'असद' को तुम नहीं पहचानते ताज्जुब है...

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 22-07-2021
असद भोपाली
असद भोपाली

 

आवाज विशेष । असद भोपाली जन्मशती

ज़ाहिद ख़ान

उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में असद भोपाली एक ऐसे बदकिस्मत शायर-नग़्मा निगार हैं, जिन्हें अपने काम के मुताबिक़ वह शोहरत, मान-सम्मान और मुक़ाम हासिल नहीं हुआ, जिसके कि वे हक़ीक़ी हक़दार थे. साल 1949 से लेकर साल 1990 तक यानी अपने चार दशक के लंबे फिल्मी करियर में उन्होंने तकरीबन चार सौ फिल्मों में दो हज़ार से ज्यादा गीत लिखे. जिसमें कि अनेक गीतों ने लोकप्रियता के नए सोपान छुए और आज भी जब रेडियो और टेलीविजन पर जब उनके गाने बजते हैं, तो दिल झूमने लगता है.

असद भोपाली और उनके गीत याद आने लगते हैं. ‘‘असद को तुम नहीं पहचानते ताज्जुब है/उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा.’’

10 जुलाई, 1921 को पुराने भोपाल में पैदा हुए असद भोपाली का असल नाम असदुल्लाह ख़ां था. उनके पिता मुंशी अहमद ख़ां पेशे से एक टीचर थे और बच्चों को अरबी-फ़ारसी पढ़ाया करते थे. ज़ाहिर है कि असद भोपाली ने फ़ारसी, अरबी और उर्दू ज़बान अपने अब्बा से ही सीखी. इस हद तक कि इन ज़बानों में उन्होंने दस्तरस हासिल कर ली थी.

उनके पास अल्फ़ाज़ का एक ज़ख़ीरा था, जिसे उन्होंने बाद में अपने नग़्मों के अंदर जमकर इस्तेमाल किया. असद भोपाली को पढ़ने-लिखने और शायरी का शौक़ अपनी नौजवानी के दिनों से ही था. खास तौर से वे ग़ालिब के कलाम के बड़े कद्रदान और मद्दाह थे. शायरों के कलाम पढ़ते-पढ़ते, वे भी शायरी लिखने लगे. कॉलेज में बैतबाजी (अंताक्षरी) मुक़ाबलों में हिस्सेदारी करते.

उनकी शायरी और तिस पर सुरीली आवाज दोनों ही कमाल करती. यह वह दौर था, जब मुल्क अंग्रेजों का गुलाम था अपनी शायरी और इंकलाबी लेखनी की वजह से असद भोपाली को जेल भी जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने शायरी से नाता नहीं तोड़ा. शायरी का जुनून कुछ ऐसा उनके सिर चढ़कर बोला कि उन्होंने मुशायरों में अपनी शिरकत बढ़ा दी. आहिस्ता-आहिस्ता उनकी एक पहचान बन गई और मुशायरों में उन्हें अदब से बुलाया जाने लगा. तरन्नुम में जब वे अपनी ग़ज़लें पढ़ते, तो वे सामयीन के दिलों पर गहरा असर करतीं.

मोहम्मद रफी के साथ असद भोपाली

शानदार साथीः मोहम्मद रफी के साथ असद भोपाली (फोटोः जाहिद खान को असद भोपाली के परिजनों ने मुहैया कराया है)


मुशायरे से सामयीन (श्रोता) उनके कलाम के शानदार अश्आर अपने संग साथ ले जाते. मिसाल के तौर पर उनके कुछ ऐसे ही अश्आर‘‘न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना/अगर यही है निज़ाम-ए-हस्ती तो ज़िंदगी को सलाम अपना’’, ‘‘ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या/हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते.’’

