स्मृतिशेषः अंग्रेजी में लिखते तो सिलेब्रिटी राइटर होते मंजूर एहतेशाम

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 26-04-2021
टूट गई तिकड़ीः मंजूर एहतेशाम नहीं रहे (फोटोः ट्विटर)
टूट गई तिकड़ीः मंजूर एहतेशाम नहीं रहे (फोटोः ट्विटर)

 

विमल कुमार

हिंदी कथा साहित्य में नफीस और जहीन लेखकों की एक लंबी परंपरा रही है. मंजूर ऐहतशाम उसी रवायत के एक शानदार लेखक थे, जिनका आज भोपाल में इंतकाल हो गया. वह 73 वर्ष के थे. कुछ सालों से उनकी तबियत बहुत नासाज रहती थी.

जो लोग मंजूर भाई से मिले हैं, उनकी खूबसूरत गरिमामयी पर्सनेलिटी और बेपनाह इंसानियत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. देखने में भी बड़े सुंदर, गोरे-चिट्टे और मीठी आवाज के धनी. वे भोपाल के रईस मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखते थे और बड़े शांत और विनम्र स्वभाव के मालिक थे.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय से पढ़े मंजूर भाई एक खानदानी आधुनिक मुसलमान थे और उनका सौंदर्यबोध बहुत काबिलेतारीफ था. उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘सूखा बरगद’आज से 35 साल पहले यहीं 1986 में आया था. वह उनका दूसरा नॉवेल था. यह उपन्यास भारतीय समाज में मुस्लिम समुदाय की गहरी पीड़ा और विस्थापन का एक बेजोड़ दस्तावेज था. इसी उपन्यास से उनकी पहचान बनी थी. जब यह उपन्यास हिंदी जगत में आया था तो उसकी पारदर्शी भाषा की रवानगी, कथा-शिल्प और प्लॉट ने पाठकों को बांध लिया था.

वह उपन्यास उसी तरह सराहा गया, जिस तरह शानी का ‘कला जल’और विनोद कुमार शुक्ल का ‘नौकर की कमीज’ सराहा गया था. दुर्भाग्यवश, उन्हें इस शानदार उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे. लेकिन बाद में, उस उपन्यास के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए और अंग्रेजी में उसके अनुवाद ने मंजूर भाई की ख्याति में चार चांद लगा दिए.

जो लोग हिंदी उपन्यास की पठनीयता पर सवाल खड़े करते हैं, उन्हें यह उपन्यास एक बार जरूर पढ़ लेना चाहिए. यह एक ऐसा उपन्यास था, जिसे कई लोगों ने एक सांस में ही पढ़ लिया था. उसके बाद तो मंजूर भाई के कई नॉवेल आए. ‘दास्ताने लापता’से वे और चर्चा में आए. उसका जब अंग्रेजी अनुवाद हुआ तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो उसे उस समय का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बताया. वाकई इस मुल्क में लापता हो रहे मुस्लिम समुदाय की वह कहानी थी, लेकिन उन्हें अपने मुल्क में जो ख्याति मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली. वे अंग्रेजी में लिखते तो सेलिब्रिटी राइटर कहलाते लेकिन वे साहित्य की मुख्यधारा और सत्ता विमर्श से दूर रहनेवाले लेखक थे.

वे साहित्य के दरबारों और गुटों से दूर रहकर अपने लेखन में यकीन करनेवाले अदीब थे.

भोपाल में उर्दू के लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त रही है लेकिन मंजूर भाई ने हमेशा हिंदी में लिखना पसंद किया. वे सांप्रदायिक सौहार्द, भाईचारे और मुहब्बत के प्रतीक थे जो इस मुल्क की साखी विरासत को बचाए रखना चाहते है और अपने वतन से बहुत प्यार करते थे.

मंजूर भाई भोपाल के साहित्यिक गिरोह से भी दूर रहते थे. उन्हें श्रीकांत वर्मा पुरस्कार भारतीय भाषा का पुरस्कार और पद्मश्री भी मिला था, लेकिन पुरस्कार उनके लिए मायने नहीं रखते थे. वे इस दौड़ में न तो शामिल थे और नहीं इन पुरस्कारों का लेकर कभी उन्होंने किसी को इसका अहसास  कराया. उनकी कहानी ‘रमजान में मौत’भी काफी चर्चित हुई थी. दरअसल, पहले वे कहानीकार के रूप में जाने गए, बाद में एक उपन्यासकार के रूप में और उनके 5 उपन्यास आए. ‘बशारत मंजिल’भी उनका बेहतरीन उपन्यास माना गया.

मंजूर भाई ने एक नाटक भी लिखा था. अगर वह स्वस्थ रहते तो बहुत लिखते. पिछले चार दशकों में हिंदी की दुनिया में उनके जैसा बड़ा उपन्यासकार बहुत कम हुआ. हिंदी साहित्य में शानी के बाद असगर वजाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह और मंजूर एहतेशाम की तिकड़ी का एक कड़ी आज टूट गया.

(विमल कुमार वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)