संस्मरणः मेरी मां रो पड़ीं, जब हुजूर निजाम ने भारतीय सेना के सामने सरेंडर किया

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 17-09-2021
मीर उस्मान अली खान
मीर उस्मान अली खान

 

ए श्रीनिवास राव/हैदराबाद

बचपन से ही, मैंने असंख्य लेख पढ़े हैं और निजामों के निरंकुश शासन के बारे में कहानियाँ सुनी हैं. विशेष रूप से, हैदराबाद के अंतिम निजाम मीर उस्मान अली खान के बारे में.

उन दिनों प्रचलित दमनकारी सामंती व्यवस्था को दर्शाने वाली मां भूमि और चिल्लारा देवुल्लू जैसी तेलुगु फिल्मों ने निजाम शासन के बारे में मेरी धारणा को ही बल दिया है.

मेरे दादा ए. नरसिम्हा राव ने निजाम शासन के तहत आबकारी विभाग (आबकारी) में एक सर्कल इंस्पेक्टर के रूप में काम किया था. जबकि मेरे पिता ए. शेषगिरी राव एक कट्टर कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता और कवि-कार्यकर्ता मकदूम मोहिउद्दीन के सहयोगी थे. उन्होंने निजाम शासन के दौरान प्रचलित सामंती व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी.

मुझे अपने दादाजी से निजाम के शासन के बारे में जानने का कोई अवसर नहीं मिला, क्योंकि 1973 में जब मैं बहुत छोटा था, तब उनका निधन हो गया था. जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मैंने अपने पिता से, जिनका 2005 में निधन हो गया, हैदराबाद में स्वतंत्रता-पूर्व के दिनों और निजाम के शासन के बारे में कई दिलचस्प कहानियां सीखीं.

मेरी मां संपतम्मा अब 8 5वर्ष की हैं. उन्होंने अपना पूरा बचपन हैदराबाद के पुराने शहर में बिताया, अभी भी पिछले निजाम के शासन के दौरान के जीवन की अच्छी यादें हैं.

हैरानी की बात है कि कम्युनिस्ट होने के बावजूद मेरे पिता और मेरी माँ, दोनों ने कभी भी निजामों और विशेष रूप से अंतिम निजाम के खिलाफ वैसा कभी भी एक बुरा शब्द नहीं बोला, जैसा कि मैंने कम्युनिस्ट साहित्य में पढ़ा था. वास्तव में, जब भी मेरे घर में निजामों का विषय चर्चा के लिए आता है, तो मेरी माँ मीर उस्मान अली खान को ‘हुजूर निजाम’ के रूप में संदर्भित करती है, न कि केवल ‘निजाम’ के रूप में.

मेरी मां को तब लगभग 12वर्ष का होना चाहिए, जब मीर उस्मान अली खान ने पद छोड़ दिया और 17सितंबर, 1948को बहुप्रचारित ‘पुलिस कार्रवाई’ के बाद हैदराबाद राज्य के भारतीय संघ में विलय की घोषणा की गई.

वह आज भी उस दिन को याद करती हैं, जब अंतिम निजाम ने पुलिस बलों के सामने आत्मसमर्पण करने की घोषणा की थी. मां ने हैदराबाद के भारत में विलय की 73वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर कहा, “हमारे अलीाबाद में हमारे घर पर एक रेडियो सेट था. मेरे पिता ने मुझे, मेरी बहनों और चचेरे भाइयों के साथ, हुजूर निजाम का भाषण सुनने के लिए रेडियो के सामने बैठाया, जिसमें उन्होंने घोषणा की कि वह सत्ता से हट रहे हैं और हैदराबाद राज्य का भारतीय संघ में विलय कर रहे हैं. भाषण दक्कनी उर्दू में था और हम सभी ने इसे बड़े ध्यान से सुना. और जैसे ही उन्होंने अपना भाषण समाप्त किया. हम सब फूट-फूट कर रोने लगे और बहुत देर तक रोते रहे.”

मेरी मां ने कहा कि भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद निजाम पूरी तरह से खोए हुए लग रहे थे. ा हुआ लग रहा था. उन्होंने बताया, “मैंने पहली बार हुजूर निजाम को उनके पद छोड़ने के बाद देखा. वह सरदार वल्लभभाई पटेल, चक्रवर्ती राजगोपाल चारी और अन्य नेताओं के साथ, एक खुली जीप में फलकनुमा पैलेस के लिए एक जुलूस में गए. रास्ते भर लोग उनका अभिवादन करने के लिए लाइन में लगे रहे. हम सभी ने अलीबाद में अपने घर की छत से जुलूस देखा और हुजूर निजाम ने हमें आखिरी सलाम दिया.”

उन्होंने याद किया कि कैसे निजाम ने उनकी मां के चाचा श्रीनिवास राव की कामना की, जो उस समय राजस्व विभाग में काम कर रहे थे, क्योंकि जुलूस उनके घर से जा रहा था. मेरे चाचा ने ‘पट्टे नामम’ (वैष्णव संप्रदाय के ब्राह्मणों के माथे पर खड़ा तिलक) पहन रखा था और घर के सामने खड़े थे. हुजूर निजाम ने उन्हें पहचान लिया और हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया.

