प्रो. अख्तरुल वासे
आज 17 अक्टूबर है. अन्य तारीखों के जैसी यह तारीख भी हर साल आती और चली जाती है. कुछ लोग इसे याद भी रखते हैं. इस तारीख के नाम पर दावतें की जाती हैं, इसे मनाने के लिए सभाएं और संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, लेकिन कितने लोग ऐसे हैं, जो उस संदेश को समझने का प्रयास करते हैं, जो संदेश 17 अक्टूबर की तारीख हमको देती है.
वास्तव में, यह तारीख उस महान व्यक्तित्व का जन्मदिन है, जो 19वीं सदी की सबसे विवादास्पद शख्सियत होने के साथ एक इतिहासकार, सर्वव्यापी, परोपकारी और प्रतिभावान व्यक्ति भी हैं. अर्थात् सर सैयद अहमद खान. 17 अक्टूबर को हम उनके जन्मदिन के रूप में मनाते हैं. सर सैयद किसी एक व्यक्ति या संस्था का नाम नहीं है, बल्कि सर सैयद पूरे देश और राष्ट्र के लिए एक मसीहा का नाम है.
यह सर सैयद ही थे ,जो अंधी रूढ़िवादिता के पालने में पले-बढ़े और फिर स्वयं की अंतर्दृष्टि तथा ज्ञान के साथ एक नया जन्म लिया और उन्होंने अपने लिये एक नई दुनिया, एक नया संसार, एक नया आकाश और पृथ्वी उत्पन्न की.
सर सैयद का एक रंग पृथ्वी के घूर्णन से संबंधित उनकी पत्रिका में दिखाई देता है, जबकि दूसरा रंग आधुनिक विज्ञान के प्रयोगात्मक पथ का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है. उनकी भाषा की एक शैली उनकी लिखित पुस्तक ‘‘आसारुस-सनादीद’’ में दिखाई देती है और दूसरी शैली ‘‘तहजीब-उल-अखलाक’’ के पन्नों में देखी जा सकती है.
उनका बौद्धिक उत्साह ‘‘खुतबात-ए-अहमदिया’’ में दिखाई देती है और धर्मशास्त्र पर उनकी व्यपाकता ‘‘तबैय्यनुल कलाम’’ में देखी जा सकता है, जबकि उनकी अद्वितीय अंतर्दृष्टि ‘‘तआम अहले-किताब’’ पत्रिका में परिलक्षित होती है।
सर सैयद को किसी एक क्षेत्र या दृष्टिकोण में सीमित नहीं किया जा सकता. उनका एक सार्वभौमिक और सर्वव्यापी व्यक्तित्व था. यदि उन्होंने ‘‘सरकशी जिला बिजनौर’’ (जिला बिजनौर का विद्रोह) लिखी, तो ‘‘असबाब-ए-बगावत-ए-हिन्द’’ (भारत में विद्रोह के कारण) भी लिखी। ना तो वह तानाशाहों से डरे और न ही अत्याचारियों से.
उनके दृढ़ संकल्प ने उन्हें जहां एक ओर अपने देशवासियों को उनकी गलतियों के बारे में चेतावनी देने के लिए प्रोत्साहित किया, वहीं दूसरी ओर देश पर अधिकार करने वाली शक्तियों को उनके अत्याचारों से अवगत कराया.
उन्होंने अपनी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों के साथ सहयोग और बातचीत का जो रास्ता अपनाया उससे एक बार नहीं, बल्कि सौ बार असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन भारत और राष्ट्र के प्रति उनकी ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता. उन्होंने वर्ष 1857 में भारत के निर्धन और असहाय लोगों को देखा.
अंग्रेज उन्हें उनकी सेवाओं के बदले में एक जागीर देना चाहते थे, लेकिन उनकी अंतरात्मा ने उन्हें यह अनुमति नहीं दी कि अपने भाईयों की छीनी हुई जागीरें वह स्वयं स्वीकार कर लें.
सर सैयद कोई राजनीतिक विचारक नहीं थे, लेकिन राष्ट्रों के उत्थान और पतन की कहानियों से परिचित थे. उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि हमारा देश पतन की ओर जा रहा है. इस स्तर पर एक आम आदमी के लिये दो रास्ते थे, या तो पुरखों के सम्मान के नाम पर स्थिति का सामना करे और मर मिटे.
