75 का भारतः पचास का दशक देश के कुछ गलत फैसलों का भी दशक था

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 01-08-2022
भाखड़ा-नंगल बांध का उद्घाटन करते नेहरू जी (फोटो सौजन्यः विकीमीडिया कॉमन्स)
भाखड़ा-नंगल बांध का उद्घाटन करते नेहरू जी (फोटो सौजन्यः विकीमीडिया कॉमन्स)

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

आजादी के ठीक बाद के पांच साल ऊर्जा और उम्मीदों के साथ ही उदासियों के साल भी थे. लेकिन इसके बाद 1950 का दशक भी कुछ बेहतर नहीं कहा जा सकता. बेशक इस समय हमने राष्ट्र के निर्माण की नींव डालनी शुरू की. लेकिन बंटवारे के जख्म से अभी भी लहू रिस रहा था. पचास का दशक सियासी पैंतरेबाजियों, व्यक्तिपूजा, आत्म-तुष्टियों और महत्वाकांक्षाओं के दौर था.

लेकिन यह वही वक्त भी था जब देश के सामने आर्थिक, राजनैतिक, अंतरराष्ट्रीय किस्म की चुनौतियां दरपेश थीं. कुछ विशेषज्ञों के लिए यह दौर ऐसा था जिसे वह गलत कदमों का दशक बताते हैं. इतिहासकार और लेखक सुनील खिलनाणी लिखते हैं, “समाजवाद, बड़े औद्योगिक प्लांट, बड़े बांध, गुटनिरपेक्षता, नौकरशाही और बाबूशाही इसी दौर में हुए. लेकिन सचाई यही है कि यह सब जितना दिखता है उससे अधिक जटिल है.”

हिमाचल प्रदेश में पंडित नेहरू

पचास के दशक की शुरुआत बेचैनियों से भरी थी. गांधी जी की हत्या हो चुकी थी और दिसंबर 1950 में पटेल का निधन भी हो गया था. पटेल के साथ नेतृत्व के मसले पर नेहरू के कांग्रेस पार्टी में मतभेद जगजाहिर थे. खिलनाणी लिखते हैं, “हालांकि, नेहरू बाहरी चुनौतियों से जूझ रहे थे लेकिन यह भी सच है कि पार्टी के भीतर सरकार पर भी नेहरू को पकड़ बनाए रखने के लिए जूझना पड़ रहा था.”

यह सच है कि कांग्रेस के भीतर ही कई सहयोगी नेहरू के खिलाफ थे और क्षेत्रीय क्षत्रपों के पास असली शक्ति आ गई थी. पार्टी के बाहर वह हिंदू दक्षिणपंथ, आर्थिक उदारवादियों, सोशलिस्टों, कम्युनिस्टों के साथ ही भाषायी पहचान के लिए लड़ रहे लोगों और आंदोलनकारियों के निशाने पर भी थे. खिलनाणी ने लिखा है, “ऐसी कोई साझा राजनैतिक सर्वानुमति नहीं थी जिस पर वह भरोसा कर सकते थे. आक्रामक रूप से सामाजिक परिवर्तनों और कथित राष्ट्र निर्माण के कामों के लिए आईसीएस के नेतृत्व वाली नौकरशाही पर भरोसा करना नेहरू के लिए आवश्यक था.”

हालांकि, 1950 के दशक में देश ने तीन मौलिक उपलब्धियां हासिल की. देश की अखंडता और राज्यों का विलय और भारत की संप्रभुता को स्थापित करना इस दिशा में सबसे अहम उपलब्धि मानी जानी चाहिए. कानून का राज स्थापित किया गया जो अंग्रेजों के दमनकारी कानूनों से अलग होना था.

कानून 'आरक्षण' के माध्यम से जाति को खत्म करने और ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने की महत्वाकांक्षा व्यक्त करने का साधन बन गया. इसी तरह, हिंदू कानून के सुधार के माध्यम से अन्यायपूर्ण धार्मिक प्रथाओं को भी बदल दिया गया. कानून को आमतौर पर समाज में परिवर्तन के बजाय स्थिरता के सिद्धांत के रूप में देखा जाता है.

इस दशक की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि परमाणु ऊर्जा, योजना आयोग और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का गठन रहा. इसके साथ ही आइआइटी जैसे संस्थान भी इस दौर में ही स्थापित किए गए. हालांकि, इस तरह के नए संस्थानों के सृजन ने एक खुले समाज को बनाए रखने में मदद की.

भारत की इस दौर की तीसरी सबसे अहम उपलब्धि इस उपमहाद्वीप में अपेक्षया शांति स्थापित करना और शांति बनाए रखना और इसके साथ ही एक लोकतांत्रिक सरकार के तहत आर्थिक स्थिरता कायम रखना रहा. संभवतया इस उपलब्धि को कुछ लोग मानने इनकार कर दें लेकिन इसके संदर्भ में हमें दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एशिया के बाकी देशों की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए. खिलनाणी ने लिखा है, “उस दौर में पूरे एशिया में दो तरह का चलन थाः कुछ इलाके ऐसे थे जहां गृहयुद्ध या राज्यों के बीच युद्ध छिड़ गया और वहां अधिनायकवाद स्थापित हो गया. भारत में भी ऐसी चुनौतियों पेश आई लेकिन देश इस चुनौती से पार पाने में सफल रहा.”

