इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीनः हयात ले के चलो, क़ायनात ले के चलो

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 04-02-2022
इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन
इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन

 

आवाज विशेष । शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का जन्मदिन

ज़ाहिद ख़ान

इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का शुमार मुल्क में उन शख़्सियतों में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. सुर्ख परचम के तले उन्होंने आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की और आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष असेंबली व उसके बाहर लोकतांत्रिक लड़ाईयों से लगातार जुड़ा रहा.

आज़ादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ़ साम्राज्यवादी अंग्रेजी हुकूमत से ज़मकर टक्कर ली, बल्कि अवाम को सामंतशाही के ख़िलाफ़ भी बेदार किया. मख़दूम एक साथ कई मोर्चों पर काम कर सकते थे. किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन, पार्टी और लेखक संगठन के संगठनात्मक कार्य सभी में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते. इन्हीं मसरूफ़ियत के दौरान उनकी शायरी परवाज़ चढ़ी. अदब और समाजी बदलाव के लिए संघर्षरत नौजवानों में मख़दूम की शायरी, ''हयात ले के चलो, क़ायनात ले के चलो/चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो.''आज भी नई जान फूंकती है.

अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे जन संघर्षों से जुड़े रहे. सच बात तो यह है कि उनकी ज़्यादातर शायरी इन्हीं जन संघर्षों के बीच पैदा हुई थी. मख़दूम ने जागीरदार और किसान, सरमायेदार-मज़दूर, आका-गुलाम और शोषक—शोषित की कशमकश और संघर्ष को अपनी नज़्मों में ढाला. उन्हें अपनी आवाज़ दी.

मुल्क में यह वह दौर था, जब किसान और मज़दूर इकट्ठे होकर अपने हुक़ूक़ मनवाने के लिए एक साथ खड़े हुए थे. मख़दूम की क़ौमी नज़्मों का कोई सानी नहीं था. जलसों में कोरस की शक्ल में जब उनकी नज़्में गाई जातीं, तो एक समां बंध जाता. हजारों लोग आंदोलित हो उठते. मख़दूम की एक नहीं, ऐसी कई नज़्में हैं, जो अवाम में समान रूप से मक़बूल हैं.

‘‘वो हिन्दी नौजवां यानी अलम्बरदार-ए-आज़ादी/वतन का पासबां वो तेग-ए-जौहर दार-ए-आज़ादी.’’ (‘आज़ादी-ए-वतन’) और ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ इन नज़्मों ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी अवाम का महबूब और मक़बूल शायर बना दिया. आज भी कहीं मज़दूरों का कोई जलसा हो और उसमें ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ नज़्म को गाया न जाए, ऐसा शायद ही होता है. इस इंक़लाबी नज़्म की जरा सी बानगी, ‘‘लो सुर्ख सबेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का/गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का/देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का.’’ इस नज़्म से जब एक साथ हज़ारों आवाज़ें समवेत होती हैं, तो सभा गूंज उठती है.

मख़दूम मोहिउद्दीन के नौजवानी का दौर, वह दौर था जब मुल्क में ही नहीं दुनियावी स्तर पर उथल-पुथल मची हुई थी. दुनिया पर न सिर्फ साम्राज्यवाद का ख़तरा मंडरा रहा था, बल्कि फ़ासिज्म का ख़तरा भी सिर उठाने लगा था. हिन्दुस्तान के पढ़े-लिखे नौजवान आज़ादी के साथ-साथ ऐसे रास्ते की तलाश में थे, जो मुल्क को समाजवाद की ओर ले जाये. उस वक्त दुनिया भर में साम्राज्यवाद और फ़ासिज़्म के नापाक गठजोड़ के ख़िलाफ़ तरक़्क़ीपसंद हल्कों के मोर्चे की बहुत चर्चा थी. नौजवान मख़दूम का इस मोर्चे के ज़ानिब खिंचना लाजिमी ही था. लखनऊ के ग्रुप यानी प्रगतिशील लेखक संघ से उनकी मुलाकात हुई और वे इसके मेंबर बन गए.