निजाम के लिए मेरी माँ के मन में जिस तरह का सम्मान था, उस पर मुझे हमेशा आश्चर्य होता था. इस पर वह कहती हैं, “क्यों नहीं? हम निजाम जमाना (अवधि) के दौरान खुश थे. कोई हत्या, बलात्कार और चोरी नहीं होती थी, जो अब हम तेलंगाना में दिन-ब-दिन देख रहे हैं. यदि अपराध की ऐसी कोई दुर्लभ घटना होती, तो सजा बहुत कठोर होती. छोटे अपराधों के लिए भी ‘जुर्माना’  था.”

मेरी मां इस आरोप का खंडन करती हैं कि मीर उस्मान अली खान सांप्रदायिक और हिंदू विरोधी थे. उन्होंने कहा कि निजाम ने अपने शासन में कभी भी मुसलमानों और हिंदुओं के बीच भेदभाव नहीं दिखाया. उन्होंने बताया, “उन्होंने कई मंदिरों के निर्माण के लिए धन दिया और उनके रखरखाव के लिए भुगतान किया. वह सरकार में हिंदू और मुस्लिम कर्मचारियों के प्रति समान व्यवहार करते थे.”

उन्होंने उल्लेख किया कि हमारे कई रिश्तेदार उनके प्रशासन का हिस्सा थे. मां बताती हैं, “मुझे याद है कि हमारा एक करीबी रिश्तेदार, गुडा श्रीराम पंडित, निजाम सरकार की वित्त शाखा में काम कर रहा था. निजाम के हर जन्मदिन पर, सभी कर्मचारियों को, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, अशरफी (सोने के सिक्के) मिलती थी और मिठाइयाँ बांटी जाती थीं. नजराना के रूप में उन्हें निजाम से मोतियों का एक थैला भी मिलता था. उनकी पत्नी के पास इन उपहारों से बने कई मोतियों के हार और चूड़ियाँ थीं.”

मेरी माँ भी एक दिलचस्प किस्सा सुनाती हैं, जो उन्हें बचपन में आसफजाही वंश के बारे में बताया गया था, लेकिन इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं है. उन्होंने बताया, “पहले आसफ जाही के शासन के दौरान, एक साधु उनके पास आया और कुछ खाने की भीख मांगी. राजा ने उसे कुछ दही चावल भेंट किए. छह सर्विंग्स के बाद साधु ने पर्याप्त कहा. लेकिन राजा ने सातवीं सेवा जारी रखी, साधु ने उसे एक तरफ धकेल दिया और कहा कि सातवीं पीढ़ी के बाद राजवंश राज्य पर शासन नहीं कर पाएगा. इस तरह आठवें निजाम हैदराबाद के अंतिम शासक थे.”

उन्होंने कहा कि निजामों ने हैदराबाद के लोगों की बहुत सेवा की है - मुसी नदी पर उस्मान सागर का निर्माण, उस्मानिया जनरल अस्पताल, उस्मानिया विश्वविद्यालय, राज्य केंद्रीय पुस्तकालय, निजाम राज्य रेलवे आदि.

वो याद करते हुए कहती हैं, “हैदराबाद की सड़कें कभी इतनी गंदी नहीं हुआ करती थीं, जितनी अब हैं. बलदिया (नगर पालिका) के कार्यकर्ता प्रतिदिन सफाई से सड़कों की सफाई करते थे और धूल को बढ़ने से रोकने के लिए पानी का छिड़काव करते थे. वह याद करती है कि हर शाम, वे तुरंत लैंपपोस्ट पर तेल के दीये जलाते थे, क्योंकि उन दिनों बिजली नहीं थी.

निजाम सरकार ने राशन व्यवस्था का सख्ती से पालन किया. “हालांकि, राशन की दुकानों में पर्याप्त मात्रा में ज्वार और नागपुर चना (छोला) थे.”

उन्हें इस बात का पछतावा है कि लोगों के लिए इतना कुछ करने के बावजूद, अंतिम दिनों में निजाम की बदनामी हुई और वह इसका आरोप निजाम शासन के अंतिम दिनों में रजाकारों के उदय पर लगाती हैं, जिन्होंने उन्हें असहाय बना दिया.

उन्होंने कहा, कि रजाकारों ने मुसलमानों के बीच अतिवादी तत्वों को तैयार किया, उन्हें हथियारों में प्रशिक्षित किया और उनका इस्तेमाल हिंदुओं पर हमला करने के लिए किया. ये युवक अपने हथियारों को खब्रिस्तान (कब्रिस्तान) में ‘गोरियों’ (कब्रों) के पीछे छिपाते थे और हिंदुओं को अंधाधुंध मारने के लिए सड़कों पर घूमते थे.

उन्होंने याद किया कि कैसे हमारे कुछ रिश्तेदार पुराने शहर में रजाकारों के हमलों का मुकाबला करने के लिए एक दूसरे के साथ समन्वय करते थे. उन्होंने कहा, “वे छतों पर लाठियां और पत्थर पकड़कर रात भर चौकसी बरत रहे थे. महिलाएं रजाकार हमलों का मुकाबला करने के लिए मिर्च पाउडर भी अपने पास रखती थीं.”

उन्होंने कहा कि उसके पिता, जो उस समय चंद्रयानगुट्टा के एक उर्दू माध्यम के स्कूल में विज्ञान शिक्षक के रूप में कार्यरत थे, को भी एक दिन रजाकारों ने पीटा था. लेकिन उन्हें स्थानीय मुस्लिम परिवारों ने बचा लिया था. वे पूरे दिन स्कूल में रहे और अपने मुस्लिम दोस्तों का धन्यवाद करते हुए घर लौट आए.