भारत के नजरिए से मुहर्रम, कर्बला और इमाम हुसैन को देखने की क्यों है जरूरत

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 20-08-2021
भारत के नजरिए से मुहर्रम, कर्बला और इमाम हुसैन को देखने की क्यों है जरूरत
भारत के नजरिए से मुहर्रम, कर्बला और इमाम हुसैन को देखने की क्यों है जरूरत

 

jugnooमो. जबिहुल कमर “जुगनू”

मुहर्रम का महीना इस्लाम में कई मायनों में अहम है, क्योंकि इससे कई इस्लामिक पहलू जुड़े हैं. इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत इसी महीने से होती हैण् यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि मुहर्रम का महीना प्रवास (हिजरत) से जुड़ा है. इस्लामी शब्दों में, प्रवास (हिजरत) का अर्थ है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने गृहनगर को छोड़कर मदीना चले गए.
 
  मक्का में उन्हें इस्लाम की शिक्षा का प्रचार करने में कठिनाई हो रही थी. माइग्रेशन (हिजरत) के कई संदेश हो सकते हैं. क्योंकि जब आप माइग्रेट करते हैं तो आपका दिल परेशान हो जाता है. एक परिचित क्षेत्र की यादें सताती हैं, लेकिन प्रवासी एक उद्देश्य के लिए अपनी मातृभूमि छोड़ देता है. एक मिशन के लिए अपनी जान जोखिम में डालता है. प्रवास हमें यह संदेश देता है कि हमें अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए यात्रा करनी चाहिए. अच्छाई का प्रचार करने के लिए दूर-दूर तक यात्रा करनी चाहिए. 
 
हजरत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्रवास (हिजरत) से पहले भी मुहर्रम का महीना कई इस्लामी इतिहास से जुड़ा है. इनमे से कुछ बिन्दु निम्न हैः- 
 
1. इस्लामिक आस्था के अनुसार ब्रह्मांड की रचना इसी महीने में हुई थी 
2. हजरत आदम का जन्म इसी महिना मे हुआ था. उनका पश्चाताप भी स्वीकार इसी माह में किया गया 
3. हजरत नूह की कश्ती (नाव) की कहानी इसी माह से जुड़ी है 
4. सैयदना यूनुस को एक मछली के पेट से मुक्ति मिली 
5. फिरौन नील नदी में डूब गया और हजरत मूसा  को विजय प्राप्त हुआ 
 
इस महीने मे पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से कुछ साल पहले अब्राह (बादशाह) बैतुल्लाह (मक्का) पर हमला करने के इरादे से आया, तो अल्लाह ने अबाबील की एक सेना भेजी और उसे नष्ट कर दिया.लेकिन सोचने का एक पहलू यह है कि हमने मुहर्रम को केवल इमाम हुसैन के इतिहास से जोड़ दिया है. जबकि हजरत हुसैन रजीअल्लाह की शहादत से पहले भी यह महीना महत्तवपूर्ण रहा है.
 
इसलिए हमें इस महीने के महत्व को व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है. हमें शहादत हुसैन से भी सीखना चाहिए. सच्चाई को बढ़ावा देने के लिए खुद शहीद हो गए. वह नहीं झुके. हुसैन की शहादत का आधुनिक सबक यह है कि हमें हमेशा हजरत हुसैन की तरह सच्चाई का साथ देना चाहिए. प्रवास की घटना से हमे सीखने की जरूरत है कि मिशन को बढ़ावा देने के लिए हम अस्थायी रूप से स्थान बदल सकते हैं. हम अपनी शैली और दृष्टिकोण बदल सकते हैं, लेकिन मिशन को छोड़ना बुद्धिमानी नहीं. इसलिए हमें मुहर्रम के इतिहास को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है.
 
रमजान का रोजा अनिवार्य होने से पहले रमजान के दसवें दिन का रोजा रखना अनिवार्य था.इसका इतिहास यह है कि जब मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना प्रवास करके आए, तो उन्होंने देखा कि यहूदी हजरत मूसा की याद में उपवास कर रहे थे. उनका मानना था कि वे उसी तारीख को फिरौन के अत्याचार से बचाए गए थे.
 
यहूदियों के इस कृत्य के बारे में सोचने के बाद, पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, ‘‘हम मूसा के करीब हैं.‘‘ इसलिए हमें दो रोजे रखना चाहिए, नौ और दस या दस या ग्यारह मुहर्रम के रोजे.मुहर्रम के मौके पर जब हमने देश के कई विद्वानों व बुद्धिजियों  से बात की तो उन्होंने मुहर्रम का संदेश इस प्रकार दियाः
 
 
इस्लामी  स्कॉलर और इंटरनेशनल कुरआन रिसर्च एकेडमी दिल्ली के निदेशक मौलाना अबरार अहमद मक्की कहते हैं. मुहर्रम के महीने से इस्लाम का गहरा सम्बंध हैं. इस संबंध को संक्षेप में तीन प्रकार सामने रख सकते हैं.  
एक, यह है कि इस पवित्र महीने मैं हजरत मुहम्मद स0  ने मक्का से मदीना हिजरत की. 
 
