रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानी आशा सेन ने कहा, उन दिनों सबमें थी देशभक्ति

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 26-06-2022
रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानी आशा सेन ने कहा, उन दिनों सबमें थी देशभक्ति
रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानी आशा सेन ने कहा, उन दिनों सबमें थी देशभक्ति

 

आवाज- द वॉयस/ एजेंसी

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज की सहयोगी रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल रहीं आशा सेन का कहना है कि "उन दिनों युवाओं यहां तक बुजुर्गो में बला की देशभक्ति थी. आज यह देशभक्ति देखने को नहीं मिलती." वे कहती हैं, "मुझे भी मां ने यूनीफार्म पहनाया था और कहा था कि अब तुम भारत मां की बेटी हो, कभी हमारे बारे में मत सोचना."

कोबे (जापान) में दो फरवरी 1932 में जन्मीं स्वतंत्रता सेनानी भारती चौधरी उर्फ आशा सेन भागलपुर निवासी आनंद मोहन सहाय और बंगाल की सती सेन सहाय की बेटी हैं. बिहार के भागलपुर में नाथनगर स्थित पुरानी सराय मोहल्ले की आशा सेन का नाम देश के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों हैं.

सन् 1927 में विवाह के बाद पिता आनंद मोहन सहाय जापान चले गए. उनके चार बच्चों में आशा सबसे बड़ी थी. आशा ने स्नातक की परीक्षा 1943 में उत्तीर्ण की और 1944 में ही 17 वर्ष की उम्र में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज की सहयोगी रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुई थीं. 

जापान में ही शिक्षा दीक्षा पूरी करने वाली आशा चौधरी बताती हैं कि उस दौर में हम उम्र युवाओं व बुजुर्गो तक में देशभक्ति का जज्बा था. एक ही धुन सवार रहता कि जल्द से जल्द हमारी मातृभूमि स्वतंत्र हो जाए.

पिता आनंद मोहन सहाय नेताजी के निकट सहयोगी और आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल थे. उनकी माता सती सहाय पश्चिम बंगाल के चोटी के कांग्रेसी नेता व बैरिस्टर चित्तरंजन दास की भांजी थीं.

वे बताती हैं कि 1944 में रेजिमेंट में शामिल होने के बाद बैंकाक में उन्हें नौ माह की युद्ध संबंधी कड़ी ट्रेनिंग दिलाई गई. इसमें राइफल चलाना, एंटी एअर क्राफ्ट गन चलाना, युद्ध के तरीके, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिया गया. देश को आजादी दिलाने के लिए ब्रिटिश फौज से युद्ध के दौरान वे सिंगापुर, मलेशिया और बर्मा के युद्ध मैदान में सक्रिय रहीं.

इस दौरान उन्हें कई सप्ताह तक रेजिमेंट की नायक कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में बर्मा के घने जंगल में रहना पड़ा. वहां खाने-पीने की समस्या तो दूर, बम से जख्मी होने पर भी महिला सैनिक लड़ती रहती थीं.

आशा रानी झांसी कैंप की सिपाहियों के साथ युद्ध में घूमती रहीं. इसी बीच युद्ध रुक गया. वह भारत नहीं पहुंच सकीं. उधर इनके पिता सहाय केंद्रीय कारा सिंगापुर में बंद कर दिए गए. बाद में काफी पूछताछ के बाद उन्हें रिहा किया गया. फिर आनंद मोहन सहाय परिवार के साथ वापस 1946 में भागलपुर लौटे. उसी वर्ष उन्होंने आशा की शादी पटना निवासी डाक्टर एल.पी.चौधरी से कर दी. उसके बाद से भारती चौधरी आशा नाम से जानी जाने लगीं.

आशा बताती हैं कि नेताजी सुभाष बोस की योजना थी कि आजाद हिंद फौज के सिपाही लड़ाई में ब्रिटिश सेना को परास्त कर देश के स्वाधीनता आंदोलन के सिपाहियों से जा मिलेंगे और फिरंगियों से भारत माता को आजाद करा लेंगे. नेताजी कहा करते थे कि उनकी व आजाद हिंद फौज की जिम्मेदारी सिर्फ भारत को आजाद करना है.

एक संस्मरण को याद करते हुए वे कहती हैं कि 1944 में नेताजी बैंकाक में थे, जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के कई देशभक्त रहते थे. वे वहां दूध का व्यवसाय करते थे. एक पशुपालक ने अपने बेटे को आजाद हिंद फौज व पुत्री को रानी झांसी रेजिमेंट में भर्ती करा दिया. अपनी गौशाला, पशु आदि बेच कर मोटी राशि जुटाई और एक दिन सबकुछ बेचकर पूरी राशि नेताजी बोस को समर्पित कर दिया.

दंपति ने जब खुद को भी देश की सेवा में लगाने को कहा तो उन्हें भी रख लिया गया. आशा आजाद हिंद फौज की महिलाओं की सैन्य टुकड़ी रानी झांसी रेजिमेंट की सेकेंड लेफ्टिनेंट रह चुकी हैं.