ड्रॉप आउट मेवाती लड़कियों के लिए रोल मॉडल हैं राहिला बानो

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 05-02-2021
राहिला बानो हाथों में मशाल लेकर एक खेल प्रतियोगिता का शुभारंभ करती हुईं.
राहिला बानो हाथों में मशाल लेकर एक खेल प्रतियोगिता का शुभारंभ करती हुईं.

 

 

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

"यह 2006 की बात है, तब मैं फ्लैक्सट्रोनिक्स साफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी.  हमारा परिवार हर साल की तरह मेवात के नगीना खंड के गांव साठावाड़ी में उर्स (धार्मिक मेले) में गया था. तब मेरी मुलाकात गरीब परिवार की एक लड़की शहनाज से हुई, जो पढ़ना चाहती थी.  परंतु उनके अब्बा जी एक धार्मिक गुरु (हाफिज साहब) थे, जो अपनी लड़की को आठवीं के बाद नहीं पढ़ाना चाहते थे.  मुझसे उस बच्ची ने पढ़ाई जारी रखने और उच्च शिक्षा लेने की इच्छा जताई.  उसने कहा कि मैं पढ़ना चाहती हूं, परंतु अब्बा जी मना कर रहे हैं.  मैंने लड़की के परिवार वालों को समझाया.

 परिवार वालों का कहना था कि अगर यह लड़की ज्यादा पढ़-लिख गई, तो उसके लिए उच्च शिक्षित लड़के ढूंढ़ने पड़ेंगे, जिनका रिश्ता करना हमारे बस की बात नहीं, क्योंकि जितना पढ़ा-लिखा लड़का ढूंढो, उतनी ही उसकी कीमत लगानी पड़ती है.

 

 मैंने उनको बहुत ही सरल अंदाज में इस्लामिक तरीके से समझाया.  मैंने लड़की के अब्बा जी से एक बात पूछी कि आप ये बताओ, इस्लाम में कहते हैं कि जोड़ियां तो आसमानों में बनती हैं, आप इस पर कितना यकीन करते हैं.  इस पर लड़की के अब्बा जी बोले, जी, ये बात तो 10 0फीसद सही है.  फिर काफी जद्दोजहद के बाद लड़की के अब्बा जी मान गये.  आज वह लड़की बीए और जेबीटी की शिक्षा ग्रहण करने के बाद राजस्थान में प्राइमरी अध्यापक है." यह कहना है राहिला बानो का, जो राजस्थान के सूखा और रेगिस्तानी मिजाज वाले मुस्लिम बहुल मेवात जैसे पिछड़े इलाके में ऐसी बच्चियों और उनके परिजनों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करती हैं.

14-15 साल की उम्र में लड़कियों की शादियां

मेवात के मुस्लिम समाज में पांचवीं या आठवीं तक की शिक्षा के बाद बच्चियों का स्कूल छुड़वा देना आम रिवाज है. राहिला बानो मुस्लिम समाज की ऐसी ड्राप आउट बच्चियों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए आईकॉन बन गई हैं. राहिला के मन में मुस्लिम बच्चियों की शिक्षा के लिए टीस किस तरह पैदा हुई. इसके जवाब में वे कहती हैं कि वे इस कुरीति की खुद शिकार बनते-बनते बचीं.  

दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम से सेवानिवृत्त पिता चौ. असगर हुसैन और निरक्षर माता जुबेना खातून की संतान राहिला ने बताया, "मेरी प्रारंभिक शिक्षा व परवरिश मेवात के ठेठ देहाती पैतृक गांव पचानका, तहसील-हथीन के एक साधारण किसान परिवार में हुई, जहां पर ठेठ जमीदारा, घरों में गाय-बछड़ों व भैंसों के साथ खेलना, लहराती फसलों के बीच रहना, इन सबके साथ मेरा बचपन बीता. पांचवीं कक्षा तक मैं गांव में रही."

वे बताती हैं कि उसके बाद उनके अब्बा जी की फरीदाबाद में नौकरी होने के कारण वे परिवार सहित फरीदाबाद शिफ्ट हो गईं. उन्होंने कहा कि मेवात में लड़की थोड़ी सी बड़ी हुई नहीं कि मां-बाप, समाज और रिश्तेदारों को उसकी शादी की फिक्र शुरू हो जाती है. मेवात में उस समय अमूमन 14-15 साल की उम्र में लड़कियों की शादी कर दिया करते थे. जैसे-तैसे वे आठवीं-नवीं कक्षा में पहुंची, तो घर में शादी-बयाह की चर्चा जोर पकड़ने लगी.  

