सूफिज्म एक समावेशी अहसास हैः राना सफवी

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 09-11-2022
सूफिज्म एक समावेशी अहसास हैः राना सफवी
सूफिज्म एक समावेशी अहसास हैः राना सफवी

 

राना सफवी लेखक, ब्लॉगर और अनुवादक हैं. यह उनका संक्षिप्त परिचय है. हकीकत यह है कि राना सफवी दरअसल, भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को आगे बढ़ाने के लिए भोजन, रीति-रिवाजों, त्योहारों, स्मारकों और कपड़ों के दस्तावेजीकरण करने में जुनून की हद तक लगी हुई हैं. उनकी दो पुस्तकें ‘टेल्स फ्रॉम द कुरान एंड हदीस’ और द डेल्ही ट्रिलॉजी, ‘व्हेयर स्टोन्स स्पीक’ काफी चर्चित रही हैं. अब इनकी नई पुस्तक आई है ‘इन सर्च ऑफ द डिवाइन: लिविंग हिस्ट्री ऑफ सूफिज्म इन इंडिया’. यह पुस्तक काफी पसंद की जा रही है और सोशल मीडिया पर भी इसे अच्छे-अच्छे कमेंट मिल रहे हैं. डॉक्टर आमना मिर्जा ने राना सफवी से उनकी पुस्तक और सूफिज्म सहित कई अहम पहलुओं पर बातचीत की. यहां प्रस्तुत है, इसके प्रमुख अंशः

सवालः पहले तो आपको नई किताब के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद. इतनी अच्छी किताब है और खूबसूरत मैसेज के साथ है. इसे रीडर काफी पसंद कर रहे हैं. सूफिज्म जिसको आपने इस किताब के जरिए दोबारा पढ़ने का प्रयास किया है, वह इतिहास भी है हमारा. हमारा दर्शन में भी है. हिस्ट्री में भी है. फिलॉसफी में भी है. आपने इस विषय को ही क्यों चुना, इस विषय का ही आपने चयन क्यों किया लिखने के लिए?

राना सफवीः  यह किताब मैंने करीब 2011 से लिखनी शुरू की थी. 2012 में मैंने दिल्ली के बारे में लिखा. जब मैं दिल्ली के लिए लिखने लगी, तो यहां कहते हैं कि दिल्ली 22 ख्वाजा की चौखट है. दिल्ली की जो सबसे पहले मैंने इमारतें देखीं, तो वह दरगाहें देखी थीं. तो कहीं न कहीं मेरा जो परिचय हुआ दरगाहों के जरिए हुआ.

उस वक्त मैं हिस्टी और इसकी बनावट को देख रही थी. लेकिन वहां की जो रूहानी कैफियत थी, वह दिल में बस रही थी. हमारे जो उस वक्त के चीफ पब्लिशर थे, पालन चटर्जी उन्होंने पब्लिश किया, लेकिन उन्होंने जिस तरह से कहा था और जिस तरह से ये किताब बनकर निकली, उस में बहुत फर्क है. क्योंकि उन्होंने कहा कि चलो हम सूफिज्म के बारे में लिखते हैं, ये 2017 की बात हैं. 2017 में मैंने एकेडमिक शुरू की कि इसे किस तरह लिखेंगे. क्या करेंगे. क्योंकि मेरा अपना एक स्टाइल है लिखने का.

उसे मैं बहुत ही पर्सनलाइज तरीके से लिखती हूं. जब तक कि खुद नहीं जाती हूं उसके बारे में लिखना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है. जब मैं खुद वहां तक जाने लगी, तो फिर वह एक बहुत ही पर्सनल सर्च हो गई. इन सर्च ऑफ द डिवाइन मेरी खुद की भी कहीं न कहीं एक खोज है.

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सवालः आपने बताया कि इतिहास से जुड़ा विषय है और कहीं न कहीं अपने खुद इसकी खोज की. सूफिज्म को जब हम देखते हैं, तो वह ग्रंथ में है, एक भाव के रूप में है, संगीत में भी है. इमारतों से भी जुड़ा हुआ है. आपकी किताब इन सर्च ऑफ द डिवाइन में हर चीज मौजूद है. तो सबसे दिलचस्प कौन सा सुफिज्म है? कौन से भाव को पढ़ा, कौन से आयाम को पढ़ा?

