हरजिंदर
भारत में आजादी की जंग लड़ने वाले परवाने तो बहुत सारे थे, लेकिन एक नाम ऐसा भी था जिसने एक नहीं दो देशों की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया.ये थे सूफी अंबा प्रसाद जिन्होंने भारत ही नहीं ईरान में भी अंग्रेजों से लोहा लिया.
अंबा प्रसाद का जन्म मुरादाबाद के कायस्थान मुहल्ले में देश के पहले स्वंतत्रता संग्र्राम के ठीक एक साल बाद हुआ था.जब वे पैदा हुए उनका दाया हाथ नहीं था, तब किसे पता था कि आगे की जिंदगी उनके बाएं हाथ का खेल बन जाएगी.बाद में वे अक्सर मजाक में कहा करते थे- दायां हाथ तो सत्तावनी में कट गया था, साल भर बाद दुबारा जन्म मिला तो उस हाथ के बिना ही.लेकिन उन्होंने शरीर की इस कमीं को कभी आड़े नहीं आने दिया.
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स्कूल काॅलेज में उनकी गिनती मेधावी छात्रों में होती थी.कानून की पढ़ाई पूरी की तो माना जा रहा था कि वे वकालत का पेशा अपनाएंगे.इसके बजाए उन्होंने पत्रकारिता का रास्ता अपनाया और मुरादाबाद से जामुल इलूम नाम का साप्ताहिक अखबार छापना शुरू किया.इस अखबार में वे अंग्रेजों की खिलाफ लगातार लिखते थे और इसी से काफी मशहूर हो गए.उनके लेख देश भर से छपने वाले कईं दूसरे राष्ट्रवादी अखबारों में भी छपते थे.उनकी भाषा में चुभने वाला व्यंग्य था जो जल्द ही शासकों को परेशान करने लगा.
फिर वही हुआ जो उस दौर में होता था.वे गिरफ्तार कर लिए गए और जल्द ही उन्हें दो साल की सजा सुना दी गई.दो साल बाद जब वे जेल से बाहर आए तो उन्होंने फिर से अपना उसी तरह का लेखन शुरू कर दिया.इसके बाद तो उनकी गिरफ्तारियों का सिलसिला ही चल निकला.
एक बार जब पुलिस पीछे पड़ी तो वे भाग कर नेपाल चले गए.नेपाल में उन दिनों राणा का शासन था.राणा जंग बहादुर ने उन्हें शरण भी दे दी.लेकिन ब्रिटिश पुलिस उनके पीछे पड़ी थी सो वहां भी पहंुच गई.उन्हें नेपाल से पकड़ कर लाहौर ले आया गया, जहां एक बहुत बड़ा आंदोलन उनका इंतजार कर रहा था.
पंजाब में उन दिनों किसान आंदोलन चल रहा था.अंबा प्रसाद उसमें सक्रिय हो गए.इसी दौरान उनकी मुलाकात लाल लाजपत राॅय और अजीत सिंह से हुई.अजीत सिंह से उनका साथ लंबा चला.उन्होंने लाहौर से पेशवा नाम का अखबार निकाला तो वहां भी उन पर पुलिस का शिकंजा कसना शुरू हो गया.वहां भी उन्हें जेल में डाला गया और प्रताड़ित भी काफी किया गया.
किसान आंदोलन का दबाव जब बहुत ज्यादा बढ़ गया तो सरकार को वे कृषि कानून वापस लेने पड़े जिनकी वजह से पूरा आंदोलन हो रहा था.सरकार अब इसके नेताओं के पीछे पड़ गई.
इसी दौरान लाल हरदयाल पंजाब पंहुचे और अजीत सिंह व सूफी अंबा प्रसाद से मिले.लाला हरदयाल ने उन्हें यह समझाया कि इस समय जरूरी है कि ब्रिटिश साम्राज्य को अंतर्राष्ट्रीय रूप से कमजोर किया जाए.इस काम में उन देशों की मदद भी ली जा सकती है जो ब्रिटेन के खिलाफ हैं.इसी योजना के तहत लाल हरदयाल अमेरिका चले गए, अजीत सिंह और अंबा प्रसाद ने ईरान का रुख किया.
अंबा प्रसाद ने ईरान के शहर शीराज़ को अपना ठिकाना बनाया जबकि अजीत सिंह वहां से तुर्की चले गए.तुर्की का आॅटोमन साम्राज्य उस समय ब्रिटेन के खिलाफ लड़ाई की सबसे बड़ी ताकत बन कर उभर रहा था.लेकिन अंबा प्रसाद वहीं शीराज में ही रम गए.शीराज़ कभी ईरान की राजधानी रहा था और कवि, लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के शहर के रूप में विख्यात था.
यह वह दौर था जब ब्रिटेन धीरे-धीरे पूरे ईरान पर अपना दबदबा बनाता जा रहा था.लेकिन वहां राष्ट्रवादियों का एक ऐसा समूह सक्रिय था जो इसका हर तरह से विरोध कर रहा था.फारसी की अच्छी जानकारी रखने वाले सूफी अंबा प्रसाद से इन लोगों की गाढ़ी छनने लगी.इतना ही नहीं आम लोगों के बीच भी वे काफी लोकप्रिय हो गए.वहां उन्होंने एक अखबार भी निकाला.
जब विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो अंबा प्रसाद जर्मनी पहंुच गए और उन्होंने मोर्चे पर लड़ रहे भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ प्रेरित करने का काम भी किया.वे वहां सक्रिय बर्लिन कमेटी से भी सदस्य थे.बाद में जब हिंदू जर्मन कांस्पिरेसी नाम से मुकदमा चला तो उसमें सूफी अंबा प्रसाद भी एक आरोपी थे.यह बात अलग है कि तब तक वे वापस ईरान पंहुच गए थे.
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कुछ ही समय बाद ब्रिटिश फौज ने शीराज़ को घेर लिया.बाद में ब्रिटेन की फौज इस शहर पर भी काबिज हो गई और सूफी अंबा प्रसाद को पकड़ लिया गया.उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई.
इसके पहले कि उन्हें मृत्युदंड दिया जाता हिरासत में उनकी मौत हो गई.जब शीराज़ में उनका जनाजा उठा तो उसमें हजारो लोग मौजूद थे.वहां उनकी समाधि बनाई गई जिस पर अब हर साल उर्स होता है.भारत में भले ही हम उन्हें भूल गए हों लेकिन ईरान में आज भी सूफी अंबा प्रसाद को याद किया जाता है.
जारी.....
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )