युसूफ खान से दिलीप कुमार बनने का सफर

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 1 Years ago
युसूफ खान से दिलीप कुमार बनने का सफर
युसूफ खान से दिलीप कुमार बनने का सफर

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

दिलीप कुमार को दिवंगत हुए आज एक साल पूरा हो गया. 98 साल की उम्र कम नहीं होती, पर अगर ये उम्र दिलीप कुमार की हो तो मन में एक साध रह जाती है कि आह, दिलीप साहब थोड़ा और जिए होते.

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे

क्या ख़ूब क़यामत का गोया है कोई दिन और.

पर पेशावर में पैदा हुए युसूफ साहब के दिलीप कुमार बनने का सफर क्या बेमिसाल सफर रहा है. इस बारे में हजारों लेख लिखे गए होंगे, सैकड़ों किताबों और रिसालों में इसका जिक्र रहा होगा पर यह भी है कि जितना लिखा जाए उतना थोड़ा है.

सिनेमा की दुनिया में लोग जिनको दिलीप कुमार के नाम से जानते हैं, जिनके अभिनय की कसमें खाई हैं,सचाई यह है कि उनकी फिल्मों में काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और शुरू में उन्हें क्या ही इल्म रहा होगा कि दुनिया उन्हें किसी और नाम से याद करेगी. जब यह सफर शुरू हुआ होगा तब क्या युसूफ साहब को यकीन रहा होगा कि फिल्मों में आने वाली पीढ़ी के नामचीन अभिनेता भी उनकी शैली की नकलें किया करेंगे.

फलों का कारोबार था उनके पिता का. और तब वह फलों के कारोबारी मोहम्मद सरवर खान के बेटे यूसुफ सरवर खान थे. पिता से थोड़ी नोंक-झोंक हुई थी तो अपने पैरों पर खड़े होने युसूफ खान पुणे चले गए थे. कैंटीन में नौकरी कर ली. कैंटीन थी अंगरेजी फौज की कैंटीन में असिस्टेंट की.

बाद में, बंबई लौटकर युसूफ पिता की मदद करने लगे, तकिए भी बेचने का काम शुरू किया. वैसे उनका यह कारोबार फ्लॉप हुआ. किस्मत आखिर उन्हें कई और ले जाने वाली जो थी.

कारोबार के सिलसिले में युसूफ साहब एक दिन दादर जा रहे थे और चर्चगेट रेलवे स्टेशन पर लोकल ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे कि उन्हें उनके एक परिचित डॉ. मसानी 'बॉम्बे टॉकीज' की मालकिन देविका रानी से मिलवाने ले गए.

बॉम्बे टॉकीज की उन दिनों तूती बोलती थी. बेहद सफल प्रोडक्शन हाउस था बॉम्बे टॉकीज.

देविका रानी ने युसूफ से पूछा, उर्दू आती है? युसूफ के हां कहते ही 1250 रुपए की नौकरी का प्रस्ताव देविका रानी ने रख दिया. लेकिन युसूफ झिझक रहे थे. उन्हें लग रहा था कि उनके पास सिनेमा के काम का न तो तजुर्बा है और न ही सिनेमा की समझ. देविका रानी दूरदर्शी थीं और उन्हें एक संभावनाशील स्टार सामने बैठा दिख रहा था.

हालांकि, 1943 में 1250 रूपये की रकम कितनी बड़ी होती थी, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि युसूफ साहब को यह सालाना ऑफर लगा. लेकिन जब उन्हें बताया गया कि यह रकम मासिक है तो यूसुफ साहब ने यह प्रस्ताव मान लिया और एक्टर बन गए.

बॉम्बे टॉकीज में शशिधर मुखर्जी और अशोक कुमार के अलावा दूसरे लोगों के अभिनय की बारीकियां युसूफ सीखने लगे. एक सुबह जब वे स्टुडियो पहुंचे तो उन्हें संदेशा मिला कि देविका रानी ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया है.

इस मुलाकात के बारे में दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "उन्होंने अपनी शानदार अंग्रेजी में कहा- यूसुफ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं. ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो." और इसके बाद देविका रानी ने उनका नाम दिलीप कुमार रखा.

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि यह सुनकर उनकी बोलती बंद हो गई थी और वे नई पहचान के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे.

दिलीप कुमार ने यह भी लिखा है कि देविका रानी ने कहा कि वह फ़िल्मों में मेरा लंबा और कामयाब करियर देख पा रही हैं, ऐसे में स्क्रीन नेम अच्छा रहेगा और इसमें एक सेक्युलर अपील भी होगी.

हालांकि, उस दौर में हिंदू-मुस्लिम कटुता का दौर नहीं था लेकिन यह नाम स्क्रीन के लिहाज से बेहतर था. संभवतया यह ब्रांडिंग से जुड़ा मसला था. लेकिन नाम बदलने के रिवाज पर भले ही लोग धर्म से जोड़कर देख रहे हों लेकिन सचाई यह है कि हिंदू भी अपना स्क्रीन नाम बदलते थे.

असल में, 1943 में ही अशोक कुमार की फिल्म किस्मत सुपरहिट साबित हुई थी. इसे हिंदी फिल्मों के इतिहास का पहला ब्लॉकबस्टर भी कहा जाता है. शायद इसी वजह से देविका रानी के मन में कुमार (जिससे किसी जाति का बोध नहीं होता) सरनेम आया होगा.

बहरहाल, सोच-विचार के बाद और शशिधर मुखर्जी से थोड़ी चर्चा के बाद युसूफ साहब ने नया नाम मंजूर कर लिया. और इसके बाद अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में उनकी पहली फिल्म ज्वार भाटा की शूटिंग शुरू हो गई.

बेशक, ज्वार भाटा चली नहीं. लेकिन फिल्मकारों ने युसूफ जो अब दिलीप कुमार थे की अभिनय क्षमता को भांप लिया. खासकर उनकी संवाद अदायगी में एक अलग रवानगी थी जो उन्हें उस दौर के दूसरे अभिनेताओं के मुकाबले अलग खड़ा करती था.

हालांकि, दिलीप कुमार सिर्फ एक फिल्म मुगल-ए-आजम में मुस्लिम किरदार में नजर आए.

हालांकि, नाम बदलने का चलन सिर्फ दिलीप कुमार के साथ नहीं था. बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज कपूर का असली नाम सृष्टिनाथ कपूर था. बाद में वह रणबीर राज कपूर हो गया और उसके बाद परदे पर सिर्फ राज कपूर रह गया. इसी तरह शमशेर राज कपूर शम्मी कपूर बन गए और बलबीर राज कपूर शशि कपूर हो गए.

धर्मदेव पिशोरीमल आनंद देव आनंद बनकर और वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण गुरुदत्त बनकर परदे पर आए. इसी तरह युधिष्ठिर साहनी ने बलराज साहनी बनना मंजूर कर लिया. आभास कुमार गांगुली ने किशोर कुमार, बलराज दत्त ने सुनील दत्त और कुलभूषण पंडित ने राज कुमार जैसे स्क्रीन नाम अपनाए.

जो भी हो, युसूफ सरवर खान की तरह याद करें या दिलीप कुमार की तरह, इस अभिनेता की छवि आज हम अमिताभ और शाहरुख खान की अदाओं में देख सकते हैं.

जब भी सिनेमा के इतिहास की चर्चा होगी, चाहे मुगल-ए-आजम हो या सौदागर, सगीना महतो हो या गंगा-जमुना, विधाता हो या मशाल, लोग आह भरकर दिलीप साहब के परफॉर्मेंस को रेफरेंस पॉइन्ट की तरह देखेंगे.