चीनी राष्ट्रपति चाऊ एन लाई के साथ नेहरू का पंचशील नाकाम रहा

बेशक, पाकिस्तान खुद लोकतंत्र के अपने ओढ़े हुए खोल से निकल गया और 1958 में जनरल अयूब खान सैन्य तानाशाह बन बैठे. इसके बाद से पाकिस्तान की सेना ने पाकिस्तान पर हमेशा वर्चस्व बनाए रखा और पाकिस्तान का अधिकतर वक्त बजाए चुनी हुई सरकार के, अधिनायकवादियों के हाथों शासन में गुजरा है.

भारत किसी तरह मुद्रास्फीति से बच निकलने में सफल रहा और यहां एक निर्वाचित सरकार काम कर रही थी. इस कामयाबी के बगैर भारत की आगे की यात्रा दुश्वार हो जाती.

लेकिन इस दशक में हमारे मत्थे कुछ बड़ी नाकामियां भी हैं. मसलन इस दशक की शुरुआत में भारत में साक्षरता की दर उस समय की आबादी का 18 फीसद था. एक दशक के बाद यह आकंड़ा महज 10 फीसद सुधर पाया और देश की 85 फीसद महिला आबादी उस वक्त तक यानी साठ के दशक की शुरुआत तक निरक्षर ही रही. अगर उस वक्त के चीन से भारत की तुलना की जाए तो उस समय चीन की प्रतिव्यक्ति जीडीपी भारत की तुलना में कम थी. लेकिन चीन ने अपनी महिला आबादी की शिक्षा पर काफी जोर दिया. इस दशक में चीन में महिला साक्षरता की दर 3.5 फीसद सालाना की दर से बढ़ी और साठ के दशक की शुरुआत तक चीन की 40 फीसद से अधिक महिला आबादी साक्षर हो चुकी थी.

यहां तक कि दूरद्रष्टा कहे जाने वाले पंडित नेहरू की भी निगाह प्राथमिक शिक्षा को लेकर व्यापक नहीं थी और उनके विस्तृत भाषणों और पत्राचार में प्राथमिक शिक्षा का नाममात्र का उल्लेख ही मिलता है. मौलाना आजाद के शिक्षा मंत्रित्व में यह मंत्रालय अपने आवंटित फंड का पूरा उपयोग नहीं कर पाता था.

देश में भाषा के आधार पर आंदोलन भी इसी दशक में शुरू हुआ था. स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय समूहों ने भाषायी आधार पर प्रांतीय पुनर्गठन के लिए आंदोलन करना शुरू कर दिया. 1952 में मद्रास प्रेसीडेंसी के तेलुगु भाषी क्षेत्र के एक नेता श्रीरामुलु की मृत्यु एक विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई, तो सरकार ने तुरंत पुराने मद्रास प्रेसीडेंसी से एक नया तेलगु भाषी राज्य-आंध्र प्रदेश बनाने के लिए सहमत हो गई.

1956 में, फजल अली आयोग की सिफारिश पर, भाषायी विभाजनों को आगे बढ़ाया गया, भारत को 14 भाषा-आधारित राज्यों में विभाजित किया गया: केरल को मलयालम बोलने वालों के लिए, कर्नाटक को कन्नड़ बोलने वालों के लिए, और मद्रास (वर्तमान में तमिलनाडु) को तमिल बोलने वालों के लिए बनाया गया था.

1960 में पुराने बॉम्बे प्रेसीडेंसी को एक गुजराती भाषी गुजरात और एक मराठी भाषी महाराष्ट्र में विभाजित किया गया था.

बाद में, 1966 में पंजाब के पुराने प्रांत को भी एक पंजाबी भाषी (सिख) पंजाब और दो छोटे राज्यों, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में विभाजित किया गया था. अगले 40 वर्षों में, अतिरिक्त भाषा-आधारित राज्यों के लिए क्षेत्रीय अभियान प्रकट होते रहे और सफल होते रहे. और इसे भारत के अंदर विविधता का परिचायक तो बताया जाता रहा लेकिन इससे देश के समावेशन की प्रवृत्ति कमजोर भी हुई.

नेहरू देश में भूमि सुधार के मसले पर भी नाकाम रहे. देश की प्राथमिक शिक्षा की नीतियों की तरह भूमि सुधार का मसला भी राज्य विधानसभाओं के हाथों में ही रहा. हालांकि पचास के दशक में देश में केंद्र के साथ ही अधिकतर राज्यों में कांग्रेस का ही शासन था, ऐसे में नेहरू प्राथमिक शिक्षा और भूमि सुधार पर महत्वपूर्ण कानून बनवा सकते थे. इसका प्रभाव देश में कृषि उत्पादकता में कमी और आर्थिक समानता पर पड़ा जिसका खामियाजा देश अभी भी भुगत रहा है.

हालांकि, कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का रवैया शुरू से ही आक्रामक और भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण रहा है और पाकिस्तान की हरकतों ने इस क्षेत्र के विकास और आर्थिक प्रगति पर बुरा अ,सर डाला. नेहरू कश्मीर नीति में नाकाम रहे थे और ऐसा ही चीन को लेकर उनकी नीति भी रही. पचास के दशक मे ही नेहरू के पंचशील का सिद्धांत छीजना शुरू हो गया था और कूटनयिक स्तर पर नेहरू विदेश नीति के इस पेच को समझने में नाकाम रहे.