भी हमने जूम के जरिए तैयारी शुरू की. पर इस महामारी से अहम सबक मिला कि आदमी को अपने-आप को बोर नहीं होने देना चाहिए.
नसीरुद्दीन शाह इन दिनों रघुबीर यादव से बांसुरी सीख रहे हैं
जब दुनिया सामान्य थी और किसी रोज कोई काम न हो, तो अजीब-सी छटपटाहट होती थी. लेकिन इन दिनों (लॉकडाउन में) जब मैं सुबह को उठता था तो देखता था कि करने के लिए कुछ तो है ही नहीं और पता नहीं कब तक होगा भी नहीं. तो सोचा कि करने के लिए कुछ न कुछ तो ढूंढना होगा. इत्तफाक से (हंसते हैं) एक बंदा बांसुरी बजाता हुआ जा रहा था और वह बांसुरी बेच रहा था तो मैंने उससे बांसुरी खरीद ली. मेरे दोस्त हैं रघुवीर यादव, जो बहुत बेहतरीन बांसुरी बजाते हैं उनसे मैंने कुछ सबक लिए और उसका रियाज करता रहा. कम से कम एक महीने हमने घर में टीवी ऑन भी नहीं किया और कोई फिल्म भी नहीं देखी. बस घर का काम किया और उन दिनों रमजान भी चल रहा था और जिंदगी में पहली दफा (हंसते हैं) पूरे के पूरे रोजे रखे कि भाई कुछ तो हो टू लुक फॉरवर्ड टू (खिलखिलाकर हंसते हैं) एट द एंड ऑफ द डे. हमारी वाकिफ हैं बहुत ही आलिम... प्रोफेसर आरफ़ा ज़हरा जो लाहौर में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं तो उनका कहना था कि भई, बोर होना क्या होता है यह तो मैं जानती ही नहीं हूं. उनकी इस बात ने मुझे बहुत मुत्तास्सिर किया था. मैंने भी कुछ वैसा ही किया.
सवालः यह जो महामारी का वक्त था, क्या इसमें इंसानियत को लेकर, खुद को देखने को लेकर, अपना आत्म निरीक्षण करने को लेकर लोगों के नजरिए में भी फर्क आया कि बतौर एक इंसान हम किस तरफ जा रहे हैं?
नसीरुद्दीन शाहः जब ये लॉकडाउन अनाउंस किया गया, चार घंटे के अंदर, जो कि मेरे ख्याल से बहुत कम अरसा था, और जब यूपी और बिहार से आए कामगारों को कोई रास्ता न मिला तो वे सब के सब अपने-अपने घर को पैदल चलने लगे. जहां तक एक्टरों का सवाल है, खासतौर पर फिल्म इंडस्ट्री में कि बुजुर्ग एक्टर तो जरूरी हैं ही, चाहे आप नौजवानों की फिल्म बना रहे हों फिर भी उसमें बुजुर्ग तो चाहिए ही होते हैं. कोई भी कहानी मुकम्मल नहीं होती है बिना बुजुर्ग के.
मुझे इस बात की कोई फिक्र नहीं थी कि मैं 65 साल से ऊपर का हूं. मुझे ये बिल्कुल बेवकूफी की बात लगी कि आप 65 के हैं तो आपको खतरा है और 64 के हों तो कोई खतरा नहीं है. लेकिन मेरा दिल खौल जाता था इस खयाल से कि जितने हमारी फिल्म इंडस्ट्री को कंधों पर लेकर चलने वाले डेली वेज वर्कर्स, मेकअप आर्टिस्ट्स, डांसर्स, स्टंटमैन, लाइटमैन हैं. जो सफाई करते हैं जो आपको चाय पिलाते हैं, जो कैंटीन में काम करते हैं, उनका, रिक्शेवालों, रेस्तरां के वेटर्स वगैरह का क्या हो रहा होगा. हमलोग तो ऊपरवाले की दया से इतना रख पाए हैं कि हमें इसकी चोट महसूस नहीं होती. लेकिन जो अपने-अपने बच्चों को लिए हुए, अपना-अपना सामान लादे हुए जा रहे थे इन मुहाजिरों की तस्वीर देखकर दिल टूट जाता था. और वहीं पर एक हैरत-सी भी होती थी कि क्या हमारी हुकूमत जो है वो इतनी सख्तदिल है क्या, इतनी संगदिल है क्या...कि मदद का एक हाथ भी नहीं बढ़ाया जा सकता है इन लोगों की तरफ?
