मौलाना बरकतुल्लाहः नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अग्रदूत

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 2 Years ago
मौलाना बरकतुल्लाह
मौलाना बरकतुल्लाह

 

साकिब सलीम

“एक और मौलवी, लेकिन पूरी तरह से एक अलग प्रकार बरकतुल्लाह थे, जिनसे मैं पहली बार बर्लिन में मिला था. वह एक खुशमिजाज बूढ़े व्यक्ति थे, बहुत उत्साही और बहुत ही मिलनसार.” भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1926 में मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली के साथ अपनी पहली मुलाकात को इन्हीं शब्दों के साथ याद किया.

मौलाना बरकतुल्लाह, जिनका जन्म 7 जुलाई, 1854 को हुआ था, उन शुरुआती भारतीय क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन पर जुझारू हमला करने के लिए विदेशी धरती का इस्तेमाल किया था. एक तरीका जिसे बाद में कई क्रांतिकारियों ने अपनाया, जिनमें सबसे प्रसिद्ध सुभाष चंद्र बोस थे.

एक मदरसा स्नातक मौलाना ने बाद में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक ईसाई मिशनरी स्कूल में भी पढ़ाई की. 1887 में मौलाना इंग्लैंड चले गए, जहां उनका परिचय गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नए विचारों और क्रांतिकारियों से हुआ. लंदन में, उन्होंने कई भारतीय क्रांतिकारियों के एक प्रमुख पिता श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ भी समय बिताया.

इंग्लैंड में मौलाना ने ओरिएंटल यूनिवर्सिटी, लीवरपूल में अरबी पढ़ाने का काम संभाला. यहां, उन्होंने दुनिया भर के उपनिवेश-विरोधी कार्यकर्ताओं से मिलना शुरू किया, जिससे उन्हें एक उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवादी विश्व दृष्टिकोण विकसित करने में मदद मिली. मौलाना बाद में यूएसए गए और वहां छह साल तक पढ़ाया. इस बीच, उन्होंने वहां भारतीय प्रवासियों के बीच ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रचार करना शुरू कर दिया. मौलाना अब तक भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच एक जाना-पहचाना नाम बन चुके थे. लोग उन्हें राष्ट्रवादी लोकप्रिय नेताओं में से एक के रूप में पहचानने लगे.

इस समय के आस-पास मौलाना ने राष्ट्र, समुदाय और स्वतंत्रता संग्राम के अपने विचार को भी विकसित किया. मौलाना ने अपने रिसाला ‘हिंदू वा मुसलमान दर हिंदुस्तान’ में लिखा है, “भारत में रहने वाले मुसलमानों के दो कर्तव्य हैं. एक देश के लिए कर्तव्य और दूसरा उनके धर्म का. देश के प्रति प्रेम की मांग है कि धन और अपने प्राणों से देश की सेवा करने से पीछे नहीं हटना चाहिए. मानव जाति का इतिहास गवाह है कि जिसे देश के प्रति प्रेम नहीं है, वह मानवता से रहित है .... इन धार्मिक और देश के कर्तव्यों की पूर्ति केवल एक कार्य पर निर्भर करती है, हिंदुओं और भारतीय मुसलमानों के बीच पूर्ण एकता.”

अपने राष्ट्रवादी संदेश को अपने साथ लेकर मौलाना जापान जाते थे, जहां उन्होंने अपने संदेश का प्रचार करते हुए कुछ समय पढ़ाया भी था. दिलचस्प बात यह है कि उनके द्वारा रखी गई नींव का इस्तेमाल बाद में रास बिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस ने जापान को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के केंद्र के रूप में स्थापित करने के लिए किया था. 1913 में, वे यूएसए लौट आए और लाला हरदयाल के साथ गदर पार्टी का गठन किया.