प्रगतिशील लेखक संघ में आने के बाद, मख़दूम की सोच में और भी ज़्यादा निखार आया. उनकी कलम से साम्राज्यवाद विरोधी नज़्म ‘आज़ादी-ए-वतन’ व सामंतवाद विरोधी ‘हवेली’, ‘मौत के गीत’ जैसी कई क्रांतिकारी रचनायें निकलीं. मख़दूम के बग़ावती ज़ेहन ने आगे चलकर, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी और आंदोलनों की राह पर ला खड़ा किया. 1930 के दशक में हैदराबाद में कामरेड एसोसिएशन का गठन हुआ. मख़दूम इससे शुरू से ही जुड़ गए थे. कॉमरेड एसोसिएशन के ज़रिए मख़दूम कम्युनिस्टों के संपर्क में आए.

साल 1936 में वे बाक़ायदा पार्टी के मेम्बर बन गए. हामिद अली ख़ादरी, इब्राहीम जलीस, नियाज़ हैदर, शाहिद सिद्दीकी, श्रीनिवास लाहौरी, कामरेड राजेश्वर राव, सैय्यद आज़म कुंदमीरी, ग़ुलाम हैदर मिर्जा और डॉ. राजबहादुर गौर वगैरह के साथ आगे चलकर उन्होंने काम किया. साल 1939 में दूसरी आलमी जंग छिड़ने के बाद मुल्क में मज़दूर वर्ग के आंदोलनों में काफी तेजी आई. मख़दूम भी ट्रेड यूनियन आंदोलन में शामिल हो गए. मज़दूरों के बीच काम करने के लिए उन्होंने सिटी कॉलेज की नौकरी से इस्तीफ़ा तक दे दिया. वे पूरी तरह से ट्रेड यूनियन की तहरीक से जुड़ गए. हैदराबाद की दर्जनों मज़दूर यूनियन की रहनुमाई मख़दूम एक साथ किया करते थे. आगे चलकर वे सौ से ज्यादा यूनियनों के संस्थापक अध्यक्ष बने.

आलमी जंग का जब आगाज़ हुआ, तो मुल्क की अवामी तहरीकों पर भी हमला हुआ.  इन हमलों से तहरीक कमजोर होने की बजाए और भी ज़्यादा मजबूत होकर उभरी. साम्राजी तबाहकारी, हिंसा और अत्याचार के माहौल की फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और मख़दूम ने अपनी नज़्मों में बड़े पुरअसर अंदाज में अक्कासी की.

साम्राजी जंग के दौर में मुश्किल से आधा दर्जन ऐसी नज़्में कही गई होंगी, जिनसे जंग की असल हकीकत वाजेह होती हैं और उनमें भी आधी से ज्यादा मख़दूम की हैं. मसलन ‘जुल्फ़-ए-चलीपा’, ‘सिपाही’, ‘जंग’, 'मशरिक' और ‘अंधेरा’. ‘सिपाही’ नज़्म में वे जंग पर तंकीद करते हुए लिखते हैं,‘‘कितने सहमे हुए हैं नज़ारे/कैसे डर-डर के चलते हैं तारे/क्या जवानी का खूं हो रहा है/सूखे हैं आंचलों के किनारे/जाने वाले सिपाही से पूछो/वो कहां जा रहा है ?’’ वहीं अपनी ‘जंग’ नज़्म में मख़दूम ने कहा,‘‘निकले दहान—ए तोप से बरबादियों के राग/बाग—ए जहां में फैल गई दोजख़ों की आग.’’ ‘जंग’ नज़्म हालांकि उनकी पहली सियासी नज़्म थी, फिर भी यह नज्म फ़ासिज़्म के खिलाफ उर्दू शायरी की पहली सदा-ए—एहतिजाज बनी. इस नज़्म के बाद उर्दू अदब में और भी ऐसी कई नज़्में लिखी गईं.

