अफ़ग़ानिस्ताननामाः जब अफगानिस्तान कोई मुल्क नहीं था

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 07-09-2021
काफिले आते गए और अफगानिस्तान बनता गया
काफिले आते गए और अफगानिस्तान बनता गया

 

अफ़ग़ानिस्ताननामा । हरजिंदर 

अल्लामा इकबाल ने भारतीय सभ्यता के बारे में लिखा है- ‘काफिले आते गए, हिंदोस्तां बनता गया‘. अगर हम अफगानिस्तान के अतीत की यात्रा करें तो उसका सच भी कुछ ऐसा ही है. बल्कि अफगानिस्तान तो सचमुच में ही काफिलों का देश था.

आज जिसे हम अफगानिस्तान कहते हैं सदियों से एशिया के सभी व्यापारिक मार्ग वहीं से गुजरते थे. ईरान जाना हो या ईराक या फिर पश्चिम एशिया आप अफगानिस्तान से गुजर कर ही कहीं पंहुचा सकते थे. और आगे यूरोप जाने आने के लिए भी यही रास्ता था. बहुत सारे इतिहासकारों ने प्राचीन अफगानिस्तान को इन्हीं काफिलों के रास्ते में विकसित हुई एक सभ्यता माना है.

लेकिन पुरातत्व वालों ने जो सबूत जुटाए हैं वे मध्य एशिया के इस मुल्क की इसके अलावा भी एक और कहानी कहते हैं. अगर हम दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान के जारंज शहर के पास जाएं तो वहां उत्खनन में एक ऐसा किला मिला है जो लौह युग का बताया जाता है. इसी तरह  सिस्तान में दर्जनों ऐसी बस्तियां मिली हैं जो तांब्र युग और लौह युग की मानी जाती हैं. जहां की मिट्टी दुनिया के सबसे रसीले फल उपजती हो और कुदरत ने जहां जीवन की सभी सुविधााएं दी हों वहां मानव सभ्यता तो विकसित होनी ही थी. लेकिन उन सभ्यताओं का आज के अफगानिस्तान से क्या रिश्ता है यह हम ठीक से नहीं जानते.

आज का अफगानिस्तान कैसे शुरू हुआ इसके बारे में एक कहानी है. कहा जाता है कि आज जो पश्तून हैं वे दरअसल हजरत अफगान के वंशज हैं. यानी अफगानिस्तान दरअसल हजरत अफगान ने ही बसाया. कहानी यह भी है कि इस इलाके में कभी जिन्न रहते थे. हजरत अफगान ने अपने पिता से जिन्नों की भाषा सीखी और यही भाषा अब पश्तो कहलाती है.

अतीत की ऐसी धारणाएं दिलचस्प तो होती हैं लेकिन उसके लिए कोई सबूत नहीं दिया जा सकता. अलबत्ता भाषा वैज्ञानिक यह मानते हैं कि पश्तो भाषाओं के इंडो-यूरोपियन परिवार से ही उपजी है. कुछ लोग इसे ईस्टर्न इरानियन भाषा भी मानते हैं. इस सब से यह तो समझ में आता ही है कि अफगानिस्तान की सभ्यता और भाषा अपने आस-पास के प्रभावों के बीच ही उपजी और विकसित हुई है.

ज्ञात इतिहास में अफगानिस्तान की कहानी जब शुरू होती है तो वहां अफगानिस्तान था ही नहीं. मध्य एशिया के इस इलाके में जो देश था उसका नाम था बैक्ट्रिया. बैक्ट्रिया का जिक्र यहूदियों के ग्रंथ अवेस्ता में भी आता है जहां इसे एक खूबसूरत जगह बताया गया है. यह भी कहा जाता है कि कभी यह यहूदियों की धरती थी और यहां ईरान के केनियन साम्राज्य का शासन चलता था. बाद में यहां ईरान के ही एकेमेडिन साम्राज्य के सूबेदार शासन चलाते रहे.

afghanistan

जब यूरोप के मैकडोनियन साम्राज्य ने हमला बोला तो इसी बैक्ट्रिया के मैदानों पर ईरान ने उसे टक्कर दी. यह ईसा पूर्व चैथी सदी की बात है जब ईरान की फौज टिक नहीं सकी और मध्य-एशिया की यह जमीन मैकडोनियन साम्राज्य का हिस्सा बन गई.