दूसरा तरीका था स्थिति को देखना और उनकी हीनता के कारणों का पता लगा कर उसका समाधान खोजें. सर सैयद ने यही दूसरा तरीका अपनाया. उन्होंने राष्ट्र की बीमारी की पहचान की और उसके लिए दवा निर्धारित की.
सर सैयद को पता था कि मुसलमानों की मूल समस्या शिक्षा की कमी है, इसलिए उन्होंने शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए संघर्ष किया. शिक्षा पद्धति का अध्ययन करने के लिए वह यूरोप गए और इसके प्रकाशन के लिए औपचारिक रूप से एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की, जो आज भी प्रकाशमान है और इससे न केवल भारतीय बल्कि भारत के बाहर के लोग भी लाभान्वित हो रहे हैं.
दूसरा पहलू यह था कि मुसलमानों में सामाजिक सुधार की आवश्यकता थी, जिसके लिए उन्होंने तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका प्रकाशित की, जिससे उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में सुधारवादी लेखों के माध्यम से राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाया.
तीसरा पहलू यह था कि उन्होंने भारत में आधुनिक विज्ञान और प्रायोगिक विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की। जिसका मुख्य उद्देश्य पश्चिमी देशों में प्रकाशित श्रेष्ठ और उत्तम वैज्ञानिक और शोध पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद करना और यहां भी शोध और लेखन में उसी मानक को अपनाना था.
सर सैयद अहमद खान के आंदोलन ने निःसंदेह भारत के भीतर और विशेष रूप से मुसलमानों के मध्य एक क्रांति ला दी थी. परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप में उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान और वैज्ञानिक लेखन का निर्माण करने वाले विद्वानों की एक खेप तैयार हो गई.
सर सैयद अहमद खान का सपना था कि मुसलमान शिक्षा और नैतिकता के क्षेत्र में तरक्की करें. उन्होंने शिक्षा को नैतिकता से जोड़ा, न कि आजीविका से. उनका मानना था कि उच्च शिक्षा किसी की नैतिकता और चरित्र को ऊपर उठा सकती है. आजीविका के लिए रोजगार जरूरी नहीं है, आजीविका के अन्य स्रोत भी हैं. मूल समस्या उच्च शिक्षा प्राप्त करना है जो किसी की नैतिकता और चरित्र को ऊपर उठाती है.
सर सैयद ने लगभग 150 साल पहले राष्ट्र और उच्च शिक्षा में सुधार का जिम्मा उठाया था. वह देश के लिए जिए और देश के लिये मरे. उनके युग में कोई दूसरा व्यक्ति दिखाई नहीं देता, जिसने राष्ट्र के प्रति इतनी करुणा दिखाई हो और इस प्रकार का सराहनीय प्रयास किया हो. राष्ट्र ने उच्च शिक्षा की ओर रुख किया. शोध और अनुसंधान प्रचलित हुआ, दीया से दीप प्रज्ज्वलित किया गया और अलीगढ़ भारत में मुसलमानों के क्षितिज पर एक क्रांतिकारी शुरुआत के रूप में उभरा.
लेकिन मंजिल अभी दूर है. सर सैयद थे, तो हम यहाँ हैं, अगर सर सैयद नहीं होते तो हम कहाँ होते? उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सर सैयद और उनके प्रतिष्ठित साथियों ने बीसवीं सदी में हमारे प्रवेश की पूरी तैयारी कर ली थी और इस शताब्दी में जो थोड़ा सम्मान और समृद्धि हमें मिली है, वह वास्तव में उनकी कृपा और धैर्य के कारण है.
लेकिन आज जब दुनिया 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुकी है, स्वयं हमने क्या तैयारियाँ की है? आने वाली पीढ़ियों और उनके बेहतर भविष्य के लिए कौन सी योजनाएं बनाई हैं? ये प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि स्वयं और सामूहिक स्तर पर वह सभी कमियां आज भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मौजूद हैं, जिन्हें दूर करने के लिए सर सैयद और अलीगढ़ आंदोलन में शामिल उनके साथियों ने संघर्ष किया था.
(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)