1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ और जर्मनी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था. ब्रिटिश सेना के कई भारतीय सैनिकों को जर्मनी ने विभिन्न युद्ध सीमाओं पर पकड़ लिया था. बरकतुल्लाह ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर, इन युद्धबंदियों (पीओडब्ल्यू) को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए मनाने के लिए इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की बर्लिन समिति का गठन किया. पीओडब्ल्यू की भर्ती के इस मॉडल को बाद में सुभाष चंद्र बोस ने और अधिक सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया. इन सैनिकों के साथ अफगानिस्तान के रास्ते भारत पर हमला करने की योजना थी. योजना के हिस्से के रूप में, बरकतउल्ला, राजा महेंद्र प्रताप और अन्य क्रांतिकारियों के साथ अफगानिस्तान के राजा का समर्थन करने के लिए अफगानिस्तान का दौरा किया.

1915 में काबुल में स्वतंत्र भारत की एक अस्थायी सरकार के गठन के रूप में योजना को प्रारंभिक सफलता मिली. राजा महेंद्र प्रताप को इसके अध्यक्ष के रूप में चुना गया, बरकतुल्लाह प्रधान मंत्री थे और मौलाना ओबैदुल्ला सिंधी गृह मंत्री थे. एक अंतरिम सरकार बनाने और फिर पीओडब्ल्यू की मदद से ब्रिटिश क्षेत्रों पर हमला करने का मॉडल बाद में सुभाष चंद्र बोस ने अपनाया. जब उन्होंने आरजी हुकुमत आजाद हिंद का गठन किया और भारत पर हमला करने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की. दिलचस्प बात यह है कि सुभाष चंद्र ने पहले जर्मनी के साथ गठबंधन करने की भी कोशिश की और बाद में जापान की ओर चले गए.

इस बीच, तुर्की और जर्मनी को युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा. अफगानिस्तान और भारत की राजनीतिक स्थिति में भी भारी बदलाव आया. भारत में, गांधी अहिंसा के सिद्धांत के साथ एक नए नेता के रूप में उभरे, जिसने बरकतुल्लाह जैसे क्रांतिकारियों की विचारधारा का खंडन किया. यूरोप और अन्य जगहों की स्थिति ने इन क्रांतिकारियों को भारत पर बाहर से हमला करने की अनुमति नहीं दी.

फिर भी उनके जैसा राष्ट्रवादी हार नहीं मानी. एक आदमी को मारा जा सकता है, लेकिन उसे कभी हराया नहीं जा सकता. बरकतुल्लाह और राजा महेंद्र, विश्व युद्ध के बाद मास्को गए और लेनिन से मिले और संयुक्त राज्य सोवियत रूस (यूएसएसआर) का समर्थन हासिल किया. बरकतउल्ला ने एक बयान में कहा कि हालांकि वह कम्युनिस्ट नहीं थे, लेकिन उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतिकारी होने के नाते वे यूएसएसआर के ‘स्वाभाविक सहयोगी’ थे.

यूएसएसआर के आश्वासन के साथ, वे काबुल लौट आए. जब वे अभी भी ब्रिटिश साम्राज्य पर अंतिम प्रहार की तैयारी कर रहे थे, अफगानिस्तान सरकार ने अंग्रेजों के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर कर लिए, जो क्रांतिकारियों की आशाओं के लिए एक बड़ा झटका था.

इसके बाद अगले छह वर्षों तक बरकतउल्ला मध्य एशिया, यूरोप और अमेरिका में भारतीय हितों के लिए प्रचार करते रहे. उन्होंने 27 सितंबर 1927 को सैन फ्रांसिस्को में अंतिम सांस ली, जहां वे गदर पार्टी के लिए प्रचार कर रहे थे.

भारत का यह महान सपूत देश से बाहर, अपने घर से दूर इस उम्मीद में रहा कि वह अपनी मातृभूमि को आजाद देखेगा. लेकिन, जैसा कि इफ्तेखार आरिफ कहते हैं:

अजाब ये भी किसी और पर नहीं आया

कि एक उम्र चले और घर नहीं आया