मैकडोनियन साम्राज्य ने अभी बैक्ट्रिया की सत्ता संभाली ही थी कि उसे मैकडोनिया में ही चुनौती देने वाला एक योद्धा सामने आ गया. यह था सिकंदर महान जिसकी आंखों में दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य खड़ा करने का सपना था. यूरोप को जीतने के बाद वह एशिया की ओर निकल पड़ा. तुर्की, मिस्र, सीरिया और लेवांत को जीतता हुआ हिंदूकुश पर्वत को पार कर जब सिकंदर बैक्ट्रिया (बल्ख) पहुंचा तो दो हजार सैनिकों की एक फौज लड़ाई के लिए उसका इंतजार कर रही थी.

लेकिन बैक्ट्रिया की यह सेना सिकंदर के भारी भरकम फौजी अमले के सामने टिक नहीं सकी और यह मुल्क जल्द ही सिकंदर के साम्राज्य का हिस्सा बन गया. कहा जाता है कि आज जो कंधार है उसे सिकंदर ने ही बसाया था.

लेकिन सिकंदर को बैक्ट्रिया का शासन नहीं संभालना था, वह तो ईरान और भारत को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाने के मकसद से निकला था. उसने बैक्ट्रिया को अपने सेनापति सेल्यूकस के हवाले किया और ईरान को जीतता हुआ भारत पहुंच गया. जहां कुछ शुरुआती जीत के बाद उसकी सेना में बगावत के स्वर सुनाई देने लगे. इसके बाद सिकंदर आगे की विजय यात्रा को स्थगित करके ईरान होता हुआ बेबीलोन पहुंच गया, जहां 32 वर्ष की उम्र में उसका निधन हो गया.

इधर बैक्ट्रिया हालांकि सेल्युकस के हवाले था लेकिन क्योंकि सेल्युकस को ज्यादातर ज्यादातर यु़द्धों में सिकंदर की सेना का नेतृत्व करने के लिए उनके साथ रहना था इसलिए उसने डियोटस प्रथम को वहां का शासक बना दिया था. सिकंदर के निधन के बाद डियोटस प्रथम ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी. सिकंदर और सेल्युकस की तरह डियोटस भी ग्रीक था, वह बैक्ट्रिया का पहला ग्रीक राजा बना. उसके शासनकाल को इतिहासकार ग्रीको-बैक्ट्रियन या इंडो-ग्रीक एंपायर के नाम से जानते हैं.

हालांकि यह शासन भी ज्यादा दिन नहीं टिका. ईसा पूर्व दूसरी सदी में ईरान के पर्थियन साम्राज्य ने बैक्ट्रिया को जीत लिया. इस साम्राज्य का शासन अभी एक सदी भी पूरी नहीं कर पाया था कि उधर चीन से कुषाण ने बैक्ट्रिया की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया. बैक्ट्रिया को जीतने के बाद कुषाण ने अपना साम्राज्य उत्तर भारत में वाराणसी तक फैलाया. हालांकि कुछ जगहों पर यह भी कहा जाता है भारत में कुषाण यह साम्राज्य एक तरफ पटना और दूसरी तरफ उज्जैन तक फैला था. बहरहाल, कुषाण का शासनकाल इतिहास का वह दौर है जहां आज का भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान एक ही साम्राज्य के हिस्से थे.

कुषाण वंश के सबसे प्रतापी राजा कनिष्क को भारत की जिस चीज ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था बौद्ध धर्म. भारत पहुंचकर कनिष्क ने इस धर्म की महायान परंपरा में दीक्षा ली. इसे बाद उसने इस धर्म को बैक्ट्रिया समेत सब जगह फैलाया. बामियान में महात्मा बुद्ध की विशाल प्रतिमा को एक पहाड़ में इसी दौर में तराशा गया. हालांकि इसे लेकर एक दूसरी राय भी है, जिसके अनुसार सम्राट अशोक ने अपने बेटे वीरसेन को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बैक्ट्रिया भेजा था और उसके प्रयासों से ही वहां इसका प्रसार हुआ.

जब कुषाण के इस शासन का पतन हुआ तो वह दौर खत्म हो चुका था जिसे दुनिया ईसा पूर्व कहती है. बाकी दुनिया की तरह ही अफगानिस्तान भी अपने इतिहास को आगे ले जाने की तैयारी कर रहा था.

फोटो सौजन्य ः नेशनल आर्मी म्युजियम, ब्रिटेन