कद-काठी देख बोले इसका ब्याह कर दो

उन्होंने बताया कि स्कूल में जब वे अपने टीचर से बातें करतीं, तो वे उनसे पूछा करती थीं कि बेटा बड़ी होकर क्या बनोगी. सहेलियों से चर्चा में कैरियर की बातें होती थी, परन्तु स्कूल से जब वे अपने घर वापस आकर लौटतीं, तो वही शादी-ब्याह की चर्चा होती, क्योंकि उनकी कद-काठी हमउम्र की लड़कियों से ज्यादा थी. उन्होंने कहा, "इसलिए सारा परिवार, घर-कुनबा, गांव वाले, रिश्तेदार, जान-पहचान वाले कहने लगे असगर साहब (अब्बा जी) लड़की सयानी हो गई है. अब रिश्ता वगैरह ढूंढो और लड़की की शादी करो."

वे याद करते हुए कहती हैं कि जल्दी शादी हो जाने के डर ने उन्हें और ज्यादा पढ़ने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि उन्हें अपने अब्बा जी पर इतना विश्वास था कि जब तक वे पढ़ाई जारी रखेंगी, तब तक उनकी शादी नहीं करेंगे. इसलिए कुछ पढ़ने की, कुछ बनने की ललक ने उन्होंने अपने कैरियर पर फोकस किया, जिससे वे पढ़ भी जाएं और उनके परिवार वाले भी इसके लिए राजी हो जाए. क्योंकि शादी के लिए सामाजिक दबाव मां-बाप पर होता ही है.  

मंजिल दूर थी

इसी दौरान उनके अब्बा जी के पारिवारिक मित्र जाकिर हुसैन साहब का उनके घर पर आना-जाना रहता था, जो उस वक्त पॉलिटेक्निक में लेक्चरर थे. उन्होंने उन्हें डिप्लोमा करने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज फार वीमैन, फरीदाबाद उनके घर से कुछ ही दूरी पर था. इसलिए इस कॉलेज में एडमिशन के लिये मां-बाप को रजामंद करना आसान था.  

फिर तो उन्होंने ठान लिया कि हर हाल में उन्हें गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज में एडमिशन लेना है. उन्होंने इस कॉलेज के लिए अब्बा जी को राजी कर लिया. उन्होंने दिन-रात एडमिशन टेस्ट की तैयारी की.  वे अपने मकसद में न केवल कामयाब हुईं, बल्कि उस वक्त की इंजिनीरिंग की सबसे टॉप ब्रांच इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में एडमिशन लिया. जाकिर हुसैन साहब ने डिप्लोमा करने के लिए प्रोसाहित किया और आज वे और जाकिर साहब दोनों एक ही डिपार्टमेंट में लेक्चरर हैं.  

राहिला कहती हैं, "अभी मेरी मंजिल बहुत दूर थी. मुझे आगे भी पढ़ना था. अब मुझे डिप्लोमा के बाद क्या करना है, जिससे घर परिवार वाले भी राजी हो जाए और मेरी पढ़ाई आगे भी जारी रहे.  जब मैं डिप्लोमा कर रही थी. मैंने पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भाग लेना शुरू कर दिया, क्योंकि मैं स्कूल लेवल से ही खेलों में टॉप रही थी और उसके बाद अपने कॉलेजइंटर कॉलेज, स्टेट लेवल पर खेलों में हमेशा अव्वल रही."

यू निक्कर पहने है, शादी करो, नहीं तो सामाजिक बहिष्कार

उन्होंने बताया, "अखबारों में खेलों के दौरान ली गयी फोटो सहित मेरा नाम आने लगा. मैं शॉट पहनकर खेलती थी. अखबार में मेरी फोटो देखकर हमारे समाज के लोग शाबासी या मुबारकबाद देने की बजाय आगबबूला हो जाते और मेरा अब्बाजी से कहते- असगर साहब, यू चौखी बात ना है, तेरी जवान छोरी है, निक्कर पहननो हमारे समाज में अच्छी बात ना है. याकी शादी-ब्याह कर दो, नहीं तो हम आपका सामाजिक बहिष्कार करेंगे. इसलिए समाज वालो और गांव वालों का मेरे माता-पिता पर शादी के मानसिक दबाव बढ़ने लगा."