राना सफवीः मुश्किल हो जाता है कि पांच उंगलियों में से कौन ज्यादा अजीज है. सब बराबर हैं. मगर मजा सब में आया. बहुत से लोग हैं, जिन्हें कई लेख पसंद है, जिनको सूफिज्म के बारे में नहीं मालूम. आप उनसे कहिए सूफी, तो वह कहेगा कव्वाली. किसी और से कहिए जैसे वेस्टर्न या अमेरिकन से लफ्ज सूफी कहेंगे, तो वह रुमी कहेगा. तो हर के एक अलग-अलग एहसासात हैं कि किसको किस तरह से जुड़ाव है इस चीज से. आपको हिस्ट्री से जुड़ाव है. आपको इसकी फिलॉस्फी से जुड़ाव है या आप इससे जुड़े हुए हैं या उससे जुड़े हैं आप.

म्यूजिक से जुड़े हैं या लिटरेचर से जुड़े हैं, तो सबके अपने अलग-अलग तरह के एहसासात होते हैं. मैंने हर तरह से क्योंकि मैं आर्किटेक्चर के बारे में लिखती हूं, इसलिए हमने आर्किटेक्चर के बारे में इसमें जरुर जिक्र किया है कि जब हम एक मकबरा में होते हैं, जैसे सिकंदर या अकबर का मकबरा या आप ईरान में कोई भी मस्जिद को देख लें, उसमें अलग एहसास होते हैं.

इसे कहते हैं अर्श है. मतलब कि एक जो सीलिंग है मस्जिद की, जो गुंबद है, अर्श से इंस्पायर्ड है. तो इस तरह की जो चीजें इन्टरप्रेट करने के बाद जो मजा आता है समझने में, चाहे इसकी पॉटरी हो या साकी की बात हो रही हो, साकी कौन है? वह ऊपर वाला हैं, रिंद कौन है?

वह हम है. जो एक खोज में निकले हुए हैं. जो हम ढूंढ रहे हैं, जिसके बारे में हम कयास कर रहे हैं कि वह मिल जाए. जो एक शराब का प्याला है, जिसे हम इबादत कहेंगे, जो हमें मिल जाए हाथ में. तो इस तरह की चीजें जो आप करना शुरु करते हैं, तो एक अलग मजा ही आता है, क्योंकि फिर समझ में आती हैं कि हमने फलां चीज जो सुनी थी, उसका क्या मतलब था.

सवालः कहीं न कहीं सूफिज्म हम सब को एक साथ उस दरिया में समां लेता है. आपके अनुसार, आपने पहले भी इस विषय से जुड़े काफी लिखा है, हम सब को मार्गदर्शन दिया है. आपके अनुसार, सूफिज्म इतना समावेशी कैसे हो सकता है कि सबको साथ लेकर चलने में उसके विचार में क्षमता है ?

राना सफवीः देखिए, हम बचपन से कुरान पढ़ना शुरु करते हैं. जब हम पहला सुरह पढ़ते हैं सूरह फातिहा तो शुरु कैसे होता है ‘बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम. अल्हमदो लिल्लाह ए रब्बिल आलमीन. रब उल आलमीन पूरे आलम का रब. यानी हम सब उसके मखलूक हैं कोई भी हो. तो इसमें सब कोई आ गए.

सूफिज्म भी तो यही फॉलो कर रहा है. यही हमने भी बचपन से सुना है. तो इसके बाद तो इंक्लूसिव ना होना तो कुफ्र है. आप देखिए कि जैसे हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हैं. वह कहते हैं सूरज किसी का मजहब देखकर नहीं चमकता है. ये जो दुनिया है या जमीन फल दे रही है,अनाज दे रहा है, जो भी उसकी उपज है, कोई मजहब या मिल्लत, पैसा लेकर तो नहीं दे रहा है.

वह तो सभी को दे रहा है. जब वह दे रहे हैं, तो फिर हम कौन हैं रोकने वाले. यही सूफिज्म की फिलॉसफी है. यह उसका ज्ञान है. जैसे हजरत निजामुद्दीन औलिया बार-बार कहते हैं कि एक इबादत वह होती है, जो मेरे खुदा के बीच में है.

एक इबादत वो है, जो मैं उसके बंदों की खिदमत करके करता हूं. इस इबादत की कीमत कहीं ज्यादा है. वह उसके बंदे कि खिदमत कर रहे है, तो ये देख कर नहीं कर रहे हैं कि वह बंदा कौन है, जिसकी खिदमत कर रहा हूं. बल्कि उनका तो यह था कि जब बादशाह उनके पास आना चाह रहे थे, तो उन्होंने कहा कि इस दरवाजे से आएंगे, तो मैं दरवाजे से बाहर चला जाऊंगा.

जैसे इसमें एक कहानी है, जो फवाद उल फवाद हैं. हसन सिद्दीकी ने हजरत इमामुद्दीन की बातचीत को रिकॉर्ड किया है. इसमें एक बहुत खूबसूरत कहानी है कि कोई दरवेश बैठे थे. पैर फैलाए हुए और अपना कपड़ा रफू कर रहे थे. उधर, सामने से एक राजा गुजरा. उसने कहा कि अपने पैर समेटो. उसने मुट्ठियां बांध ली. मतलब कि उसे कुछ मांगना ही नहीं, है तो क्यों वह अपनी इज्जत दांव पर लगाएगा, पैर समेट कर. मतलब ये उसकी खुद्दारी थी.

सवालः सूफिज्म एक विषय के रूप में कई इतिहासकारों ने पढ़ा है. कई लेखकों ने इसे लिखा है. यह बहुत व्यापक आयाम है. क्या आपको लगता है कि सूफिज्म को समझने में न्याय हुआ है. सही तरीके से समझा गया है या इसमें कुछ गुंजाइश रहती है कि कुछ नया दौर, कुछ नया आयाम, कुछ नया दृष्टिकोण सामने आए ?

राना सफवीः  कोई भी विषय हो, आप उसे जितना पढ़ेंगे, तो आपको उतना ही समझ में आएगा कि जितना मुझे आता है. इसके लिए भी वही है कि जितना आप लिखते जाएं, उतना आपको समझ में आएगा कि इसमें और क्या होना है. क्या चीज हमने कवर की. क्या चीज हमें नहीं आती है. तो कहीं कभी भी ऐसा नहीं हो सकता कि आप कहें कि ये आखिरी लफ्ज के आगे और कुछ नहीं लिखा जा सकता. यह मुमकिन ही नहीं है. न ही ऐसी कोई चीज जिसे हम सूफी आजकल कहते हैं. जो पूरी दुनिया में समाया हुआ है. उसको हम कैसे कभी एक बूंद में बंद कर सकते हैं.

सवालः राना जी, आपकी किताब में बहुत सारे किस्से हैं. बहुत सारे गहरे भाव, विचार हैं. वह कौन सा किस्सा है या वह कौन सा चैप्टर है, जो आपके दिल के बहुत करीब है.

राना सफवीः बहुत सारे चैप्टर करीब हैं, जो लोगों के मेरे संबंध हैं. वह किताब के तीसरे हिस्से में है. एक जो मेरा था बीजापुर और गोलकुंडा भी, जो मेरा वहां के दरगाहों पर, जो वहां लोग आ रहे थे. मैं जब पहुंची बीजापुर, गोलकुंडा तो अमावस्या की रात थी. वहां सभी दरगाहें खचाखच भरी हुई थीं.

मैं कम से कम छह-सात दरगाहों पर गई, सभी दरगाह भरी हुई थीं. मैंने वहां पर लोगों से पूछा कि क्यों आते तो अमावस्या की रात में. उन्होंने बताया जितना इब्लीस होता है, स्पिरिट हो जाता है. वह बाहर निकल जाता है. अगर आप किसी दरगाह में है, तो फिर वह कैद हो जाता है. और आप उससे निजात पाते हैं. इस तरह की जो फीलिंग है कि असर हो जाता है.

आसेब दूर होता है. साया गायब हो जाता है. इस तरह का मतलब कि हर कोई मानता है. हर मजहब में मानते हैं, इस तरह की चीजें. इस चैप्टर को लिखने में, लोगों से बात करने में कहीं मेरे लिए एक चैलेंज था. यह समझना कि वह क्या कह रहे हैं और क्यों कह रहे है और यहां क्यों आ रहे हैं.

उसको मैंने बहुत शिद्दत से एक्सप्लेन करने की कोशिश की है. आदमी जब किसी मुकाम पर पहुंचता है, तो उसके लिए सिर्फ दुआ रह जाती है. लेकिन दुआ और दवा के बगैर दोनों साथ चल रहे हैं. दुआ के बिना दवा और दवा के बिना दुआ.

मतलब ना मुकम्मल है, इसलिए हमको कहीं ना कहीं इन दोनों को मुकम्मल करने के लिए साथ रखना होगा, तो ये चैप्टर मेरे लिए बहुत अहम था कि किस तरह लोगों तक पहुंचूं. जिन मामू की तस्वीर मेरे दिल में है, जो मैं बचपन से सुनी. लोगों के लिए खास तौर पर, अंग्रेजी पब्लिक जो है उसके लिए एलियन और जिन्न है. तो लोगों को समझाना कि जिन्न अच्छे भी होते हैं. जैसे बुरी रूहें अच्छी भी होती हैं. अच्छे तो बहुत ज्यादा होते हैं. इस तरह की चीजें समझाना मेरे लिए चैलेंजिंग था. बहुत मजेदार भी था.

सवालः आपने अभी जिक्र किया कि कई लोगों से बातचीत की और खुद दरगाहों तक गईं. बहुत मेहनत की. क्या वहां जाने से, लोगों से बात करके आपके अंदर कुछ बदलाव आया है. कुछ लगता है कि आज का दिन मेरे लिए कुछ अलग हैं? कहते हैं कि जब आप किसी से बात करते हैं, तो उसकी छाप आपमें कुछ न कुछ तो बदलाव लाती ही है.

राना सफवीः  जो चीज आदमी सीखता है, उसके लिए अल्लाह का हर हाल में शुक्र करो. मेरे अंदर बहुत बेसब्री है. उसे दूर करना, उस पर यकीन करना. जिसे तवक्कुल कहते हैं, बहुत सीखा. फिर इसमें चेप्टर टू जो है, जिसमें रसूल-ए-खुदा, रसूल के बारे में मैंने बात की है.

उनसे मैंने बहुत सीखा है कि हम लोग जो अपने आप को मुसलमान कहते हैं. इसमें मैं किसी एक मजहब को नहीं कहूंगी, क्योंकि हर मजहब में इस तरह की चीजें मौजूद हैं. मैं इसके बारे में पढ़ रही हूं, तो बात कर रही हूं कि उनकी एक हदीस है कि पानी को कभी जाया (बर्बाद) मत करो. अगर बहती नदी में भी वजू कर रहे हो, तो भी पानी जाया न करो. तो आज के दिन जब मैं नल चलाती हूं या ब्रश करती हूं, तो मैं उसे फौरन बंद कर देती हूं.

पानी बहने नहीं देती. पहले पानी बहने देती थी. आज कल मुझे लगता है कि हम 17 सेंचुरी में ये बात कह रहे हैं. एक और हदीस है कि अगर तुम हाथ में एक पेड़ का पौधा पकड़े हो, उसको प्लांट कर दो, चाहे कयामत भी आ जाए. तो इस तरह की चीजें, बहुत छोटी-छोटी चीजें हमने सीखीं.

हदीस ए रसूल से सीख रहीं हूं. लेकिन इसको पढ़ने के लिए जो चीजें खास तौर पर अपने मजहब के बारे में हैं, उनको भी खंगाला, उनको भी टटोला. उनसे भी हमने ईमान को थोड़ा पुख्ता करने की कोशिश की.

सवालः पर्यावरण संरक्षण से लेकर संपूर्ण मानवता के भाव को आपने दोबारा अपने जीवन में खोजा और उसे सम्मिलित किया है इस किताब में. किताब बहुत बेहतरीन काम कर रही. रीडर्स इसके बारे में काफी अच्छी बातें लिख रहे हैं इंटरनेट पर, कैसा लग रहा है?