फिल्म फिराक के सेट पर नंदिता दास के साथ नसीरुद्दीन शाह
सवालः लॉकडाउन में हमने देखा कि उस दौर में जब इंसान अपने घरों में बंद थे, तो परिंदे निकलने लगे, आसमान नीला और साफ दिखने लगा, तो तमाम मुश्किलातों के बीच कुछ अच्छी चीजें भी हुईं. पर पिछले कुछ वक्त से हमने देखा कि एक नफरत है मुल्क में, जो एक जिन्न की तरह बोतल से बाहर आ गया है. क्या अब वक्त आ गया है कि इस जिन्न को दोबारा बोतल में बंद कर दिया जाए?
नसीरुद्दीन शाहः मैंने यही बात कही थी तकरीबन दो साल पहले, और मुझ पर गालियों, इलजामों और मलामतों की बारिश हुई कि तुम गद्दार हो कि हमारे मुल्क में ऐसा हो ही नहीं सकता. बहुत सारे लोग ऐसे थे जो ये कहते थे कि भई अगर तुम्हें डर लग रहा है तो तुम चले जाओ यहां से. मैं यह कह-कहकर थक गया कि मैंने यह कभी नहीं कहा है कि मुझे डर लग रहा है. मैंने कहा कि इन हालात को देखकर मुझे परेशानी हो रही है. मुझे अपने मुल्क के बारे में फिक्र हो रही है. मेरी तो जिंदगी गुजर गई और बहुत अच्छी जिंदगी गुजरी है इस मुल्क में. एक मुसलमान की शख्सियत लेकर मैंने कभी भी ऑपरेट नहीं किया है और न ही एक मुसलमान होने की वजह से कभी कोई रुकावट न तो मेरे रास्ते में आई न कभी मेरे वालिद और मेरे दो भाइयों के रास्ते में आई. मेरे एक भाई ने जिंदगी भर फौज में काम किया है और हिंदुस्तान के लिए दो जंगें लड़ी हैं.
मुझे तो अपनी मुस्लिम इनफरारियत (पहचान) का एहसास ही नहीं था. अब मुझसे जबरदस्ती करवाया जा रहा है. जो लोग मुझसे बार-बार कहते हैं कि तुम कहते हो कि मुल्क के हालात ठीक नहीं हैं, तो चले जाओ यहां से. अरे भाई, अगर मुझे अपने घर में कोई बात गलत लगे तो मैं घर छोड़कर चला जाऊं? या उस बात को सुधारने की कोशिश करूं? तो बतौर एक कलाकार हम कर भी क्या सकते हैं सिवाए सवाल उठाने के? मैं तो कोई सियासतदान हूं नहीं, और न ही मेरे पास कोई इख्तिदार है कि मैं कोई कानून ला सकूं. न मेरे पास कोई डंडा है कि मैं लोगों को पीट-पीटकर एक लाइन में ला सकूं. मैं बस अपने मुल्क से बेपनाह मुहब्बत करने वाले और उसकी फिक्र करनेवाले कलाकार की हैसियत से जो कर सकता हूं, कर रहा हूं. जहां मेसेज दे सकता हूं दे रहा हूं.
कोई लीडर उम्र भर नहीं रहता, न कोई रहेगा. हरेक का दौर आता है और खत्म हो जाता है. लेकिन जैसा कुणाल कामरा ने कहा कि जो बातें चार पैग पीने के बाद होती थीं वह सुबह की कॉफी पीने के बाद होती हैं. मुझे इस बात से भी हैरत है कि छठी-सातवीं के बच्चे जिस तरह एक-दूसरे को हिंदू-मुसलमान के ताने दिया करते थे. अब उसतरह की बातें खुलेआम फेसबुक और सोशल मीडिया पर खुलेआम कही जा रही हैं, हूम यू शुड नो बेटर, उस तरह की बातें सोशल मीडिया पर ही नहीं, नेशनल टीवी पर भी कही जा रही हैं. तो बस दुआ कर सकते हैं और अपने दिल में नफरत न पालें, हम ये हलफ उठा सकते हैं.
...जारी