मोहम्मद हाशिम और ताऊ प्रभुः भारत का विभाजन उन्हें एक साथ खींच लाया

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 05-11-2021
भारत का विभाजन
भारत का विभाजन

 

साकिब सलीम

वे हिंदू-मुस्लिम संबंधों के बारे में क्या जानते हैं, जो केवल ‘दंगों’ को जानते हैं?

जो लोग अखबार और किताबें पढ़ते हैं, टीवी देखते हैं और समाचार सुनते हैं, वे समझते हैं कि भारत में हिंदू और मुसलमानों में सांप्रदायिक विभाजन है. दोनों समुदाय कभी भी शांति से नहीं रहे, हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहे और पिछली दो शताब्दियों में लाखों लोगों को मार डाला.

दूसरी ओर, जो इस देश में रहे हैं, इस देश से मेरा मतलब छोटे शहरों और गांवों से है, यह समझते हैं कि हिंदू और मुसलमान सदियों से एक-दूसरे के साथ भाइयों की तरह रहते आए हैं. वे आपस में झगड़ते हैं, फिर भी विपत्ति के समय एक-दूसरे का साथ देते हैं. हालांकि ये दोनों स्थितियां सही हैं.

अज्ञात कारणों से एक पक्ष पर बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, राजनेताओं और पत्रकारों का पर्याप्त ध्यान गया है, जबकि दूसरे पक्ष की उपेक्षा की गई है. हम समुदायों के बीच रक्तपात और हिंसा को सामने लाने वाली कई फिल्में, किताबें और लेख पाते हैं, और ठीक है, लेकिन इसके विपरीत की तस्वीर पर पूरी तरह चुप्पी है. यदि दो समुदाय सदियों से एक साथ रहे हैं, मस्जिदें और मंदिर एक साथ खड़े हैं और व्यापार और वाणिज्य साझा करते हैं, तो समुदायों के बीच भी सहयोग, भाईचारे और प्रेम की कहानियां होनी चाहिए.

आज, मैं अपने परिवार से एक ऐसी कहानी साझा करने जा रहा हूं, जो दो समुदायों के बीच के बंधन को दर्शाती है. कहानी नई नहीं है. दरअसल यह एक पुरानी कहानी है. एक कहानी, जिसे ज्यादातर भारतीयों ने अलग-अलग किरदारों और जगहों के साथ देखा है. यह उस भारत की कहानी है, जिसमें हम रहते हैं.

1947 का साल था. ब्रिटिश नीतियों और सांप्रदायिक राजनीति ने भारत का विभाजन कर दिया था. हिंदू और मुस्लिम भीड़ एक दूसरे को मार रही थी. उन सांप्रदायिक दंगों का भयानक विवरण अच्छी तरह से प्रलेखित है और अब लोककथाओं का हिस्सा है.

मुसलमानों को नवगठित पाकिस्तान में प्रवास करने के लिए मजबूर किया गया और हिंदुओं और सिखों को भारतीय क्षेत्र में जाने के लिए मजबूर किया गया. यकीनन, हिंदू-मुस्लिम संबंध अपने सबसे निचले स्तर पर चले गए थे. यदि हम सम्मानित बुद्धिजीवियों की पुस्तकें पढ़ें, तो हम समझेंगे कि उस समय दोनों समुदायों के सदस्य एक-दूसरे पर भरोसा नहीं कर रहे थे.

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मोहम्मद हाशिम 


जैसा कि चार्ल्स डिकेंस ने कहा, ‘यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे खराब समय था.’ वे अमानवीय हिंसा के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं के समय थे. मोहम्मद हाशिम, मेरे दादा, मुजफ्फरनगर के पास एक गांव में रहने वाले एक इस्लामी विद्वान और किसान थे. बंटवारे की हिंसा के चरम पर एक दिन वह बाजार से जुड़े किसी काम से शहर गए थे. जैसे ही उन्होंने शहर में प्रवेश किया, हाशिम ने सड़क के दोनों ओर कई पंजाबी शरणार्थी परिवारों को देखा. ये शरणार्थी भीख नहीं मांग रहे थे, वे सम्मानपूर्वक रोटी कमाने के लिए छोटे-छोटे सामान बेचने की कोशिश कर रहे थे. बेशक ये सभी लोग हिंदू थे और मेरे दादा मुसलमान थे. सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांतों के अनुसार, उन्हें एक दूसरे का दुश्मन होना चाहिए, लेकिन, वे इंसान थे.

हाशिम ने पहले आदमी से पूछा कि उसका नाम क्या है और वह कहां से आया है. वह व्यक्ति पंजाब के बहावलपुर का रहने वाला प्रभु था. मेरे दादाजी ने उन्हें चिंता न करने के लिए कहा, क्योंकि वह उनके लिए एक भाई की तरह थे और गेहूं का आटा, चावल, दाल, तेल और अन्य खाद्य पदार्थ लाने के लिए अपने गांव वापस चले गए. अगले कुछ महीनों तक, जब तक प्रभु ने लगातार कमाई करना शुरू नहीं कर रिया, तब तक वह इस परिवार को भोजन और कपड़ा मुहैया कराते रहे.

हाशिम और प्रभु, मृत्यु पर्यन्त बहुत करीबी दोस्त बने रहे. दो परिवारों में घनिष्ठता हुई, मेरे पिता और चाचा प्रभु के दोनों पुत्रों के साथ बहुत घनिष्ठ मित्रता हो गई. प्रभु, प्यार से ताऊ प्रभु कहलाते थे. ताऊ प्रभु के पास एक खिलौने की दुकान थी और बचपन में मुझे उनके स्टोर से ऐसे खिलौने मिलते थे, जैसे कि वह परिवार के किसी सदस्य की तरह हों. ताऊ नहीं रहे, उनका एक बेटा भी इस दुनिया से जा चुका है, एक और बेटा भी बूढ़ा हो चुका है, फिर भी दोनों परिवारों में घनिष्ठ संबंध हैं. त्योहारों, दुखों और शादियों में दो परिवार एक-दूसरे में शामिल होते हैं.

यह कोई एक कहानी नहीं है. हमारे गांव में ऐसे और भी कई ‘मुसलमान’ थे, जिन्होंने बंटवारे के बाद पंजाब से आए ‘हिन्दू’ शरणार्थियों की मदद की. वे परिवार भी घनिष्ठ संबंध साझा करते हैं. इन ग्रामीणों को मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, कांग्रेस और अन्य पार्टियों की राजनीति के बारे से मतलब नहीं था. वे जानते थे कि इन मनुष्यों को उनके घरों से निकाल दिया गया था और उन्हें सहायता की आवश्यकता थी. वे जानते थे कि मनुष्य को क्या जानना चाहिए. वे वह जानते थे कि जो हम ‘आधुनिक’ ‘शिक्षित’ ‘मुसलमान’ और ‘हिन्दू’ नहीं जानते हैं.