हम जब आठवीं सदी के अफगानिस्तान या उस समय की शब्दावली में तुखरिस्तान को देखते हैं तो इस दौरान वहां जो बदलाव हुए वे काफी तेज थे और काफी गहरे भी.इनमें कईं तरह की नाटकीयता भी दिखाई देती है.
रशीदुन खिलाफत जब कमजोर पड़ी तो तुर्क शाही ने फिर से अपनी पकड़ मजबूत बना ली.लेकिन काबुल शाह लगतुर्मन कहलाने वाले तुर्क शाही के इस महाराजा ने अभी राजकाज संभाला ही था कि एक नई खिलाफत ने वहां हल्ला बोल दिया.
यह थी अब्बासिद्स खिलाफत। उसने सबसे पहले बल्ख को जीता और फिर काबुल की ओर बढ़ी.उस समय वहां बौद्ध प्रभाव कितना था इसे सिर्फ इससे ही समझा जा सकता है कि अकेले बल्ख में ही एक सौ से ज्यादा बौद्ध मठ थे.यह खिलाफत जब काबुल पहुंचे तो शाह लगतुर्मन को हार समाने दिखने लगी.लगतुर्मन ने इस चुनौती से निपटने का एक दूसरा तरीका निकाला.
उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और अब्बासिद्स खिलाफत की सरपरस्ती भी.साथ ही यह वादा भी किया कि वे हर साल इस खिलाफत को 15 लाख दिरहम की रकम देंगे और बड़ी संख्या में गुलाम भी.
लगतुर्मन के बारे में ज्यादातर इतिहासकारों ने लिखा है कि वह काफी अलोकप्रिय शाह था.यह भी कहा जाता है कि नजराने के तौर पर बड़ी रकम देने के उसके वादे के कारण मुल्क में लगान वसूली इतनी ज्यादा हो गई थी कि लोग त्रस्त थे.
शाह लगतुर्मन का एक वजीर था कलार, एक दिन कलार ने लगतुर्मन की हत्या कर दी और खुद शाह बन बैठा.कलार के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है सिवाय इसके कि वह हिंदुस्तानी था और उसके राज को हिंदू शाही के नाम से जाना गया.
प्रसिद्ध इतिहासकार आर सी मजूमदार का कहना है कि वह एक ब्राह्मण था.बहरहाल उसने अपना राज सिंधु नदी के पार पंजाब और कश्मीर तक फैला लिया था. हालांकि यह भी कहा जाता है कि बुखरिस्तान में उसका शासन काबुल और कंधार घाटी तक ही सीमित था.कश्मीर के इतिहास की प्रामाणिक जानकारी देने वाली पुस्तक राज तरंगिणी में भी कलार का जिक्र आता है. इसके अलावा हिंदू शाही दौर के सिक्के वगैरह भी उपलब्ध हैं.
अफगानिस्तान के पूरे इतिहास में यह कईं जगह दिखाई देता है कि नई ताकतें बड़े नाटकीय ढंग से उभरती हैं और फिर पूरे मुल्क पर छा जाती हैं.ईस्वी सन 870 में ऐसी ही एक नई ताकत उभर जिसे हम सफारिद वंश के नाम से जानते हैं.इसकी स्थापना याकूब बिन लेथ अस्फर ने की थी.
अस्सफर ने शाह कलार को परास्त कर दिया.अस्फर पारसी था और उसे यह साफ दिख रहा था कि अरब से लगातार एक के बाद एक आने वाली फौजों के हमलों से खुद को बचाना आसान नहीं होगा.
उसे लगा कि राजधानी के तौर पर काबुल काफी असुरक्षित है, इसलिए उसने अपनी राजधानी सिंधु नदी के किनारे उदभंदपुरा में बनाई। पाकिस्तान में यह जगह आज भी मौजूद है और उसे हुंद के नाम से जाना जाता है.हालंाकि राजधानी को इतनी दूर ले जाने के बावजूद यह वंश अपने राज को नहीं बचा सका.
ईरान में उस दौर में एक बड़ी ताकत उभरी थी जिसे हम समनिद साम्राज्य के नाम से जानते हैं जिसका शासन 170 साल तक चला। शुरुआत में यह ताकत एक समनिद राज्य के रूप में उभरा जिसकी स्थापना नूह, अहमद, याहया और इलियास नाम के चार भाईयों ने की थी.
ये सभी मूल रूप से पारसी थे लेकिन उन्होंने न सिर्फ इस्लाम स्वीकार कर लिया था बल्कि अब्बासिद्स खिलाफत की सरपस्ती भी मान ली थी,लेकिन जिसे हम समनिद साम्राज्य के नाम से जानते हैं उसकी स्थापना इसी परंपरा से जुड़े सनम खुदा नाम के शख्स ने की थी.
सनम खुदा ने भी पारसी धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार किया था.इसी सनम खुदा ने बुखरिस्तान पर हमला बोला और अस्सफर की सेनाओं को खदेड़ दिया.इस हमले के बाद इस्लाम पूरी तरह उस मुल्क में पहुंच चुका था.जल्द ही वहां बहुत सी चीजें बदलने लग गईं.
मसलन कला की लें.अभी तक वहां कला और स्थापत्य में बौद्ध और यूनानी प्रभाव बहुत स्पष्ट दिखता था, लेकिन जल्द ही उसकी जगह ईरान और अरब के नए इस्लामिक स्थापत्य ने लेनी शुरू कर दी.
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि पूरा बुखरिस्तान एक इस्लामिक मुल्क में तुरंत ही बदल गया. इसमें कईं सदी का वक्त लगा.उस समय किसी देश को जीतने का एक ही अर्थ था उसकी राजधानी और प्रमुख शहरों को कब्जे में ले लो.इस्लाम को प्रभाव भी शुरू में इन्हीं शहरों और उनके आस पास दिखाई दिया.सुदूर घाटियों पहाड़ों पर बसे कबीलों में बौद्ध और पारसी धर्मों का ही बोलबाला रहा.
बाद में वहां भी लोगों ने इस्लाम स्वीकार करना शुरू कर दिया.अफगानिस्तान के इतिहास का अध्ययन करने वाले स्टीफेन टेनर ने लिखा है कि ये लोग किसी जोर-जबरदस्ती के कारण मुसलमान नहीं बने बल्कि धीरे-धीरे वे सहज ही इसे स्वीकार करते गए.अफगानिस्तान का वह कबीलाई इलाका जिसे हम आज नूरिस्तान का नाम से जानते हैं वहां के लोगों ने तो 19वीं सदी के अंत में इस्लाम स्वीकार किया.
जो भी हो इसका एक नतीजा यह हुआ कि अभी तक जो बुखरिस्तान खुद को सांस्कृतिक रूप से सिंधु नदी के उस पास बसे हिंदुस्तान के करीब पाता था, अब वह पश्चिम एशिया के ज्यादा करीब हो गया.यह एक ऐसा बदलाव था जिसका असर आने वाले समय में काफी दूर तक पड़ना था.
....जारी
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )