मैं लखनऊ का चिड़ियाघरः मैंने देखा नवाबी शहर को तांगे से मेट्रो नगरी बनते

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 23-11-2021
लखनऊ का चिड़ियाघर
लखनऊ का चिड़ियाघर

 

एम. मिश्र / लखनऊ

सौ साल पहले 29 नवंबर, 1921 को प्रिंस आफ वेल्स ने नवाबों की नगरी में कदम रखा था और उनकी मेहमानवाजी में कोई कसर न रहे, इसलिए हजरतगंज से सटे इलाके में एक सुंदर पार्क के रूप में सजाया-संवारा गया. प्रिंस के आने की खबर के साथ ही बनारस से पेड़-पौधे मंगाकर सुंदर और छायादार ठिकाने के रूप में मैं तैयार हुआ.

प्रिंस को पशुओं से खास लगाव था, लिहाजा कुछ चुनींदा पशुओं को भी इसमें रखा गया. इस तरह मैं तीन किलोमीटर के दायरे में हरे-भरे पार्क के तोर पर जन्मा. चूंकि मेरी आगोश में बनारस से लाए गए पेड़ लहलहाते थे. इसलिए मुझे लोग बनारसी बाग के नाम से भी पुकारने लगे.

लेकिन प्रिंस वेल्स के आने के बाद से मैं पार्क और फिर प्रिंस आफ वेल्स जूलोजिकल पार्क और मौजूदा समय में नवाब वाजिद अली शाह प्राणि उद्यान यानि चिड़ियाघर के रूप से जाना और पहचाना जाने लगा.

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करीब पांच हजार पेड़ों की छाया के बीच मैंने इस नवाबी शहर को इक्का/तांगा के दौर से गुजरकर मेट्रो युग में पहुंचते हुए देखा है. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है. यही कोई तीन दशक पहले तक नरही गेट की ओर इक्कों की कतार मैंने देखी.

इस पर सवार लोग अपने परिवारों के साथ आते और अब लग्जरी गाड़ियों से आने वाले लोगों की मेहमानवाजी कर रहा हूं. ब्रिटिश हुकूमत के दौर में तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर सर हरकोर्ट बटलर ने मेरी स्थापना की थी.

हालांकि मेरी नींव की बात करें, तो यह तीन सदी पुरानी है. 18वीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने बाग के रूप न सिर्फ मेरी नींव रखी, बल्कि बारादरी का निर्माण भी कराया. आज भी नवाबी कला के रंग को सहेजे यह बारादरी मेरे परिसर में देखी जा सकती है.

शुरूआती दौर में ब्रिटिश अफसरों की सैरगाह के रुप में पहचाना जाता था. यहां आम आदमी का आना तक मना था. बनारसी बाग से नाम बदला और फिर इसे प्रिंस आफ वेल्स जुलोजिकल गार्डन ट्रस्ट कर दिया गया.

2001 में जुलोजिकल पार्क और फिर लखनऊ चिड़ियाघर के बाद 2015 में नवाब वाजिद अली शाह प्राणि उद्यान के नाम से मैं मशहूर हो गया. मुझे अपने सूबे का सबसे पुराना चिड़ियाघर होने पर फख्र है. देखरेख से लेकर हर काम सरकार के अधीन होने के बावजूद मुझ पर सरकारी होने का तमगा नहीं लग सका.

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आज के दौर में मेरे दायरे में रखे गये देश और दुनिया भर से लाये गये करीब 1000 से ज्यादा जानवरों को देखने के लिए आने वाले वन्यजीव प्रेमियों भी मुझ पर मेहरबान हैं.

दर्शकों के टिकट और समाजसेवियों के वन्यजीवों को गोद लेेने की दिलचस्पी से मैं लगातार बढ़ रहा हूं. बीते दौर में यानि 1925 मेरे अंदर राजा बलरापुर ने बब्बर शेर के बाड़े का निर्माण कराया था.

1935 में रानी राम कुमार भार्गव ने तोता लेन तैयार करायी और फिर भालू, बाघ के बाड़ों के साथ अब मेरे अंदर 100 बाड़े हैं, जहां एक हजार से अधिक वन्यजीव अपनी जिंदगी जीने के साथ आने वाले दर्शकों का मानोरंजन करते हैं. 2006-08 में हाथी सुमित और जयमाला के जंगल जाने का दुरूख और दर्शकों के प्रिय हूक्कू बंदर के जाने का गम मैं आज भी नहीं भूल पा रहा हूं.

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कोरोना संक्रमण के चलते मैं भले ही ऑनलाइन रहा और सभी के मोबाइल फोन तक पहुंचा, लेकिन दर्शकों की चहलकदमी ने मुझ में एक बार फिर नया जोश भर रहा है. अनलॉक के बाद दर्शकों की आमद से मैं फिर से दर्शकों से गुलजार होने लगा हूं.