मुल्क की आज़ादी की तहरीक के दौरान अंगेज़ी हुकूमत का विरोध करने के ज़ुर्म में मख़दूम कई मर्तबा ज़ेल भी गए, पर उनके तेवर नहीं बदले. अंग्रेज़ी सरकार का जब ज़्यादा दवाब बना, तो उन्होंने अंडरग्राउंड रहकर पार्टी और यूनियनों के लिए काम किया. तमाम संघर्षों के बाद आख़िरकार, हमारा मुल्क आज़ाद हुआ. आज़ादी के बाद भी मख़दूम का संघर्ष खत्म नहीं हुआ. आंध्रा में जब तेलंगाना के लिए किसान आंदोलन शुरू हुआ, तो मख़दूम फिर केन्द्रीय भूमिका में आ गए. तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष में उन्होंने प्रत्यक्ष भागीदारी की. \

आंध्र और तेलंगाना में किसानों की बेदारी के लिए मख़दूम ने जमकर काम किया. 'तेलंगाना', 'बागी', 'जां बाजान—ए कययूर' और 'तेलंगाना' जैसी नज़्मों में उन्होंने तेलंगाना की खुलकर तरफ़दारी की. बाद में मख़दूम चुनाव भी लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकिट से असेम्बली भी पहुंचे. अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे पार्टी की नेतृत्वकारी इकाइयों में बने रहे.

मेहनतकशों के लिए उनका दिल हमेशा धड़कता था. मज़दूर यूनियन ऐटक के जरिए वे मज़दूरों के अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहे. मख़दूम ने अकेले इंक़लाब की ही नज़्में नहीं लिखीं, मुहब्बत में डूबी हुई उनकी नज़्मों का भी कोई ज़वाब नहीं. मसलन ''ज़िंदगी लुत्फ़ भी है ज़िंदगी आज़ार भी है/साज़-ओ-आहंग भी ज़ंजीर की झंकार भी है/ज़िंदगी दीद भी है हसरत-ए-दीदार भी है/ज़हर भी आब-ए-हयात-ए-लब-ओ-रुख़्सार भी है/ज़िंदगी ख़ार भी है ज़िंदगी दार भी है/आज की रात न जा.''( नज़्म'आज की रात न जा')

मख़दूम मोहिउद्दीन ने न सिर्फ आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की, बल्कि अपने तंई साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया को भी आबाद किया. अवामी थियेटर में मख़दूम के इंक़लाबी नग़में गाये जाते थे. किसान और मज़दूरों के बीच जब इंक़लाबी मुशायरे होते, तो मख़दूम उसमे पेश-पेश होते. अली सरदार जाफ़री, जोश मलीहाबादी, मजाज़, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी के साथ मख़दूम अपनी नज़्मों से लोगों में एक नया जोश फूंक देते थे. उनकी अवामी मसरूफ़ियत ज़्यादा थीं, लिहाजा अदबी लिखना कम हो पाता था. बावजूद इसके उन्होंने जितना भी लिखा, वह अदबी शाहकार है.

‘सुर्ख़ सबेरा’, ‘ग़ुल—ए तर’ और ‘बिसात—ए रक्स’ मख़दूम के काव्य संकलन हैं, जिसमें उनकी नज़्म व ग़ज़लें संकलित हैं. ‘बिसात—ए रक्स’ के लिए उन्हें साल 1969 में उर्दू साहित्य एकेडमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. मख़दूम की मशहूर नज़्में फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुईं, जिन्हें आज भी उनके चाहने वाले गुनगुनाते हैं. मसलन ‘आपकी याद आती रही रात भर’ (फिल्म—गमन), ‘फ़िर छिड़ी रात बात फूलों की’ (फ़िल्म—बाज़ार), ‘एक चमेली के मंडवे तले’ (फिल्म—चा चा चा) और 'जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहा जा रहा है' (फ़िल्म—उसने कहा था).

मेहनतकशों के शोषण और पीड़ा को अपनी नज़्मों में आवाज़ देने वाले अवामी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन ने 25 अगस्त, 1969 को इस दुनिया से अपनी रुख़्सती ली. मशहूर जर्नलिस्ट, फ़िल्मकार और अफ़साना निगार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने मख़दूम की शानदार शख़्सियत को बयां करते हुए क्या ख़ूब कहा है,‘‘मख़दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठण्डी बूँदें भी, वे क्रांति के आवाहक थे और पायल की झंकार भी. वे कर्म थे, वे प्रज्ञा थे, वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूक थे और संगीतकार का सितार भी, वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी.’’