राना सफवीः बहुत अच्छा लगता है कि जितनी मेहनत की मैंने, वह कहीं न कहीं काम आई. मैं चाहती थी कि इस किताब के माध्यम से लोगों तक पहुंचे. लोगों के दिलों तक मोहब्बत का पैगाम पहुंचाऊं. पहुंच रहा है, तो मैं सुर्खरु हूं.

सवालः आज लेखन की जो दुनिया है, वह बहुत परिवर्तन की ओर है. बहुत सारे युवा लेखक बनने के लिए प्रोत्साहित हैं. आप एक हिस्टोरियन हैं. जीवन दर्शन के बारे में लिखा है. उन्हें क्या सलाह देना चाहेंगी ?

राना सफवीः जो बच्चे या जो नौजवान तबका आजकल लिख रहे हैं, मैंने 55 साल की उम्र में लिखना शुरू किया है. आप जिस भी उम्र में लिखें. 20 के हों या 60, 80 के हांे. लिखने के लिए अगर आपके दिल में उबाल सा है, तो आपको लिखना ही लिखना है.

सिर्फ ये सोचकर मत लिखिए कि आज कल राइटर बड़े ही पॉपुलर हो गए हैं, तो मैं भी कुछ लिख देता हूं. जब तक दिल से नहीं आएगा, तब तक बात नहीं बनेगी. ये मेरा मानना है. बहुत सारे लोग हैं जो हो सकता है कि राइटिंग कर रहे हैं, लेकिन मैं तो बहुत दिल से लिखती हूं.

जब भी आप मेरी कोई किताब पढ़ेंगी या मुझसे कोई बात करेंगी, तो मेरा पैशन दिखाई देता है, जो पाठक को जोड़ता है. वह बहुत जरूरी है. आप जो भी लिखें. या कोई काम या नौकरी हो. जब उसमें मेहनत करते हैं, तो इसमें भी वही मेहनत कीजिए. कई लोग कहते हैं कि राइटर ब्लाक आ गया है, तो हम नहीं लिख रहे हैं. लिखते रहें, हो सकता है कि उनमें से कुछ सही न हो, उसको आप बाद में सही कर लीजिएगा.

लेकिन लिखते रहिए. दूसरा कि अगर कोई नान फिक्शन लिख रहा है, तो रिसर्च बहुत जरूरी है. फिक्शन है, तो आप कुछ भी लिख सकते हैं, लेकिन जब आप नॉन फिक्शन लिखें, तो रिसर्च के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है.

सवालः आज तकनीक की दुनिया है. स्मार्टफोन्स और ऐप ने हम सबको बदल दिया है. हमारे पढ़ाई की शैली पर बदलाव आया है. आजकल पढ़ने के लिए कितने सारे यंत्र हो गए हैं. क्या किताबों की दुनिया में जो मजा है कि आपके पास एक किताब है. हाथ में चाय का प्याला है और किताब मोड़ी हुई है, किताब में खुशबू होती है क्या वह बरकरार रहेगी इस बदलती तकनीकी दुनिया में?

राना सफवीः बिल्कुल रहेगी. किताबों का कोई जोड़ नहीं है. अपने हाथ में जब किताब लेती हूं, तो पढ़ती हूं, कभी ऐसा होता है कि किताब बहुत छोटी होती है या किताब बहुत भारी है या मोटी है, जो भारत में नहीं मिलती है, तो मैं उसे किंडल से खरीद कर पढ़ती हूं. इसी में मजा आता है.

सवालः आपका अगला कदम क्या है. आगे का एजेंडा क्या है?

राना सफवीः अभी मैं ब्रेक पर हूं, क्योंकि ये किताब बहुत दिलचस्प है. इस किताब में मैंने अपने आपको निचोड़ दिया है, तो थोड़ा सा मुझे रिकवर करने के लिए वक्त चाहिए. मैं जब किताब लिखती हूं, तो अपने आपको उसमें डाल देती हूं. इस किताब में तो खास तौर से मैं एक पर्सनलाइज किताब लिखी है. थोड़ा मैं ब्रेक पर हूं. सेहत पर ध्यान दे रही हूं. उसके बाद फिर सोचूंगी कि क्या करना है.

प्रस्तुति: मोहम्मद अकरम