शादी के डर से इंजीनियरिंग कॉलेज में लिया दाखिला

इसी दौरान वाईएमसीए इंजीनियरिंग कॉलेज के उस वक्त के डायरेक्टर डॉ. अशोक अरोड़ा का वीमैन पॉलिटेक्निक कॉलेज में खेलों के प्रोग्राम में चीफ गेस्ट बनकर आना हुआ. उन्हें जब पता चला कि पिछड़े इलाके मेवात की एक लड़की पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी अव्वल है, तो उन्होंने राहिला को बुलाकर पूछा, बेटा, आगे क्या बनना चाहोगी, तो राहिला बोलीं कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ पढ़ना है, तो उन्होंने उन्हें वाईएमसीए कॉलेज के बारे में बताया. तब राहिला ने ठान लिया था कि उन्हें हर हालात में वाईएमसीए इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेना है.  

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तत्कालीन उपायुक्त जी. अनुपमा राहिला बानो को सम्मानित करती हुईं. 


राहिला कहती हैं, "अब मेरे सामने अब दो विकल्प थे, अगर एडमिशन नहीं हुआ, तो शादी हो जाएगी, जो मैं किसी भी हाल में नहीं करना चाहती थी, जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ी ना हो जाऊं.  इसके लिए मेरे सामने दो सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियां भी थी.  पहली, उस वक्त के हरियाणा के दूसरे सबसे टॉप इंजीनियरिंग कॉलेज वाईएमसीए में एडमिशन लेना, क्योंकि मेरे अम्मी-अब्बा जी सिर्फ और सिर्फ वाईएमसीए इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए ही राजी हो सकते थे, क्योंकि यह कॉलेज भी मेरे घर से कुछ ही दूरी पर था.  दूसरी चुनौती, उस वक्त की सबसे टॉप ब्रांच कंप्यूटर साइंस में एडमिशन लेना, क्योंकि मेरे डिप्लोमा में आईटी ब्रांच में थी."

सामाजिक दबाव में खेल छोड़ने पड़े

"अब मैंने घर में मां के साथ कामकाज में हाथ बंटाना, घर में बहन-भाइयों में सबसे बड़ी होने की वजह से उनके स्कूल के होमवर्क की जिम्मेदारी, खेलों में टूर्नामेन्ट के तैयारी, साथ-साथ अपने डिप्लोमा के फाइनल एग्जाम की तैयारी के साथ मुझे वाईएमसीए कंप्यूटर ब्रांच में हर हालात में एडमिशन लेना था. अब मैंने दिन-रात एक करके अपने मुकाम को एक बार फिर हासिल किया.  इस तरह शादी जल्दी न हो जाने के डर और कुछ बनने की ललक के कारण उन्होंने वाईएमसीए कॉलेज में एडिमिशन ले लिया. वाईएमसीए में एडमिशन की खुशी तो थी, परन्तु परिवार वालों पर खेलों में भाग न लेने के लिये समाजिक दबाव के कारण मुझे खेलों को अलविदा कहना पड़ा." वे थोड़े भारी मन से बताती हैं.  

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एक स्पर्धा में भाग लेती हुई राहिला बानो 


उन्होंने बताया कि वाईएमसी के बाद एमएनसी कंपनी फ्लैक्सट्रोनिक्स सॉफ्टवेयर सिस्टम में इंटर्नशिप के बाद ही नौकरी लग गईं. कुछ महीने जॉब करने के बाद उन्हें लगा कि यह उनकी मंजिल नहीं है.  इसलिए उन्होंने वहां से रिजाइन दे दिया और धौज के अल-फलाह इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर बन गईं. यहां पर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी, तो उन्होंने उटावड़ के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज सोसायटी में लेक्चरर की नौकरी ज्वाइन कर ली.

राहिला ने अपने सफर में डिप्लोमा इन इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी और एम. टेक इन कंप्यूटर साइंस किया. वे इस समय कंप्यूटर साइंस में पीएचडी कर रही हैं और उन्हें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरेबिक और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है.  

बच्चियों पर गृह और कृषि कार्यों का बोझ

मेवात में बच्चियों के क्या हालात हैं.  इस पर वे बताती हैं कि उन्होंने अपने और अन्य लड़कियों के हालात बचपन से देखे हैं और उनकी पीड़ा को अपने दिल में महसूस किया है. कम उम्र में ही लड़कियों को अपने से छोटे बहन-भाइयों को संभालने की जिम्मेदारी दे दी जाती है. उन्होंने कहा, "मैंने छोटी-छोटी लड़कियों को पशुओं के रख-रखाव के साथ उनकी सानी (भैसों के लिये चारा डालना),

उन्हें नहलाने से लेकर दूध निकालने तक और उसके बाद गोबर से उपले थापने, अपने जंगल (खेतो) से उनके लिए चारा लाने और चूल्हे की लकड़ी लाने आदि काम करते हुए देखा है. मैंने छोटी-छोटी लड़कियों को 44 डिग्री से 48 डिग्री तक के तापमान की टीकाटीक दोपहरी में लावणी (गेहूं काटते) करते देखा है. मैंने उन्हें चूल्हे पर रोटी बनाते हुये देखा है."

खास दिनों में उनका बुरा हाल

उन्होंने बताया, "मैंने गांवों में लड़कियों को पीरियड के दौरान बिना पैड के रहते हुए देखा है. अगर कुछ लड़कियां कुछ करती भी हैं, तो ज्यादातर कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. उसी कपड़े को फिर से धोकर इस्तेमाल करते हुए देखा है. मैंने लड़कियों को कच्ची उम्र में ही बिना उनसे पूछे और बिना उनकी मर्जी के शादी होते हुए देखा है. मैंने लड़कियों की बचपन में लड़कियों के बचपन को मरते हुए देखा है."

इन लड़कियों की जिंदगी संवर गई

कितनी ड्राप आउट बच्चियों को स्कूल तक पहुंचाया इस बारे में वे कहती हैं, "मैं ठीक संख्या तो नहीं जानती, परंतु एक अनुमानित लगभग हजार से ऊपर ड्रॉपआउट लड़कियों को मैंने स्कूल तक पहुंचाया.  बाकी उन लड़कियों की संख्या भी मेवात में हजारों में हैं, जिन्होंने मुझे रोल मॉडल माना या फिर मेरी वजह से जिनके मां-बाप को लड़की को पढ़ाने की प्रेरणा मिली. काफी लड़कियों को मैने अपने कॉलेज में डिप्लोमा के लिए प्रेरित किया और उन्होंने एडमिशन लिया, इनकी संख्या भी सैकड़ों में है. मेरा यह अभियान 2006 में शुरू हो गया था.

फिर 2008 में माइनिंग व्यवासायी अमीनुद्दीन उर्फ मोइन खान से शादी हुई और दो बच्चे भी हुए. यह सब जारी रहा. लेकिन सही मायनों में ड्रॉपआउट लड़कियों को स्कूल पहुंचाने की शुरुआत मेरे उटावड़ पॉलिटेक्निक कॉलेज में ज्वाइन करने के बाद हुई. मेरे पास मेरे कॉलेज के नजदीक कोट गांव के सरकारी स्कूल के कुछ अध्यापक कॉलेज में कुछ काम से आए थे. उनसे मेरी मेवात में लड़कियों की शिक्षा के बारे में बातचीत हुई. उन अध्यापकों ने लड़कियों के बारे में बताया कि लड़कियां पढ़ने तो आती हैं, परन्तु पांचवीं, छठी के बाद लड़की के मां-बाप स्कूल नहीं भेजते हैं.

उनसे घर का काम-काज करवाते हैं.  उनको आगे नहीं पढ़ाते हैं, तो मैंने उनको एक निश्चित टाइम पर उन ड्रॉप आउट लड़कियों के माता-पिता को बुलाने को कहा. फिर मैं कोट गांव में सरकारी स्कूल के उस मुकर्रर प्रोग्राम में (लगभग मई 2008 में) गई. इस प्रोग्राम में 50-60 ड्रापआउट लड़कियों के मां-बाप मिले. विस्तार से उनको, उन्हीं की भाषा में समझाया. अधिकतर पैरेंट्स मेरी बातों से सहमत थे.  मेरे अंदर भी एक कॉन्फिडेंस आया और मुझे भी लगा कि अगर इनको इनके ही तरीके से समझाया जाये, तो ये लोग समझ सकते हैं. बस यहीं से ही मेरी शुरूआत हुई."

