छठ में सांप्रदायिक सौहार्द्र, हिंदुओं के पूजाघर में सजते हैं गुलाम सरवर के पौधे

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 08-11-2021
हिंदुओं के पूजाघर में सजते हैं गुलाम सरवर के पौधे
हिंदुओं के पूजाघर में सजते हैं गुलाम सरवर के पौधे

 

गिरीन्द्र नाथ झा/ पूर्णिया

छठ घाट का सूप-डाला और केले का पत्ता मुझे सबसे अधिक अपनी ओर खींचता है. नारियल फल के ऊपर सिंदूर और पिठार (पिसे चावल) के लेप को मैं घंटो निहारता हूं. गागर, नीम्बू, सुथनी, डाब नीम्बू और हल्दी और अदरक का पौधा जब छठ घाट पर देखता हूं तो लगता है यही तो असली पूजा है, जहां हम प्रकृति के सबसे करीब होते हैं. तालाब के आसपास का माहौल पवित्रता का बोध कराता है.

आज छठ पूजा के बहाने हम आपको पूर्णिया जिला के गुलाम सरवर जी की कहानी सुनाने जा रहे हैं. किस तरह एक पर्व धर्म से ऊपर की चीज बन जाती है, उसका जीता-जागता उदाहरण गुलाम भाई है. महानगरों में तो छत पर छठ पूजा मनाते लोग दिख जाते हैं लेकिन छोटे शहर और गांव घर में आज भी लोगबाग नदी-पोखर के किनारे ही लोक आस्था के इस महापर्व  को मनाते हैं.

लेकिन बढ़ती आबादी और शहरों के विस्तार की वजह से छोटे शहरों और कस्बों में भी लोगबाग छत या अपने अहाते में छठ पूजा करने लगे हैं. ऐसे लोगों को फूल और अन्य जरूरी पौधों की सबसे अधिक जरूरत पड़ती है. ऐसे ही लोगों के लिए सरवर भाई खड़े होते हैं पूजा के लिए फूल के पौधे के साथ.

पेशे से बीमा एजेंट गुलाम भाई का पूर्णिया शहर में घर है. उन्होंने छत पर एक सुंदर से बागवानी बनाकर रखी है, सबकुछ गमले में. फल फूल से लदे ये गमले छठ पूजा के दौरान बहुत से लोगों के घर पहुंच जाते हैं, जहां इनकी जरूरत होती है. लोक आस्था का यह पर्व इस तरह से हिंदू-मुस्लिम की बातों से ऊपर उठकर एक हो जाती है.

गुलाम सरवर मूल रूप से पूर्णिया जिला के डगरुआ प्रखंड के कन्हरिया गांव के रहने वाले हैं. उनके दादा डॉ. अब्दुल जब्बार खान पेशे से चिकित्सक थे, लेकिन उनको पेड़-पौधों से बहुत ज्यादा लगाव था. पूर्णिया शहर में जिस जगह पर सरवर का घर है, 70 के दशक में वहां आम का बागान था. 1975 के बाद पारिवारिक बंटवारा हुआ और आम बागान खत्म हो गया. घर के पीछे जो जमीन थी उसी पर उनके पिता मोहम्मद वाली खान पेड़ और कलम लगा कर रखते थे. बचपन में उनको देखते-देखते गुलाम सरवर को भी पेड़ों से प्यार हो गया. 1989 में यहां मार्केट बनने लगा, जमीन खत्म होने के बाद नीचे की बागवानी छत पर शिफ्ट हो गई.

गुलाम सरवर बताते हैं, “जहां भी जाता हूँ, वहां से नए और दुर्लभ पेड़ तलाश कर लाता हूँ. मेरी छत पर आपको दुर्लभ प्रजाति के खिरनी, सपाटू, शहतूत के अलावा देशी मसालों के पेड़ और लिविंग फॉसिल कहे जाने वाले वाले साइकस पेड़, नींबू की कई तरह की प्रजाति और चायनीज अमरूद,इलाहाबादी अमरूद मिल जायेंगे. मैं जहां भी जाता हूँ वहां से कोई न कोई पेड़ जरूर लाता है, फिर उसे कलम कर नया पेड़ बनाता हूँ. धीरे-धीरे मेरे छत पर 700 से ज्यादा पेड़ जमा हो गए हैं.”

