रफी युसुफ पूरी : हमको चलना था चलते रहे

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 25-05-2022
रफी युसुफ पूरी : हमको चलना था चलते रहे
रफी युसुफ पूरी : हमको चलना था चलते रहे

 

faiyazडॉ. फैयाज अहमद फैजी
 
सुने अरबाबे दिल अहले हुनर भी
पिन्हा  है  संग  पारो  में  गुहर भी

जैसे हीरा हमेशा कोयले के खान से निकलता है, ठीक वैसे ही ज्यादातर महान विभूतियां गुरबत,पसमांदगी,अभाव,बेबसी और बेकसी के आलम से निकल कर दुनिया को रोशन करती रही हैं. उदाहरण स्वरूप मुहम्मद(स.) से लेकर बाबा कबीर(र.)तक एक सिलसिला आता है. अदब भी इस उसूल से बाहर नहीं. जमाने में बेहतरीन साहित्य के सृजनकर्ता इसी पृष्ठभूमि के रहे हैं. पूरे भक्ति काल के साहित्यकार इसी श्रेणी में आते हैं.

इसी सिलसिले में एक नाम भारतीय समाज के सबसे वंचित तबके देशज पसमांदा से आने वाले रफीउल्लाह साहब रफी युसुफ पूरी का आता है. वह अपनी लाचारी और बेबसी पर लिखते हैं.
 
चूल्हा था सर्द तीन दिनों से कि एक फकीर
फैला के हाथ घर का मेरे राज ले गया

रफी साहब युसुफपुर (गाजीपुर, यूपी) कस्बे के उस्ताद शायर माने जाते रहें हैं. कस्बे के अदब परवरी में उनका मुकाम वली-ए-आला( सबसे बड़े अभिभावक) का रहा है,
 
लेकिन कुर्बान जाइए ऐसी शख्सियत पर उनकी इंकिसारी पर कि अपने को उस्ताद कहे जाने का मजाक बनाते हुए एक ऐसी महफिल में जिसमें अमेरिका से आए मेहमान भी शामिल थे, कहा कि मैं कोई उस्ताद नहीं हूं.
 
लोग उस्ताद कहने लगे हैं, इसलिए मेरा नाम ही उस्ताद हो गया है. गौर तलब है कि उनको सभी लोग उस्ताद ही कह कर संबोधित किया करते थे. खाकसारी इंकिसारी उनके व्यक्तित्व की पहचान थी.
 
बड़े छोटे सभी से निहायत ही अदब से मिलते थे. खैरियत जरूर पूछा करते थे. रास्ता चलने में अपने रसूल(स.) की पैरवी करते हुए झुक कर चलते थे.
यद्यपि रफी साहब को गालिब व इकबाल की तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक संरक्षण एवं सम्पन्नता हासिल नहीं हुई,
 
लेकिन अपने अभाव ग्रस्त जीवन में भी उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य की रचना किया, जिसकी मिसाल शायद ही मिले. कठिन परिस्थितियों एवं आर्थिक अभाव में पारिवारिक जिम्मेदारियां वहन करते हुए उच्च कोटि के अदब की रचना करना अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं  है.
 
मैं कोई साहित्यिक आलोचक नहीं कि उनकी कविताओं के रचना विन्यास, उरूज व बलागत, तकती, रदीफ और काफिए की पैमाइश और माने मतलब के हिसाब से गुण दोषों पर आलोचना प्रस्तुत करूं, लेकिन एक श्रोता और प्रभावित होने वाले की हैसियत से कह सकता हूं कि रफी साहब का साहित्य, उसका मर्म न सिर्फ दिल की गहराइयों तक उतर जाता है, बल्कि जेहन व दिमाग तक को झकझोर कर रख देता है.
 
कहते हैं-

बन गए बाग बां वो रफी
फूल को जो मसलते रहें

और-

गुलसितां को लूटने वाला तो कोई और है
खार क्यों हर शख्स के दामन से है उलझा हुआ

फिर कहते हैं- 

खाने को भीख, रहने को फुटपाथ मकां है
सड़कों के सेवा खेल का मैदान कहां है
 
और ऐ राह के मुसाफिर बूटों से ना रौंद
मेरी नजर में मेरा बच्चा भी शाहे जहां है

वो इन दुख, परेशानियों, पशेमानियों और अभाव के उन्मूलन से कभी नाउम्मीद होते नजर नहीं आते. वो बाबा कबीर(र.) की तरह ‘अमर देस्वा‘ का ख्वाब ही नहीं देखते, बल्कि उसे चरितार्थ करने की हौसलाकुन बात भी करते हैं.
 