ड्रॉपआउट बच्चियों की उपलब्धियां

एक सवाल के जवाब में वे बताती हैं, ”काफी लड़कियां मुझसे प्रेरित होकर पढ़ीं और बहुत सारी लड़कियों ने पोस्ट ग्रेजुएशन तक किया. आज अपना कैरियर बनाया. इनकी संख्या वैसे तो सैकड़ों में है.  परंतु जिन कुछ लड़कियों के नाम मुझे याद हैं, उनके बारे में मैं आपको बता देती हूं.  जब मैंने फरवरी, 2007 में अलफलाह कॉलेज, धौज में ज्वाइन किया, तो वहां पर नूंह से नफीस नाम का एक लड़का मेरे पास एडमिशन के लिए आया. तो बात ही बातों में मुझे पता चला कि उसकी बहन ने भी 12वीं नॉन मेडिकल से की है, तो मैंने उसकी बहन से बात की, जो इंजीनियरिंग करना चाहती थी.  फिर मैंने उसके मां-बाप को भी एडमिशन के लिए राजी किया और उसे इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन में एडमिशन दिलाया.  बाद में उसने एम.टेक भी किया.  

उन्होंने बताया कि इसके अलावा उनकी काउंसिलिंग के बाद कोट गांव की हीबा पुत्री अख्तर अली ने एमएससी जूलॉजी, साठावाड़ी की शहनाज पुत्री एक हाफिज (धार्मिक गुरु) ने बीए और जेबीटी की और फिलहाल राजस्थान में कार्यरत है.

 इसी तररह मामोलका की रूमा ने बीए, मामोलका की ही अजरा पुत्री शमशाद ने बीएससी बॉयोटैक, पचानका की अंजुम पुत्री जफरुद्दीन ने जेबीटी, मालूका की राबिया पुत्री ईशाक ने डी. फार्मा, रजपुरा की अरशीदा ने जेबीटी, पुन्हाना की कहकशां ने एम.टेक, नूह की फरहीन पुत्री खलील अहमद ने एम.टेक, डूंगरपुर की रसमीना ने डिप्लोमा इन मेडिकल लैब टेक्नोलॉजी तक शिक्षा ग्रहण की.

 मैंने पूरे मेवात के नूंह, हथीन, पुन्हाना, फिरोजपुर झिरका, पलवल में और जहां-जहां भी मेव कम्युनिटी के गांव हैं, वहां पर एजुकेशनल मोटिवेशनल प्रोग्राम किए, परंतु ज्यादा फोकस मेरा उटावड़ पॉलिटेक्निक कॉलेज के आठ-दस किलोमीटर के दायरे में रहा.  कुछ गांवों के नाम मैं आपको बताती हूं पचानका, गोहपुर, खल्लूका, गुराकसर, मोहदमक्का, रूपड़ाका, कोट उटावड़, शिकरावा टोंका, घुड़ावली इत्यादि हैं.  

स्कूल जाएगी, तो भाग जाएगी

मोटिवेशन में मेवाती पैरेंट्स किस तरह की दलीलें देते हैं या बहाने बनाते हैं और उन्हें मोटिवेट करना कितना मुश्किल है. इस बारे में उन्होंने बताया, "बहाना कहो, मजबूरी कहो या फिर परिस्थितियां, जिनमें वे लोग रहते हैं. ज्यादातर मां-बाप तो बहाना ही बनाते हैं, परंतु ऐसा भी नहीं है कि सभी बच्चों के मां-बाप पढ़ाई को लेकर संजीदा नहीं है.  ज्यादातर मां-बाप कहते थे कि लड़की तो पराया धन है.  इसे पढ़ाकर क्या फायदा.  जितना पैसा इनकी पढ़ाई में लगेगा, उतने में तो इसकी शादी हो जाएगी. कुछ कहते थे कि लड़की ज्यादा पढ़-लिख गई, तो लड़का भी उससे ज्यादा पढ़ा-लिखा ढूंढना पड़ेगा और जितना पढ़ा-लिखा लड़का ढूंढोगे, उतना ही ज्यादा उसकी शादी में खर्च करना पड़ेगा.