दूसरा, मुहर्रम की दस तारीख को इस्लामी इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. इस दिन हजरत मूसा को फिरोन से आजादी  मिली .जब हजरत मुहम्मद मक्का से मदीना आए तो देखा कि यहूदी दस मुहर्रम को रोजा यानी उपवास रखते हैं. उनको देख कर हजरत मुहम्मद सलल्लाह अलैहे व सल्लम  ने कहा कि मुसलामानों तुम दो रोजे रखो. 
 
इस महीने की तीसरा बड़ा मह्त्वपूर्ण बिंदु हजरत हुसैन की शहादत है.  इस तरह दिखने से मालूम होता है कि उपरोक्त तीनों बिन्दुओं से हम बहुत से संदेश हासिल कर सकते है. हजरत हुसैन ने सच्चाई की खातिर अपनी जान तक कुर्बान कर दी . इसलिए सच्चाई को विकसित करने के लिए हर संभव कार्य करना चाहिए.
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शेख अकील अहमद, निदेशक, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद, नई दिल्ली सह प्रोफेसर, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, कहते हैंः आतंकवाद का बाजार आज भी गर्म है. कल भी गर्म था. एक तरह से इमाम हुसैन ने आतंक से लड़ाई लड़ी. भारत और इमाम हुसैन के सन्दर्भ में कहा जाता कि जब यजीद की सेना ने इमाम हुसैन को घेर लिया तो उन्होंने कहा, ‘‘मुझे भारत जाने दो.‘‘ इससे हमारे देश का महत्व बढ़ जाता है.
 
अर्थात इमाम हुसैन ने संकट की दुनिया में शांति के उद्गम स्थल भारत में आने का इरादा व्यक्त किया. हदीस की किताबों में मिलता है कि ‘‘रब्बानी खुशबू‘‘ का मुद्दा भारत से जुड़ा है. शायद इमाम हुसैन को भी वही दिव्य सुगंध महसूस हुई. इसलिए मुहर्रम का महीना भारतीय संदर्भ में भी महत्वपूर्ण हो जाता है.
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आल इंडिया  इमाम  कॉंसिल के अध्यक्ष मौलाना उमैर इलियासी ने कहा कि पूरी- पूरी किताब मुहर्रम के इस्लामी महत्व के संदर्भ में लिखी गई है, इसलिए अब हमें मुहर्रम को वर्तमान भारत के संदर्भ में देखना चाहिए. भारत में ताजिया का दृश्य विश्व में अद्वितीय है. इस विशिष्टता को हम भारतीय सभ्यता के सन्दर्भ में देख सकते हैं. ऐसा लगता है कि भारत भी इस मायने में अद्वितीय है कि मुहर्रम संस्कृति भारत की शान को बढ़ाती है.
 
मौलाना इलियासी का कहना है कि इस संस्कृति को बचाने और सच्चाई का संदेश फैलाने के लिए हिंदू और मुस्लिम दोनों को एक साथ आना चाहिए. जब धार्मिक पहचान को सांस्कृतिक मुद्दों से जोड़ा जाता है, तो पूरे देश को उस सभ्यता को बचाना चाहिए.  एक सभ्यता उस समय और भी खूबसूरत हो जाती है जब उसे धार्मिक मामलों से जोड़ा जाता है. इसलिए देश के लोगों को वैश्वीकरण के दौर में अपनी सभ्यता को बचाना होगा.
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जाने-माने आलोचक, प्रसिद्ध सहित्य कार और सायंस एव कॉमर्स कॉलेज पटना , उर्दू विभाग  के अध्यक्ष प्रोफेसर सफदर इमाम कादरी कहते हैंः मुहर्रम हमें सिखाता है कि सच्चाई का समर्थन करते हुए हमें अपने समाज को आकार देना चाहिए. जिस समाज में सच्चाई होगी, उस समाज में शांति होगी. सत्य के बिना शांति नहीं.
 
इस्लामी इतिहास में मुहर्रम का बहुत महत्व रहा है, लेकिन इस मौके पर मुसलमान खुद अलग-अलग गुटों में नजर आते हैं. इससे अच्छा संदेश नहीं जाता है. इसके लिए जरूरी है कि हम मुहर्रम का सम्मान करें और पूरी दुनिया को एकता और सच्चाई का संदेश दें. 
मुहर्रम का इतिहास और विद्वानों के शब्दों से पता चलता है कि हमें न केवल मुहर्रम में शोक मनाना चाहिए बल्कि साल के अंत और नए साल की शुरुआत के अवसर पर अपने जिंदगी के प्रति गौर फिक्र भी करना चाहिए.