प्रो. अख्तरुल वासे
हिन्दुस्तान की जमीन पर मुसलमानों के आगमन के बाद शुरू हुई सांस्कृतिक एकता की प्रक्रिया सूफीवाद के आंदोलन और प्रचार के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक थी. संस्कृति और सभ्यता की यह प्रक्रिया समय के साथ विकसित हुई है और इसने भारतीय-इस्लामी सभ्यता का रूप ले लिया है.
यह भारतीय और इस्लामी परंपराओं की गूढ़ सुंदरता के बीच एक संबंध था, जिसने दोनों सभ्यताओं के चेहरे और आत्मा दोनों को प्रभावित किया. इसी की वजह से नई रूह (आत्मा), अख्लाकी (नैतिक) और जमालियाती (खूबसूरत) ताकतें प्रकट हुईं, जिनके द्वारा जीवन का एक नया परिदृश्य अस्तित्व में आया, जिसने हिन्दुस्तान की शायरी, संगीत, चित्रकला और वास्तुकला पर गहरा प्रभाव छोड़ा.
सूफी इस्लाम के गूढ़ पहलुओं के प्रतिनिधि और प्रवक्ता थे, जो सत्य के रहस्योद्घाटन, आंतरिक गुणों और ईश्वर के सभी प्राणियों के लिए असीम प्रेम पर जोर देते थे. एकेश्वरवाद और वहदते आदम (मानव एकता) इन सूफियों के दो बुनियादी सिद्धान्त थे. इन चिश्ती सिलसिले के सूफी बुजुर्गों में से अधिकांश धर्मांतरण में सहायक नहीं थे,
लेकिन आध्यात्मिक और नैतिक जुड़ाव रखते थे, जिन्होंने पंथ या जाति की परवाह किए बिना स्थानीय ललोगों के साथ संवाद स्थापित करने और इंसानों को आध्यात्मिक खुशी लाने के लिए एवं मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए आमंत्रित किया.
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती गरीब नवाज, सूफीवाद की आकाशगंगा के चमकते सितारे थे, जिन्होंने भारत के लोगों के दिलों में सच्ची आध्यात्मिकता और निस्वार्थ सेवा की भावना पैदा की. उनका जन्म 18 अप्रैल, 1143 को ईरान के सीस्तान प्रांत के संजर गांव में हुआ था. जब वे 13 साल के थे, तब उनके पिता का इंतकाल हो गया. ख्वाजा साहब का रुझान बचपन से ही आध्यात्मिक सच्चाई और दुनियादारी से दूरी की ओर था. उन्हें अपने पिता की संपत्ति में से एक छोटा सा बगीचा और आटा चक्की विरासत में मिली थी, जिसे उन्होंने बेच दिया और उससे प्राप्त होने वाले धन को गरीबों में बांट दिया. इस प्रकार, उनके पास जो कुछ भी सांसारिक संपत्ति थी, उससे छुटकारा पाने के बाद, वे बुखारा और समरकंद के लिए निकल पड़े, जो उन दिनों इस्लामी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे. रास्ते में उनकी मुलाकात महान सूफी संत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई और वे उनके शिष्य बन गए. ख्वाजा हारून चिश्ती वंश से जुड़े थे, इसलिए ख्वाजा गरीब नवाज ने इसी वंश को अपना लिया.
ख्वाजा साहब का दिल मानव प्रेम और करुणा से भरा हुआ था. बचपन में ही किसी रोते हुए बच्चे को देखकर वह परेशान हो जाते थे और उसकी माँ से उसे तुरन्त दूध पिलाने को कहते थे.
वह तीन-चार साल के थे, तब से भोजन करते वक्त दूसरों को भी अपना खाना खिलाया करते थे. उसी समय की बात है. जब ईद के दिन वे बहुत अच्छे कड़े पहन कर ईदगाह जा रहे थे.
रास्ते में उन्हें फटे पुराने कपड़ों में एक बच्चा दिखाई दिया. वह रोने लगे और उन्होंने अपने कपड़े उस बच्चे को पहना दिए और उसे अपने साथ ईदगाह ले गए.