हमारे लिए छठ दूसरे त्योहारों से अलग इसलिए भी है, क्योंकि इसमें जो उपास्य है, वह हमारे सामने होते हैं. हमने कभी भी राम को, कृष्ण को, दुर्गा को या तमाम देवी-देवताओं को देखा नहीं है, बस उनकी महिमा सुनी है लेकिन छठ में जिनकी पूजा होती है, सूर्य देवता की, वो न सिर्फ सामने दिखते हैं, बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन से उनका गहरा संबंध भी है.

सरवर बताते हैं कि छठ में उनके कई दोस्त हर साल उन पौधों को ले जाते हैं जिसकी पूजा में जरूरत होती है. गमले में लगे केले के पौधे सरवर भाई के छत से पीयूष शर्मा के घर पहुंच जाती है. जब सरवर भाई यह सुना रहे थे तो लग रहा था कि धार्मिक सौहार्द का इससे सुंदर उदाहरण और क्या हो सकता है.

गुलाम सरवर कहते हैं, “छठ के अलावा दुर्गा पूजा में भी मैं अपने टेरेस गार्डन के गमले को अपने उन दोस्तों के घर पहुंचा देता हूं जहां फूल आदि की जरूरत होती है. मैं इसके बदले पैसा नहीं लेता हूं. यह समाज हम सबसे बना है. हम सबको संग-संग रहना है और एक दूसरे का साथ देना है. बचपन में तो हम सब छठ घाट की सफाई करते थे. हमारी स्मृति में सौहार्द है, सामाजिक सौहार्द.”

सरवर भाई के छत को निहराते हुए आपको लगेगा कि आप किसी गार्डन में पहुंच गए हैं. बढ़ते पेड़ की संख्या से छत को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचे, इसके लिए उन्होंने बेकार थर्मोकॉल के डब्बों से गमले बनाए हैं.

गुलाम सरवर बताते हैं कि उन्हें पापा से विरासत में कलम और पेड़ को बोनसाई बनाने का हुनर मिला. उनके छत पर आज भी 20 साल पुरानी तुलसी, पीपल, पाखर समेत अन्य पौधे हैं. गुलाम सरवर भाग दौड़ की जिन्दगी में लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए हरेक साल 500 से ज्यादा कलम किये हुए पेड़ मुफ्त में देते हैं.

किसानी करते हुए सूर्य की महिमा हमारे लिए और बढ़ जाती है. हम लोग कई बार सूर्य से नाराज भी हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि कब उगियेगा, काहे दिन डुबाए हुए हैं, कई बार इस बात पर भी कि काहे फसल झुलसा रहे हैं, अब तक गरमी कम कीजिये. और देखिए, हम जब उसी सूर्य की उपासना करने बैठते हैं तो लगता है जो प्रिय है वही तो सूरज है. और जो आपका प्रिय होता है, उसी की तो आप शिकायत करते हैं. किसानी जीवन से जुड़े लोगों के लिए छठ पूजा से बढ़कर और कुछ भी नहीं है. यह उत्सव हमारे लिए एक रिश्ता निभाने जैसा है, रिश्ता ऐसा जो कभी न टूटे.

छठ के बहाने गुलाम सरवर से बातें करते हुए भी यही अहसास हुआ कि यह रिश्ता कभी न टूटे...

(गिरींद्रनाथ झा हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं. इन दिनों पूर्णिया में खेती-बाड़ी और लेखन करते हैं. उनकी किताब इश्क में माटी सोना काफी प्रशंसित हुई है)