राष्ट्रपति चुनावः नेहरू की अनिच्छा के बावजूद कैसे बने डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1952 में राष्ट्रपति

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 23-06-2022
डॉ. राजेंद्र प्रसाद
डॉ. राजेंद्र प्रसाद

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

1952 में पहले आम चुनाव हुए थे और साथ में राष्ट्रपति चुनाव हुए. हालांकि, डॉ. राजेंद्र प्रसाद उस समय राष्ट्रपति थे लेकिन पंडित नेहरू के साथ उनके कुछ मुद्दों पर मतभेद थे और नेहरू डॉ. राजेंद्र प्रसाद को दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनाना चाहते थे.

बहरहाल, 1946 में पंडित नेहरू की अगुआई में अंतरिम सरकार बनी तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद खाद्य और कृषि मंत्री के रूप में उनके मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे. डॉ. राजेंद्र प्रसाद कृषि उपज को बढ़ाने के बहुत बड़े पैरोकार थे और साथ उनका ध्यान किसान कल्याण की तरफ भी था इसलिए उन्होंने ‘अधिक अन्न उपजाओ’का नारा दिया. उनके तहत खाद्य और कृषि मंत्रालय  ने इस दिशा में एक अभियान भी चलाया था.

जब 1946 में संविधान सभा का गठन हुआ तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जो बिहार प्रांत से संविधान सभा के लिए चुने गए थे, उन्हें इस सभा का अध्यक्ष बनाया गया. यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी. संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने इसका कुशल संचालन किया और उनके धीरज, उच्चस्तरीय बौद्धिकता और गरिमा की वजह से एक शानदार संविधान बनकर तैयार हो पाया. विभिन्न मुद्दों पर वह सदस्यों को स्वतंत्रता से अपनी बात रखने का मौका देते थे.

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संविधान को 29 नवंबर 1949 को पूर्ण रूप से अंगीकार किया गया. और 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में उन्हें सर्वसम्मति से देश का पहला अंतरिम राष्ट्रपति चुना गया. उन्होंने 26 जनवरी, 1950 को देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली.

1952 में उन्हें भारत गणराज्य का पहला राष्ट्रपति चुना गया और वे दोबारा 1957 में भी सर्वोच्च पद के लिए निर्वाचित हुए. लेकिन यह कहानी बहुत दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नेहरू की अनिच्छा के बावजूद डॉ. राजेंद्र प्रसाद देश के दो बार राष्ट्रपति चुने गए.

1952 में जब भारत में पहले आम चुनाव हुए तो संसद में नए सदस्य निर्वाचित होकर आए और ऐसे में दोबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव होने भी तय हुए. 1951 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू एक-दूसरे के आमने-सामने आए गए थे और वजह थी हिंदू कोड बिल. लेकिन यह ऐसा चुनाव था जिसमें नेहरू के पास कोई और चारा नहीं था. अन्य दलों ने प्रो. के टी शाह का समर्थन करने का फैसला किए, जिनको मोटे तौर पर राजनैतिक रूप से तटस्थ व्यक्ति माना जाता था.

प्रो. शाह श्रम संगठनों से जुड़े हुए थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पूरी की थी. प्रो. शाह 1938 में नेहरू की अगुआई में गठित पहले योजना आयोग के सदस्य भी थे. 1952 के चुनावों में कांग्रेस को 489 सीटों में से 364 पर जीत हासिल हुई थी और निर्वाचक मंडल में निर्णायक शक्ति होने की वजह से भारत का राष्ट्रपति सिर्फ कांग्रेस का उम्मीदवार ही बन सकता था. इस चुनाव में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को 5,07,400 वोट मिले थे जबकि के टी शाह को सिर्फ 92,827 वोट मिले.

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दिलचस्प है कि इस चुनाव में कांग्रेस के 65 सांसदों और 479 विधायकों ने वोट नहीं जाला था. बाद में कहा गया कि चूंकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जीत निश्चित थी इसलिए कई लोगों ने वोट डालना जरूरी नहीं समझा.

हालांकि, नेहरू ने पार्टी की इच्छा का सम्मान 1952 में किया था लेकिन 1957 में नेहरू के पास अपने मनपसंद उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनाने का मौका था. इसलिए इसबार उन्होंने अपना दांव उप-राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर लगाया.

लेकिन, कांग्रेस के एक बड़े धड़े ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया. इसके साथ ही, मौलाना आजाद भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद के पक्ष में थे और नेहरू को एक बार फिर से निराश होना पड़ा. इस घटनाक्रम से राधाकृष्णन इतने परेशान हो गए कि उन्होंने उप-राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे दिया.

1957 में किसी अन्य पार्टी ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया, हालांकि कुछ निर्दलीय उम्मीदवार जरूर मैदान में थे. इस बार भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद को चुनाव में4,59,698 वोट मिले और उनके निकट प्रतिद्वंद्वी चौधरी हरिराम को  2672 वोट मिले.

इस जीत के साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद दूसरी बार भारत के राष्ट्रपति चुने गए और दोनों ही बार नेहरू उन्हें बतौर राष्ट्रपति नहीं देखना चाहते थे. बहरहाल, 12 साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद 13 मई 1962 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना के सदाकत आश्रम लौट आए थे.

उधर, इसके ठीक तीन दिन पहले 10 मई 1962 को दिल्ली के रामलीला मैदान में बड़ी संख्या में लोग जुट आए थे. यह कोई राजनैतिक रैली नहीं थी. लोग अपने राष्ट्रपति को विदा कहने आए थे.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद 12 बार देश में राष्ट्रपति चुने गए और सेवानिवृत्त भी हुए लेकिन ऐसी कोई और विदाई कभी नहीं देखी गई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब रिटायर हुए तो उनकी पेंशन महज 1100 रुपए मासिक थी, और भारत-चीन युद्ध के दौरान डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पत्नी के जेवर भी भारत के खजाने में जमा करा दिए थे.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद गांधीवादी रास्ते पर चलते रहे. जनता के इस राष्ट्रपति का निधन 28 फरवरी 1963 को हो गया.