204 वीं जयंती विशेषः सर सैयद अहमद खान और उनकी महान शख्सियत

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 2 Years ago
सर सैयद अहमद खान
सर सैयद अहमद खान

 

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प्रो. अख्तरुल वासे

आज 17 अक्टूबर है. अन्य तारीखों के जैसी यह तारीख भी हर साल आती और ‎चली जाती है. कुछ लोग इसे याद भी रखते हैं. इस तारीख के नाम पर दावतें ‎की जाती हैं, इसे मनाने के लिए सभाएं और संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, ‎लेकिन कितने लोग ऐसे हैं, जो उस संदेश को समझने का प्रयास करते हैं, जो ‎संदेश 17 ‎अक्टूबर की तारीख हमको देती है.

वास्तव में, यह तारीख उस महान ‎व्यक्तित्व का जन्मदिन है, जो ‎19वीं सदी की सबसे विवादास्पद शख्सियत होने के  साथ एक इतिहासकार, सर्वव्यापी, परोपकारी और प्रतिभावान व्यक्ति भी हैं. ‎अर्थात् सर सैयद अहमद खान. 17 अक्टूबर को हम उनके जन्मदिन के रूप ‎में मनाते हैं. सर सैयद किसी एक व्यक्ति या संस्था का नाम ‎नहीं है, बल्कि सर ‎सैयद पूरे देश और राष्ट्र के लिए एक मसीहा का नाम है.

यह सर सैयद ही थे ,‎जो अंधी रूढ़िवादिता के ‎पालने में पले-बढ़े और फिर स्वयं की अंतर्दृष्टि तथा ज्ञान ‎के साथ एक नया जन्म लिया और उन्होंने अपने लिये एक नई दुनिया, एक नया ‎‎संसार, एक नया आकाश और पृथ्वी उत्पन्न की.

सर सैयद का एक रंग पृथ्वी के ‎‎घूर्णन से संबंधित उनकी पत्रिका में दिखाई देता है, जबकि ‎दूसरा रंग आधुनिक ‎विज्ञान के प्रयोगात्मक पथ का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है. उनकी भाषा की ‎‎एक शैली उनकी लिखित पुस्तक ‘‘आसारुस-सनादीद’’ में दिखाई देती है और ‎दूसरी शैली ‘‘तहजीब-उल-अखलाक’’ के पन्नों में देखी जा सकती है.

उनका ‎बौद्धिक उत्साह ‘‘खुतबात-ए-अहमदिया’’ में दिखाई देती है और ‎धर्मशास्त्र पर ‎उनकी व्यपाकता ‘‘तबैय्यनुल कलाम’’ में देखी जा सकता है, जबकि उनकी अद्वितीय ‎अंतर्दृष्टि ‘‘तआम अहले-किताब’’ पत्रिका में ‎परिलक्षित होती है।

सर सैयद को किसी एक क्षेत्र या दृष्टिकोण में सीमित नहीं किया जा सकता. ‎उनका एक सार्वभौमिक और सर्वव्यापी व्यक्तित्व था. यदि ‎उन्होंने ‘‘सरकशी जिला ‎बिजनौर’’ (जिला बिजनौर का विद्रोह) लिखी, तो ‘‘असबाब-ए-बगावत-ए-हिन्द’’ ‎‎(भारत में विद्रोह के कारण) भी लिखी। ना तो वह तानाशाहों से डरे और न ही ‎अत्याचारियों से.

उनके दृढ़ संकल्प ने उन्हें जहां एक ओर अपने देशवासियों को ‎उनकी गलतियों के बारे में चेतावनी देने के ‎लिए प्रोत्साहित किया, वहीं दूसरी ओर ‎देश पर अधिकार करने वाली शक्तियों को उनके अत्याचारों से अवगत कराया. ‎

उन्होंने अपनी परिस्थितियों ‎को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों के साथ सहयोग और ‎बातचीत का जो रास्ता अपनाया उससे एक बार नहीं, बल्कि सौ ‎बार असहमत हुआ ‎जा सकता है, लेकिन भारत और राष्ट्र के प्रति उनकी ईमानदारी पर संदेह नहीं ‎किया जा सकता. उन्होंने वर्ष 1857 में भारत के निर्धन और असहाय लोगों को ‎देखा.

अंग्रेज उन्हें उनकी सेवाओं के बदले में एक जागीर देना चाहते थे, लेकिन ‎‎उनकी अंतरात्मा ने उन्हें यह अनुमति नहीं दी कि अपने भाईयों की छीनी हुई ‎जागीरें वह स्वयं स्वीकार कर लें.

सर सैयद कोई राजनीतिक विचारक नहीं थे, लेकिन राष्ट्रों के उत्थान और पतन ‎की कहानियों से परिचित थे. उन्होंने अपनी आँखों से ‎देखा कि हमारा देश पतन ‎की ओर जा रहा है. इस स्तर पर एक आम आदमी के लिये दो रास्ते थे, या तो ‎पुरखों के सम्मान के नाम पर ‎स्थिति का सामना करे और मर मिटे.

दूसरा तरीका ‎था स्थिति को देखना और उनकी हीनता के कारणों का पता लगा कर उसका ‎समाधान खोजें. सर ‎सैयद ने यही दूसरा तरीका अपनाया. उन्होंने राष्ट्र की ‎बीमारी की पहचान की और उसके लिए दवा निर्धारित की.

सर सैयद को पता था कि मुसलमानों की मूल समस्या शिक्षा की कमी है, ‎इसलिए उन्होंने शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के ‎लिए संघर्ष किया. शिक्षा पद्धति का ‎अध्ययन करने के लिए वह यूरोप गए और इसके प्रकाशन के लिए औपचारिक रूप ‎से एक ‎शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की, जो आज भी प्रकाशमान है और इससे ‎न केवल भारतीय बल्कि भारत के बाहर के लोग भी लाभान्वित हो रहे हैं.

दूसरा पहलू यह था कि मुसलमानों में सामाजिक सुधार की आवश्यकता थी, ‎जिसके लिए उन्होंने तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका ‎प्रकाशित की, जिससे ‎उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में सुधारवादी लेखों के माध्यम से राष्ट्रीय जागरूकता ‎अभियान चलाया.

तीसरा पहलू यह था कि उन्होंने भारत में आधुनिक विज्ञान और प्रायोगिक विज्ञान ‎को लोकप्रिय बनाने के लिए साइंटिफिक सोसाइटी की ‎स्थापना की। जिसका मुख्य ‎उद्देश्य पश्चिमी देशों में प्रकाशित श्रेष्ठ और उत्तम वैज्ञानिक और शोध पुस्तकों का उर्दू में ‎अनुवाद करना और यहां भी शोध ‎और लेखन में उसी मानक को अपनाना था.

सर सैयद अहमद खान के आंदोलन ने निःसंदेह भारत के भीतर और विशेष रूप से ‎मुसलमानों के मध्य एक क्रांति ला दी थी. परिणामस्वरूप भारतीय ‎उपमहाद्वीप में ‎उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान और वैज्ञानिक लेखन का निर्माण करने वाले विद्वानों ‎की एक खेप तैयार हो गई.

सर सैयद अहमद खान का सपना था कि मुसलमान शिक्षा और नैतिकता के क्षेत्र में ‎तरक्की करें. उन्होंने शिक्षा को नैतिकता से जोड़ा, ‎न कि आजीविका से. उनका ‎मानना था कि उच्च शिक्षा किसी की नैतिकता और चरित्र को ऊपर उठा सकती है. ‎आजीविका के लिए रोजगार ‎जरूरी नहीं है, आजीविका के अन्य स्रोत भी हैं. ‎मूल समस्या उच्च शिक्षा प्राप्त करना है जो किसी की नैतिकता और चरित्र ‎को ‎ऊपर उठाती है.

सर सैयद ने लगभग 150 साल पहले राष्ट्र और उच्च शिक्षा में सुधार का जिम्मा ‎उठाया था. वह देश के लिए जिए और देश के लिये मरे. उनके युग में कोई ‎दूसरा व्यक्ति दिखाई नहीं देता, जिसने राष्ट्र के प्रति इतनी करुणा दिखाई हो और ‎इस प्रकार का सराहनीय प्रयास किया हो. राष्ट्र ने उच्च शिक्षा की ओर रुख ‎किया. शोध और अनुसंधान प्रचलित हुआ, दीया से दीप प्रज्ज्वलित किया गया ‎और ‎अलीगढ़ भारत में मुसलमानों के क्षितिज पर एक क्रांतिकारी शुरुआत के रूप में ‎उभरा.

लेकिन मंजिल अभी दूर है. सर सैयद थे, तो हम यहाँ हैं, अगर सर सैयद नहीं ‎होते तो हम कहाँ होते? उन्नीसवीं शताब्दी के ‎उत्तरार्ध में सर सैयद और उनके ‎प्रतिष्ठित साथियों ने बीसवीं सदी में हमारे प्रवेश की पूरी तैयारी कर ली थी और ‎इस शताब्दी में जो ‎थोड़ा सम्मान और समृद्धि हमें मिली है, वह वास्तव में उनकी कृ‎पा और धैर्य के कारण है.

लेकिन आज जब दुनिया 21वीं ‎शताब्दी में प्रवेश कर ‎चुकी है, स्वयं हमने क्या तैयारियाँ की है? आने वाली पीढ़ियों और उनके बेहतर ‎भविष्य के लिए कौन सी योजनाएं बनाई हैं? ये ‎प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, ‎क्योंकि स्वयं और सामूहिक स्तर पर वह सभी कमियां आज भी कहीं न कहीं किसी ‎न किसी रूप ‎में मौजूद हैं, जिन्हें दूर करने के लिए सर सैयद और अलीगढ़ ‎आंदोलन में शामिल उनके साथियों ने संघर्ष किया था.

(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)‎