लगभग 20 वर्ष अपने मुर्शिद (गुरु) की सेवा करने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज ने उनसे जाने की अनुमति मांगी. उनके पीर ने उन्हें निर्देश दिया कि ‘‘ऐ मोईनुद्दीन! अब जबकि तुमने दरवेशी (संन्यास) अपना ली है, तो दरवेशों की तरह ही कर्म करना. यह कर्म हैं गरीबों के साथ प्रेम और करुणा का व्यवहार करना, जरूरतमंदों की सेवा करना, बुराईयों से बचना और दुख एवं पीड़ा में दृढ़ रहना.
इसी प्रकार धार्मिक और आध्यात्मिक विज्ञान में परिपक्व होने के बाद, ख्वाजा साहब फिर से एक बार यात्रा पर निकल पड़े, जिसका गंतव्य भारत में अजमेर था, जहां वह 591 हिजरी में पहुंचे. वह एक अंजान जगह थी, लेकिन उन्होंने शीघ्र ही स्थानीय लोगों के साथ घनिष्ठता स्थापित कर ली और अच्छे संबंध बना लिए. उनका प्रभाव तेजी से फैलने लगा, विशेषरूप से दलितों में. कुछ ही दिनों बाद ख्वाजा साहब ने यहां एक खानकाह (मठ) की स्थापना की, जो उनके मानव प्रेम और भाईचारे के संदेश के प्रचार व प्रसार का केन्द्र बन गई. उन्होंने कव्वाली की शक्ल में एक नई तरह के आध्यात्मिक संगीत को रिवाज दिया और उसे अंतरात्मा की जाग्रति का साधन बनाया.
ख्वाजा मोइनुद्दीन ने कठोर तपस्या और इबादत (उपासना) की जिंदगी गुजारी और सभी सांसारिक सुखों से दूर रहे. उन्होंने कभी भरपेट खाना नहीं खाया. कई-कई दिन कुछ नहीं खाते थे और यदि कुछ खाते थे, तो वह पानी में भिगोई हुई सूखी रोटी होती थी.
उन्होंने सारी जिन्दगी सिर्फ एक कपड़े में गुजारी. वह फट जाता, तो उसे स्वयं सिल लेते थे. और इस तरह सिलते-सिलते उसका वजन मूल से कई गुना बढ़ जाता था. वह पूरी रात खुदा की इबादत (उपासना) और याद में गुजारते थे.
उनके मुरीद (शिष्य) ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के अनुसार, वे 20 साल तक ख्वाजा की सेवा में रहे और उन्हें कभी भी उनके स्वयं के स्वास्थ्य के लिए दुआ मांगते नहीं देखा.
इसकी जगह, उन्होंने दुख और पीड़ा के लिए प्रार्थना की. एक दिन मैंने मुर्शिद (गुरू) से पूछा कि वह ऐसी प्रार्थना क्यों कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि दुख से विश्वास में परिपक्वता आती है और मनुष्य ऐसे पवित्र हो जाता है, मानो वह अभी पैदा हुआ हो. दूर-दूर से लोग आपके पास शांति और आश्रय की तलाश में आने लगे और इस तरह उन्हें गरीब नवाज कहा जाने लगा.
एक रात ख्वाजा गरीब नवाज अपने कमरे में दाखिल (प्रवेश) हुए, प्रतिदिन की तरह दरवाजा अंदर से बंद कर लिया और खुदा की याद में डूब गए. वे लगातार पांच दिनों तक बाहर नहीं निकले.
मुरीद (शिष्य) और अकीदतमंद (भक्त) भी चिंतित हो गए और छठे दिन जब उन्होंने दरवाजा तोड़ा, तो उन्होंने देखा कि ख्वाजा साहब का निधन हो गया है. यह 11 मार्च 1233 ई. अर्थात् 6 रजब 633 हिजरी की तारीख थी. उन्हें उन्हीं की हुजरे (कमरे) में दफनाया दिया गया, जहां बाद में उनका मजार (मकबरा) बनाया गया.
ख्वाजा साहब की मृत्यु के बाद, उनके भक्तों ने उनकी याद में एक वार्षिक उर्स का आयोजन करना शुरू किया, जो 1 रजब से 6 रजब तक चलता है.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)