असद भोपाली शे’र-ओ-सुख़न की महफ़िलों में रमे-जमे थे ही, मगर दिल में एक हसरत-एक तमन्ना थी कि फिल्मों में गर मौका मिले, तो वे उसके लिए गाने भी लिखें. उनकी यह आरज़ू जल्द ही पूरी हो गई. ’दुनिया’ असद भोपाली की पहली फिल्म थी. इस फिल्म के संगीतकार सी. रामचन्द्र थे. इस फिल्म में लिखा उनका नग़्मा ‘अरमान लुटे दिल टूट गया...’ ख़ूब मक़बूल हुआ. लेकिन फिल्मी दुनिया में उन्हें पहचान और शोहरत निर्देशक बीआर चोपड़ा की फिल्म ‘अफ़साना’ के गीतों से मिली. फिल्म के सारे गाने ही मक़बूल हुए. ‘किस्मत बिगड़ी दुनिया बदली, फिर कौन किसी का होता है, ऐ दुनिया वालों सच तो कहो क्या प्यार भी झूठा होता है...’, ’वो आए बहारें लाए, बजी शहनाई..‘, ‘कहां है तू मेरे सपनों के राजा‘, ’वो पास भी रहकर पास नहीं..‘. ‘अफ़साना’ के गीत जितने लोकप्रिय हुए, उसके मुक़ाबले उन्हें फिल्मी दुनिया में काम नहीं मिला. इसकी वजह भी थे.

उनके आने से पहले हिंदी सिनेमा में शकील बदायूंनी, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, राजेन्द्र कृष्ण, प्रेम धवन, जांनिसार अख़्तर जैसे बेहतरीन नग़्मा निगार मौजूद थे. सभी एक से बढ़कर एक नग़्में लिख रहे थे.

उस वक्त एक बात और थी, हर मौसिकार की किसी न किसी नग़्मा निगार के साथ ऐसी ट्यूनिंग थी कि वे अपने मनपसंद के नग़्मा निगार के साथ ही काम करना पसंद करते थे. संगीतकार नौशाद-शकील बदायुनी, एसडी बर्मन और रवि-साहिर लुधियानवी, शंकर जयकिशन-हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के अलावा दूसरे गीतकारों को कम ही मौका देते थे. ऐसे में असद भोपाली पर कौन तवज्जोह देता. लेकिन उनमें एक जिजीविषा थी, जो वे फिल्मी दुनिया में डटे रहे. इस बीच उन्हें फिल्म ’पारसमणि’ के गीत लिखने का प्रस्ताव मिला. यह एक फेंटेसी फिल्म थी.

फिल्म के संगीत के लिए नये-नये आये संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल को चुना गया था. साल 1963 में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई, तो न सिर्फ इसके गीत-संगीत लोकप्रिय हुआ, बल्कि गानों के ही बदौलत फिल्म भी सुपर-डुपर हिट हुई. फिल्म के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं और आज भी लोगों की ज़बान और यादों में ज़िंदा हैं. खास़ तौर से ‘हँसता हुआ नूरानी चेहरा...’ और ‘वो जब याद आये, बहुत याद आये...’. ’पारसमणि’ के बाद साल 1965 में आई फिल्म ’हम सब उस्ताद है‘ में भी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और असद भोपाली की जोड़ी ने कामयाबी का वही इतिहास दोहराया. इस फिल्म के भी सभी गाने पसंद किये गए.

‘अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो’, ‘प्यार बांटते चलो..’ जैसे गीतों ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और गीतकार असद भोपाली के नाम को मुल्क में घर-घर तक पहुंचा दिया. फिल्मी दुनिया ने भी अब असद भोपाली को नजरअंदाज़ करना बंद कर दिया.

बाद में असद भोपाली ने अपने समय के प्रमुख संगीत निर्देशकों जैसे श्याम सुन्दर, हुस्नलाल-भगतराम, सी. रामचंद्र, खय्याम, हंसराज बहल, एन. दत्ता, नौशाद, ए.आर. कुरैशी (मशहूर तबलानवाज़ अल्लारक्ख़ा), चित्रगुप्त, रवि, सी. अर्जुन, सोनिक ओमी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी और हेमंत मुखर्जी के साथ काम किया. नए से नए संगीतकारों मसलन गणेश, उषा खन्ना और राम लक्ष्मण के साथ भी उन्होंने बेहतरीन काम किया. ख़ास तौर से नये संगीतकारों से उनकी बहुत अच्छी ट्यूनिंग बैठती थी.

