आज़ादी में मुसलमानों के योगदान को याद दिलाता है अंजुमन इस्लामिया हॉल

Story by  सेराज अनवर | Published by  [email protected] | Date 07-08-2022
आज़ादी में मुसलमानों के योगदान को याद दिलाता है अंजुमन इस्लामिया हॉल
आज़ादी में मुसलमानों के योगदान को याद दिलाता है अंजुमन इस्लामिया हॉल

 

सेराज अनवर/ पटना

देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. यानी इस 15 अगस्त को हमारी आज़ादी की 75वीं सालगिरह होगी. पूरा भारत देशभक्ति के फ़िजा में डूबा है. ऐसे में, उन मुस्लिम संस्थानों को याद करना ज़रूरी है,जिसने जंग ए आज़ादी को परवान चढ़ाने का काम किया.

उसी में एक मरकज़ है बिहार का अंजुमन इस्लामिया हॉल, जिसमें महात्मा गांधी,मोहम्मद अली जिन्ना,सुभाष चंद्र बोस,मौलाना अबुल कलाम आजाद,मौलाना मोहम्मद अली जौहर, शौकत अली,खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान, डॉ.राजेंद्र प्रसाद आदि ने पटना सब्ज़ीबाग़ स्थित इस अज़ीम इमारत से फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ लड़ाई का आग़ाज़ करते हुए हिंदुस्तान की आवाम को संबोधित किया.

हालांकि,अब इस इमारत की शक्ल बदल गयी है. अब यह आलीशान भवन के रूप में खड़ा है. मगर भारत की आज़ादी का जब जब ज़िक्र होगा अंजुमन इस्लामिया हॉल की महती भूमिका को लोग याद करेंगे.

आज भी नई नस्लों को इसकी तारीख़ बतायी जाती है. इसकी महत्ता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि नई इमारत बेशक बेहद आकर्षक बनी है मगर पुरानी इमारत की तस्वीर को भी लोग दिलों में संजो कर रखे हैं.

कुछ लोगों को अब पुरानी इमारत टूटने का अफसोस हो रहा है. क्योंकि,एक इतिहास के दफन हो जाने का अहसास हो रहा है. लेकिन नई इमारत चाहे जितनी सुंदर हो,जितनी बुलंद हो अंजुमन की दास्तान को कभी नहीं मिटाया जा सकेगा. यह हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी मिरास है. जंग ए आज़ादी की निशानी है.

क्या है अंजुमन का इतिहास

पटना के मुसलमानों ने 1885 में अंजुमन इस्लामिया नाम की इस इमारत की संग ए बुनियाद रखी. यह पटना में बनने वाला पहला हॉल यानी ऑडिटोरियम था. क़ाबिल-ए-गौर बात यह है कि बिहार राज्य अब तक अपने वजूद में नहीं आया था और न पटना उसकी राजधानी थी.

अगर अंजुमन इस्लामिया पर नज़र डालें तो यह भारत में रह कर पढ़े अल्लामा जमालउद्दीन अफ़गानी की तहरीक से प्रेरित नज़र आती है,जिन्होंने 1860 के दौर में बहुत ही मज़बूती से 'पैन इस्लामिक मूवमेंट' चलाया था. 1885 के बाद तुर्की के सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय की सरपरस्ती में इसे और बढ़ाया. बाद में इस तहरीक का छोटा सा नमूना हिन्दुस्तान में ‘रेशमी रूमाल तहरीक’और ‘ख़िलाफ़त तहरीक’ के रूप में देखने को मिला.

1885 के बाद हिन्दुस्तान में कई 'अंजुमन इस्लामिया' नामक संगठन अलग-अलग रूप में अलग-अलग जगह बने. मुम्बई, कोलकाता, रांची आदि जगहों में ये संगठन आज भी मौजूद है, जो छोटे-छोटे सामाजिक सेवा में कार्यरत हैं.

इसी दौरान इंगलैंड में रह कर पढ़ाई कर रहे बिहार के छात्रों ने वहां एक संगठन बनाया. उसका नाम 'अंजुमन इस्लामिया' रखा. इस संगठन से जुड़े कई बड़े नाम हैं, जिसमें पहला नाम मौलाना मज़हरुल हक का आता है, वहां इस संगठन के संस्थापक वही थे.

इसके अलावा भारतीय संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डॉ. सच्चिदानंन्द सिन्हा,1908 में अमृतसर में हुए मुस्लिम लीग के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता और 1920 में लीग ऑफ नेशन की पहली असेंबली में भारत की नुमाइंदगी करने वाले सैयद अली इमाम,1918 में मुम्बई में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन की अध्यक्षता और 1923 में लीग ऑफ नेशन की चौथी असेंबली में भारत की नुमाइंदगी करने वाले सैयद हसन इमाम जैसे लोग इस संगठन से जुड़े थे.