कुछ कहते थे कि बेटा यह एक आध-दिन स्कूल जाएगी. फिर किसी के साथ भाग जाएगी. उनकी मानसिकता यह थी कि जो लड़की स्कूल जाती है, वह अपनी मर्जी से भागकर शादी कर लेती है. कई बार बेहद मुश्किल भी होता है उनको समझाना.

 कुछ माता-पिता का कहना था कि अगर लड़की पढ़ने जाएगी, तो अपने मां के साथ कामकाज में हाथ कौन बटाएगा. छोटे बहन-भाईयों का रखरखाव कौन करेगा आदि. मैं आपसे फिर एक बार कहना चाहती हूं कि ऐसा नहीं है कि हर मां-बाप लड़की को न पढ़ाने के लिये बहाने बनाता है.  दहेज भी हमारे समाज का एक कड़वा सच है.  ये भी सच है कि जितनी लड़की पढ़ी-लिखी होती है, उसी हिसाब से लड़का ढूंढना पड़ता है और जितना लड़का पढा-लिखा होगा, उतनी उसकी कीमत भी होगी. मैं नही कहती कि हर लड़के के मां-बाप दहेज के लालची हैं, परन्तु ज्यादातर तो समाज में ऐसा ही है."

कभी सिर से दुपट्टा नहीं हटाया

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राहिला बानो 


मोटिवेशन के तरीके बारे में थोड़ा खुलकर बताते हुए वे कहती हैं, "मैं हमेशा मोटिवेशन के दौरान उनके ही ठेठ अंदाज, ठेठ मेवाती में और उनके ही तरीके से समझाती थी, जिससे उनपर बहुत असर पड़ता था.  मैं उनको इस्लाम में बताई गई पढ़ाई की अहमियत के बारे में भी बताती हूं.  मैं हमेशा कहती हूं कि मैं भी तो आपकी बहन-बेटी हूं.  जब मैं पढ़-लिखकर यहां तक पहुंच सकती हूं, तो और लड़कियां क्यों नहीं यहां तक पहुंच सकतीं? पढ़ाई-लिखाई लड़की को बिगाडती नहीं है, बल्कि उसे तमीज-तहजीब के साथ-साथ अच्छे-बुरे का फैसला लेना सिखाती है कि उसके क्या हक और हकूक हैं.

 एक बच्चे का पहला मदरसा उसकी मां होती है. जैसी मां होगी, वैसी ही अपने बच्चे की तरबियत करेगी. मां का बच्चे की जिन्दगी में बहुत बड़ा रोल होता है.  हमारे मेवात में अक्सर मां-आदतन गाली देती हैं, क्योंकि वे तालीमयाफ्ता नहीं हैं. उसे नहीं पता चल पाता कि वो बच्चों को क्या सिखा रही हैं. अगर मां तालीमयाफ्ता है, तो उसे तमीज-तहजीब का भी इल्म होगा. एक लड़की तालीमयाफ्ता है, तो वह दो घरों को संवारती है, अपना मायका और अपना ससुराल. अगर एक आदमी तालीमयाफ्ता है, तो सिर्फ और सिर्फ एक घर ही संवारता है.

पढ़ी-लिखी लड़की भाग कर शादी करेगी.  इस बारे में मैं उनसे कहती कि मैं भी पढ़ी-लिखी हूं, मुझमें किसी भी तरीके की कमी है? आप लोग चारा लेने लड़की को जंगल (खेतों) में भेज देते हो, वहां कोई नहीं देख रहा, जब वहां लड़कियां नहीं बिगड़ रहीं, तो स्कूल के बीच में आपकी लड़की कैसे बिगड़ सकती है. एक बात आपको बताना चाहती हूं कि मैंने कभी भी अपने सिर से दुपट्टा नहीं हटाया, उनकी जैसी बोली, उनका जैसा अंदाज रहा, यही कारण है अधिकतर मां-बाप राजी हो जाते थे.  ज्यादातर पेरेंट्स मान जाते थे, परंतु कुछ ऐसे भी थे, जो नहीं मान पाये, उसका मुख्य कारण दहेज था."