छोटे बजट और नये-नवेले अदाकारों के साथी आई फिल्मों में भी उन्होंने शानदार गीत लिखे. फिल्मों में सदाबहार गाने देने के बाद भी असद भोपाली के करियर में उतार-चढ़ाव आते रहे. अपने और अपने परिवार की गुज़र बसर के लिए, उन्हें जो काम मिला उसे पूरा किया. बस इस बात का ख़याल रखा कि कभी अपने गीतों का मेयार नहीं गिरने दिया. यही वजह है कि उनके कई सुपरहिट गीत उन फिल्मों के हैं, जो बॉक्स ऑफिस पर नाकामयाब रहीं. फिल्म भले ही नहीं चली, लेकिन उनके गाने खूब लोकप्रिय हुए.

असद भोपाली के ऐसे ही कुछ ना भुलाए जाने वाले गीत हैं, ‘हम तुमसे जुदा हो के, मर जायेंगे रो-रो के...’ (एक सपेरा एक लुटेरा) ‘दिल का सूना साज़ तराना ढ़ूढ़ेगा, मुझको मेरे बाद ज़माना ढ़ूढ़ेगा’ (फिल्म ‘एक नारी दो रूप’), ‘आप की इनायतें आप के करम’ (वंदना), ‘ऐ मेरे दिल-ए-नादां तू ग़म से न घबराना’ (टॉवर हाउस), ‘दिल की बातें दिल ही जाने’ (रूप तेरा मस्ताना), ‘इना मीना डीका दाई डम नीका’ (आशा), ‘हम कश्मकश-ए-ग़म से गुज़र क्यों नहीं जाते’ (फ्री लव). एक नहीं उनके कई ऐसे गीत हैं, जिसमें शायरी के रंग अलग ही नज़र आते हैं.

‘रोशनी, धूप, चांदनी’ असद भोपाली की अदबी किताब है, जिसमें उनका कलाम यानी ग़ज़लें शामिल हैं. मुहब्बत और जुदाई के एहसास में डूबी हुई उनकी कुछ मक़बूल ग़ज़लें हैं- ‘‘ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का/वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का.’’, ‘‘कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते/हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते/ इक आप का दर है मिरी दुनिया-ए-अक़ीदत/ये सज्दे कहीं और अदा हो नहीं सकते.’’ और  ‘‘जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए/बार-हा दिल ने ये महसूस किया तुम आए/ऐ मिरे वादा-शिकन एक न आने से तिरे/दिल को बहकाने कई तल्ख़ तवह्हुम आए.’’

कुछ फिल्मी दुनिया की मशरूफ़ियत, कुछ मिज़ाज का फक्कड़पन जिसकी वजह से असद भोपाली अपने अदब को किताबों के तौर पर दुनिया के सामने नहीं ला पाये. उनकी लिखी सैकड़ों नज़्में और ग़ज़लें जिस डायरी में थी, वो डायरी भी बरसात की नज़र हो गई.

इस वाक़ये का ज़िक्र उनके बेटे ग़ालिब असद भोपाली जो खुद फिल्मी दुनिया से जुड़े हुए हैं, ने अपने एक इंटरव्यू में इस तरह से किया है,‘‘उन दिनों हम मुंबई में नालासोपारा के जिस घर में रहा करते थे, वह पहाड़ी के तल पर था. वहाँ मामूली बारिश में भी बाढ़ कि स्थिति पैदा हो जाती थी. ऐसी ही एक बाढ़, उनकी सारी ‘ग़ालिबी’ यानी ग़ज़ल, नज़्म आदि को बहा ले गयी. तब उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है. उन्होने कहा था, ‘‘जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था, और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी.’’

एक शायर का अपने अदब और दुनिया का उसके जानिब रवैये को, उन्होंने सिर्फ एक लाइन में ही बयां कर दिया था. ज़िंदगी के बारे में ऐसा फ़लसफ़ा रखने वाले इस भोपाली शायर और नग़्मा निगार असद भोपाली का 9 जून, 1990 को इंतिकाल हो गया. जिस साल उनका इंतिकाल हुआ, उसी साल उनकी फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ सिनेमाघरों में रिलीज हुई. जो बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर हिट रही और इस फिल्म के गीत ‘कबूतर जा जा जा...’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला.

फिल्मों में एक लंबी मुद्दत गुज़ार देने के बाद, असद भोपाली को अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक़्त में जाकर, यह अवार्ड हासिल हुआ. असद भोपाली आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे जब याद आतें हैं, तो बहुत याद आते हैं.