इस संगठन के कार्यक्रम में मुहम्मद अली जिन्ना और महात्मा गांधी जैसे लोग शरीक होते थे, जिसमें एक पाकिस्तान के कायद-ए-आज़म तो दूसरे भारत के राष्ट्रपिता बने. यह तमाम लोग उस दौरान इंगलैंड में रह कर बैरिस्ट्री की पढ़ाई कर रहे थे. इस बात का ज़िक्र खुद डा. सच्चिदानन्द सिन्हा ने अपनी किताब में किया है.

अंजुमन इस्लामिया संगठन से जुड़े लोग पढ़ाई मुकम्मल कर वापस बिहार लौट कर आये तो बिहार को बंगाल से अलग करने के लिए ‘बिहार फ़ॉर बिहारी’ तहरीक चलायी. काफी साल मेहनत करने के बाद आख़िर 22 मार्च, 1912 को बिहार राज्य वजूद में आया. अलग बिहार की मांग को लेकर कई कार्यक्रम अंजुमन इस्लामिया हॉल में हुए.

आज़ादी का गवाह

बिहार को वजूद में लाने के बाद अब ज़रूरत थी हिंदुस्तान को आजाद कराने की. तहरीक-ए-आजादी की गवाह इस इमारत ने हर उस आवाज़ को स्टेज मुहैया कराया जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद की.

इस इमारत की दीवारों ने महात्मा गांधी की आवाज़ सुनी, मौलाना मोहम्मद अली जौहर की आवाज़ सुनी, शौकत अली की आवाज सुनी, उनकी मां बी-अम्मा की आवाज़ सुनी. आज भी इस इमारत में पंडित नेहरू,खान अब्दुल गफ्फार खान,सुभाषचंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद  और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसी हस्तियों की आवाज़ को महसूस किया जा सकता है.

27-28 दिसम्बर 1912 को बांकीपुर में आरएन मधुकर की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के 28वें अधिवेशन का भी गवाह है यह इमारत. इसने 26-29 दिसंबर, 1938 को बांकीपुर में मुहम्मद अली जिन्ना की अध्यक्षता में हुए मुस्लिम लीग के 26वें अधिवेशन को भी नज़दीक से देखा है.

इसी इमारत में आज़ादी से पहले बनी सोशलिस्ट पार्टी की पहली बैठक हुई थी. इसी इमारत के साये में मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद की अध्यक्षता में ‘मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी' वजूद में आयी और इसी पार्टी के बैनर तले 1 अप्रैल, 1937 को बैरिस्टर मुहम्मद यूनुस ने बिहार के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली.

यह इमारत उर्दू तहरीक की भी गवाह है, इसी इमारत से 'बाबा-ए-उर्दू' मौलवी अब्दुल हक ने उर्दू के हक की लड़ाई लड़ी, जिसके गवाह मौलाना शफी दाऊदी से लेकर मौलाना मगफुर अहमद एजाजी जैसे स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं.

यहां होता था ज़ख़्मी स्वतंत्रता सेनानियों का इलाज

सोशल एक्टिविस्टऔर पत्रकार अनवारुल होदा बताते हैं, स्वतंत्रता आंदोलन का यह एक केन्द्र रहा है. यह हमें आज़ादी की याद दिलाता है. अंजुमन क्रांतिकारियों के लिए अस्पताल का काम करता था. ज़ख़्मी स्वतंत्रता सेनानियों का इलाज यहीं होता था.

अंजुमन जिस जगह पर है,यह इलाक़ा सब्ज़ीबाग़ का है. जहां पचास हज़ार से अधिक मुसलमान रहते हैं. अंजुमन गरीब मुसलमानों का सहारा भी रहा है. आज जब आज़ादी का अमृत महोत्सव चल रहा है तो किसी को इस इमारत की तारीख़ बयान करने की फुर्सत नहीं है. उल्टे आधुनिक भवन निर्माण के बाद नया किराया निर्धारण को लेकर विवादों में उलझ गया है एतिहासिक अंजुमन इस्लामिया हॉल.

होना तो यह चाहिए था कि जश्न-ए-आज़ादी के मौक़े पर नई पीढ़ी को अंजुमन की दास्तान सुनाते,देश के एकता-अखंडता में अपनी भूमिका की डोर को और मज़बूत करते.