मैं पस्ती से बुलंदी का फसाना ले के उभरूंगा

सुकूने दिल हो जिसमें वो जमाना लेके उभरुंगा

समंदर की तहों में इस यकीन के साथ डूबा हूं

जो उभरूंगा तो मोती का खजाना लेके उभारुंगा

अमर देस्वा(सुकुने दिल का जमाना) और पस्ती से बुलंदी की दास्तां की खातिर वो कभी रुके नहीं चलते रहें.
 
खून   तलवे   उगलते   रहें
हमको चलना था चलते रहे

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि एक जमाने में कव्वाली का बड़ा जोर हुआ करता था. हर कव्वाल का अपना एक पसंदीदा शायर हुआ करता था. रफी साहब हमारे दयार के प्रसिद्ध कव्वाल शफी परवाज युसुफ पूरी के दिल पसंद शायर थे.
 
एक ऐसे ही कव्वाली के मुकाबले की चर्चा करते हुए उस्ताद रफी युसुफ पूरी साहब ने मुझे बताया कि फौरन शेर गजल लिखकर उसे गाने की नौबत आ गई. शफी साहब ने रफी साहब की तरफ देखा दोनों ने आंखों ही आंखों में एक दूसरे को समझ लिया. फिर क्या था रफी साहब एक एक शेर लिख कर आगे बढ़ाते जाते और शफी साहब उसको गाते जाते.
 
इस तरह मार्का सर हुआ, यह कमाल की बात है कि फौरी तौर पर  गजल के शेर कहना और तुरन्त ही उसे सुर लय और ताल के साथ गा देना अपने आप में एक शाहकार से कम नहीं. यह अद्भुत वाक्या बखुद जबानी रफी साहब से सुनना भी कुछ कम दिलचस्प नहीं.एक समय था जब पूर्वी यूपी के जिलों में रफी-शफी की जोड़ी ने धूम मचा रखी थी.
 
बकलम सरफराज आसी साहब-

‘‘नाज है हमको कि इस कस्बे में पैदाइश हुई
तुम हमारे शहर ए युसुफपुर की पहचान हो‘‘

वाकई मुझे बहुत गर्व है कि मैंने रफी साहब का जमाना पाया. उनकी सरपरस्ती पाई. इन पंक्तियों को लिखते समय मेरी आंखे नम हैं. उनके बारे में क्या लिखूं क्या छोडू, समझ नहीं पा रहा हूं.
 
ये हम सब की बदनसीबी है कि उनसे उस तरह से लाभान्वित नहीं हो सके जैसा कि हक था. उनकी हिफाजत नहीं कर सके, जैसा कि उनको हक पहुंचता था. साहबे हैसियत लोगों से भरे पड़े इलाके में रफी साहब अच्छे इलाज से महरूम रहे. मैं खुद को भी इसका कसूरवार समझता हूं. 11 अगस्त 2016 को इस दुनिया से कूच कर गए.
 
ख्याल तक ना किया अहले अंजुमन ने कभी
तमाम रात जली शमा अंजुमन के लिए

अब उनकी यादें ही शेष हैं. उनकी रहनुमाई उनकी तरबियत हमें आगे राह दिखाती रहेगी. रफी साहब ने शायरी को ना सिर्फ लब व रुखसार की बात से निकाल कर हक अधिकार, दुख दर्द  जुल्म व ज्यादती के विरुद्ध आवाज की तर्जुमानी तक ले आए, उसके निराकरण के उपाय तक को वाजह किया.
 
उम्मीद है, नई नस्ल नदी के इस गमन को रुकने नहीं देंगी. आशा नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि उनकी रचनाएं सिर्फ साहित्य ही नहीं बल्कि समाज को भी नई राह दिखलाती रहेगी.
 
रफी साहब की तरफ से मैं जमाने को कहना चाहता हूं-

मैं वो बुलबुल हूं फुगां जिसकी ना बदलेगी कभी
आशियाने से कफस तक मेरी आवाज है एक

 
लेखक, अनुवादक, स्तंभकार,मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं