अफगानिस्ताननामा : ब्रिटिश फौज की सबसे करारी हार

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 29-01-2022
 ब्रिटिश फौज की करारी हार
ब्रिटिश फौज की करारी हार

 

अफगानिस्ताननामा : 41

 
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काबुल के बाहर बनी ब्रिटिश छावनी में अब हर तरफ भय का माहौल था. वहां होने वाले हमले लगातार बढ़ रहे थे. कभी अफगान लड़ाके छावनी को घेर लेते. कभी गाजियों की फौज वहां हमला बोल देती. सैनिक हमलावरों को भगा देते लेकिन उन्हें पता था कि यह बहुत दिन तक नहीं हो पाएगा.

शाह शुजा से कोई बड़ी मदद नहीं मिल रही थी. उसकी उम्मीद भी खत्म हो चुकी थी. यह छावनी एक तरह से बाहरी दुनिया से कट चुकी थी. खाने-पीने का सामान खत्म हो रहा था . गोला बारूद भी बहुत ज्यादा नहीं रह गया था.
 
सबसे बड़ी परेशानी पैदा कर रहा था दोस्त मुहम्मद का बेटा अकबर खान. उसके रवैये से यह साफ नहीं हो रहा था कि वह ब्रिटिश फौज से समझौता करना चाहता है या फिर अपने पिता की हार का बदला लेना  चाहता है.
 
समझौते के लिए उसकी शर्त थी कि शाह शुजा को हटाकर उसे काबुल के तख्त पर बिठाया जाए. अंग्रेज यह करने की स्थिति में नहीं थे. वे यह करना भी नहीं चाहते थे.
 
मैकेनघटन ने अकबर खान के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह शाह शुजा का वजीर बन जाए और मामले को रफा-दफा किया जाए, लेकिन यह प्रस्ताव ठुकरा दिया गया.
 
आगे क्या किया जाए इसे लेकर ब्रितानी अफसरों में स्पष्ट मतभेद थे. जनरल ऐलीफंस्टन की राय थी कि सेना को यहां से निकाल कर बाला हिसार के किले में ले जाया जाए, जहां सुरक्षा के ज्यादा इंतजाम हो सकते हैं.
 
हालांकि यह आसान नहीं था. एक तो वहां पहले ही जगह कम थी और इतने बड़े फौजी अमले, उनके परिवार वालों और उससे भी बड़ी उनके तामीरदारों की फौज को वहां व्यवस्थित करना तकरीबन असंभव था.
 
छावनी से बाला हिसार का रास्ता बहुत लंबा नहीं था, लेकिन यह डर तो था ही कि अगर इस रास्ते में उन पर हमला हो गया तो क्या होगा ? जनरल शेल्टन ने अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ बाला हिसार में काफी समय गुजारा था, इसलिए वे इसके पूरी तरह खिलाफ थे.
 
वे चाहते थे कि ब्रिटिश फौज को अफगानिस्तान छोड़ देना चाहिए. जनरल मैकेनघटन की राय थी कि छावनी में पूरी सर्दियों तक की रसद मौजूद है इसलिए उन्हें यहीं रहना चाहिए.
 
उन्हें उम्मीद थी कि ब्रिटिश फौज आएगी और उन्हें इस संकट से उबार लेगी. लेकिन उन्होंने भी आपात स्थितियों में बाला हिसार में जाने की जरूरत पर विचार शुरू कर दिया था.
 
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अगला हमला इतना बड़ा था कि ब्रिटिश उसके सामने नहीं टिक सके. मैकेनघटन ने फिर बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी. जब वे मामला सुलझाने के लिए खुद काबुल की ओर बढ़े तो उनका सर काट दिया गया और उनके शरीर को काबुल की गलियों में घुमाया गया.
 
अब छावनी में मौजूद लोगों के सामने इसका कोई और विकल्प नहीं रहा गया था कि वे किसी तरह वहां से निकल कर भारत की ओर कूच करें. कूच करना भी आसान नहीं था.
 
वहां कुछ 4500 सैनिक थे. इसके अलावा 12,000 और लोग थे जिनमें कुछ सैनिकों के परिवार के लोग थे और बाकी भारत से लाए गए नौकर चाकर थे. इसके अलावा 200 से ज्यादा, उंट, घोड़े और खच्चर वगैरह थे.
 
कूच करने का वक्त आया तो अकबर खान एक बार फिर हाजिर था. उसकी शर्त थी कि अगर सैनिक अपने सारे हथियार उसके हवाले कर देंगे तो तभी उन्हें जाने दिया जाएगा.
 
उसका कहना था कि पूरे रास्ते में उसके लड़ाके लोगों की हिफाजत के लिए मौजूद रहेंगे. जनरल एलफिंस्टन के लिए इन शर्तों को मानने के अलावा कोई और चारा भी नहीं था.
 
छोटे मोटे कुछ हथियार भले ही सैनिकों के पास रह गए, लेकिन उन्हें अपने ज्यादातर हथियार अकबर खान के हवाले करने पड़े. वे जब वहां से रवाना हुए तो किसी को भी नहीं पता था कि ज्यादातर लोगों को इस रास्ते में मौत ही मिलेगी.
 
पूरे रास्ते में उन्हें जगह-जगह लूट गया, जगह-जगह मारा गया. कुछ संकरे दर्रों में तो बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ. यह दिसंबर का महीना था और पूरे रास्ते में हर जगह बर्फ जमी थी.
 
सैनिक तो ऐसी स्थितियों में रहने के अभ्यस्त थे, लेकिन उनके परिवार के लोगों और नौकरों के लिए मौसम भी निर्दयी बन गया था. ज्यादातर लोगों को अफगान लड़ाकों ने जगह-जगह मार दिया.
 
कईं लोग मौसम का भी शिकार बने. मरने वालों में ज्यादातर भारतीय नौकर-चाकर थे। कुछ औरतों और बच्चों का अपहरण कर अफगान लड़ाके उन्हें अपने साथ ले गए.
 
इस रास्ते में उन पर जो गुजरी उसका विस्तृत ब्योरा लिखा है फ्लोरेंशिया सेल ने। उनके पति जनरल जाॅर्ज सेल काबुल की पास बनी उसी छावनी में तैनात थे. हालत बिगड़ने से पहले वे जलालाबाद आ गए थे और फिर लौट नहीं पाए. जबकि उनकी पत्नी और बेटी वहीं छावनी में रह गए.
 
रास्ते में लेडी सेल की कलाई में एक गोली लगी जबकि एक गोली उनके जैकेट में फंस गई. उनकी बेटी जिस खच्चर पर सवार थी उसे भी गोली लग गई थी। फिर भी वे किसी तरह बचकर भारत आ गईं. इस तरह से बचकर आ सकने वाले खुशकिस्मत गिने-चुने ही थे.
 
यह उस दौर में ब्रिटेन की शायद सबसे करारी हार थी. इतिहास में हम इसे पहले ब्रिटिश अफगान युद्ध के रूप में पढ़ते हैं. 
 
जारी....