मौलाना महमूद हसन थे राष्ट्रवादी शिक्षा और हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 30-11-2021
मौलाना महमूद हसन
मौलाना महमूद हसन

 

साकिब सलीम

मौलाना महमूद हसन 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत के सबसे शानदार मुस्लिम विद्वानों में से एक थे. इस्लामी धर्मग्रंथों पर उनके अध्ययन को काफी प्रतिष्ठा मिली थी और उन्होंने देवबंद (उत्तर प्रदेश) में दारुल उलूम का नेतृत्व किया, जो दुनिया में इस्लामी शिक्षा के सबसे प्रमुख संस्थानों में से एक है. जो बात उन्हें सबसे अलग करती है वह यह है कि हसन ने इस्लामी विद्वानों और पश्चिमी शिक्षित भारतीय मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने की कोशिश की. जबकि पहले परंपरावादियों ने सर सैयद के नेतृत्व वाले अलीगढ़ आंदोलन को विधर्मी बताते हुए आरोप लगाया था, हसन ने तर्क दिया कि पश्चिमी शिक्षा समस्या नहीं थी बल्कि उस शिक्षा का नतीजा उपनिवेशवादियों का गुलाम बनना थी.


1916 में, ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों ने तुर्की, जर्मनी और अफगानिस्तान की मदद से इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक 'साजिश' का खुलासा किया. 'षड्यंत्र' को 'सिल्क लेटर कॉन्सपिरेसी' कहा गया और बताया गया कि हसन इसके मास्टरमाइंड थे. उन्हें मौलाना हुसैन अहमद मदनी के साथ माल्टा द्वीप पर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था.


प्रथम विश्व युद्ध के बाद, 1920 में उन्हें रिहा कर दिया गया. महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं ने उनका जोरदार स्वागत किया. इस समय के आसपास, गांधी नृशंस जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद खिलाफत और असहयोग आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे. हसन ने इन आंदोलनों के प्रति अपनी निष्ठा की घोषणा की और असहयोग की वकालत की.

आंदोलन के दौरान, गांधी, शौकत अली, मोहम्मद अली, डॉ अंसारी और अन्य ने अलीगढ़ के छात्रों से कहा कि या तो कॉलेज प्रशासन को सरकारी फंडिंग छोड़ने को मजबूर करें या कॉलेज छोड़ दें. मौलाना महमूद हसन ने इस अपील का समर्थन किया और 29 अक्टूबर, 1920 को जब अलीगढ़ के राष्ट्रवादी छात्रों ने एक राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में जामिया मिलिया इस्लामिया कहा गया, कॉलेज छोड़ने के बाद, उन्हें समारोह की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया था.

इस अवसर पर एक अध्यक्षीय भाषण तैयार किया गया, जिसे हसन के एक छात्र पढ़ा क्योंकि वह खुद वर्षों की कैद की वजह से बेहद बीमार थे. यह संबोधन पिछली सदी के सबसे प्रभावशाली इस्लामी विद्वानों में से एक के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विचारों का सार प्रस्तुत करता है. उस दिन उन्होंने अपने श्रोताओं को जो बताया वह आज के भारत के लिए भी प्रासंगिक है.


मौलाना महमूद हसन ने शिक्षा के उपनिवेशवाद के चंगुल से निकालने की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने कहा कि अंग्रेजी, पश्चिमी विज्ञान, दर्शन और अन्य यूरोपीय ज्ञान का अध्ययन करना हानिकारक नहीं है,औरअनुभवों ने साबित कर दिया है कि मैकाले की भविष्यवाणी के ही मुताबिक, अंग्रेजी शिक्षा ने एक ईसाई यूरोपीय साम्राज्य के लिए गुलाम पैदा कर रही है. इन संस्थानों से शिक्षा प्राप्त करने वाले लोग पूर्व की संस्कृति और धर्म का मजाक उड़ाते हैं. हसन ने इस शिक्षा की तुलना उस दूध से की जिससे छात्रों को धीमा जहर पिलाया जा रहा है.


एक राष्ट्र, जो अपनी संस्कृति को संरक्षित करना चाहता है, उसे विदेशियों की सहायता पर भरोसा नहीं करना चाहिए. उनकी दृष्टि में शिक्षा से ही कोई राष्ट्र समृद्ध और आगे बढ़ सकता है. लेकिन, हसन ने चेतावनी दी, एक दुश्मन द्वारा नियंत्रित शिक्षा कभी भी एक राष्ट्र का विकास नहीं कर सकती है, बल्कि यह उनके लिए 'सस्ते गुलाम' पैदा करेगी. विदेशी हस्तक्षेप से मुक्त शिक्षा, जो छात्रों को धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में सिखाती है, समग्र विकास के लिए जरूरी है.

इसके बाद उन्होंने उन लोगों को जवाब दिया, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू-मुस्लिम एकता के खिलाफ बहस करते थे. इन विरोधियों ने तर्क दिया कि इस्लामी धर्मग्रंथ मुसलमानों को हिंदुओं के नेतृत्व को स्वीकार करने और उनके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने की अनुमति नहीं देते हैं. मुझे यह समझाने की जरूरत नहीं है कि ये अंग्रेज एजेंट थे, जो साम्राज्य के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष को कमजोर करना चाहते थे.

मौलाना महमूद हसन ने कुरान के संदर्भ का इस्तेमाल इस बात को समझाने के लिए किया कि मुसलमानों के प्रति हिंदुओं और सिखों के गठजोड़ का अल्लाह की दुआ के रूप में स्वागत किया जाना चाहिए. उन्होंने तर्क दिया कि कुरान ने मुसलमानों को उन गैर-मुसलमानों से लड़ने का निर्देश नहीं दिया, जो न तो उन्हें अपने धर्म का पालन करने से रोकते हैं और न ही उन्हें अपने घरों से बाहर निकलने के लिए मजबूर करते हैं. बल्कि मुसलमानों को ऐसे गैर-मुसलमानों के साथ न्याय और शिष्टता से व्यवहार करने का निर्देश दिया जाता है, जो नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. उन्होंने तर्क दिया कि मुसलमानों को गैर-मुसलमानों से मित्रता करने या उनके साथ गठबंधन करने से नहीं रोका जाता है यदि वे नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.

संक्षेप में इस संबोधन में राष्ट्रवादी शैक्षिक पाठ्यक्रम की अहमियत बताई गई थी. जिसने अपने छात्रों को अपनी संस्कृति और धर्म पर गर्व करना और राष्ट्र के भविष्य के विकास के लिए हिंदू मुस्लिम एकता के बारे में बताया है.

(साकिब सलीम इतिहासकार और लेखक हैं)