अफगानिस्ताननामा:   ब्रिटिश अफगान जंग का अंत

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 06-03-2022
अफगानिस्ताननामा:  सरी ब्रिटिश अफगान जंग का अंत
अफगानिस्ताननामा:  सरी ब्रिटिश अफगान जंग का अंत

 

अफगानिस्ताननामा: 50


 
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जनरल राॅबर्ट्स को लगा कि अगर वे काबुल की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लें तो सुरक्षा का इंतजाम कुछ ज्यादा अच्छा हो जाएगा. लेकिन यह आसान नहीं था. कुछ पहाड़ियों को चोटियों तक वे पहंुच ही नहीं सके और कुछ पहाड़ियों पर उन्होंने जब कब्जा जमाया तो जल्द ही वे उनसे छीन ली गईं. परेशानियां सिर्फ इन पहाड़ी चोटियों पर ही नहीं थीं,

काबुल के रास्ते में जगह-जगह बारूदी सुरंगे बिछी थीं. ऐसे में जनरल रॉबर्ट्स ने अपनी सभी चौकियों खत्म करके पूरी सेना को छावनी में ही जमा कर लिया. जल्द ही काबुल पर अफगानों का फिर से कब्जा हो गया.
इसके तुरंत बाद मुहम्मद जन के 40 हजार लोगों ने पूरी छावनी को घेर लिया.
 
हालात लगभग वैसे ही हो गए जैसे कि पहले ब्रिटिश अफगान युद्ध के थे. 22 दिसंबर को एक जासूस ने आकर बताया कि पुरजोर हमले की तैयारी हो चुकी है और अगले दिन किसी भी वक्त हमला हो सकता है.
आधी रात के बाद यह हमला शुरू हो गया.
 
रात के अंधेर में दोनों तरफ से जोरदार गोलीबारी हुई. सुबह जब सूरज निकला तब तक छावनी के बाहर और अंदर दोनों ही जगह लाशें बिछी हुई थीं. आक्रमणकारी अफगान हमले के बाद वहां से जा चुके थे. इसके बाद ब्रिटिश फौज छावनी ने निकली और उसने काबुल पर फिर से कब्जा कर लिया.
 
इसी समय यह कहा गया कि ब्रिटिश फौज को इसे अपनी जीत बताकर अफगानिस्तान छोड़ देना चाहिए, लेकिन इस राय को कहीं से भी हरी झंडी नहीं मिली.इसके बाद जनरल रॉबर्ट्स ने 200 से ज्यादा कबीलाई सरदारों के साथ एक बैठक की जिसमें उन्होंने घोषणा कर दी कि जो भी अपने हथियार उन्हें सौंप देंगा उसे माफ कर दिया जाएगा. हालांकि इसका कोई बहुत अर्थ नहीं था.

इस बीच फिरंगियों के खिलाफ जिहाद का एक ऐलान करने वाले मौलाना मुश्क-ए-आलम गजनी पहुंच कर वहीं जम गए। ये वह जगह  थी जहां से वे खिलजी लोगों को ज्यादा अच्छी तरह संगठित कर सकते थे. इसी के साथ यह खबर भी आ गई कि दोस्त मुहम्मद का वंशल अब्दुर रहमान अपने कुछ सैनिकों के साथ अबू दरिया पार करके बहुत नजदीक पहुंच चुका है. वह कई साल तक रूस में रहा था और वहीं उसने सैनिक प्रशिक्षण भी हासिल किया था.
 
इस बीच यह फैसला हुआ कि कंधार में जनरल स्टेवर्ड के नेतृत्व में जो ब्रिटिश डिवीजन है उसे भी मदद के लिए काबुल भेज दिया जाए. लेकिन जब यह डिवीजन जब गजनी के पास पहुंचा तो उस पर गाजियों की सेना ने जोरदार हमला बोल दिया. यह डिवीजन किसी तरह बचते-बचाते काबुल पहुंच  सका जहां हालात बहुत अच्छे नहीं थे और खतरे चारों ओर खड़े थे.
 
इस बीच एक बदलाव ब्रिटेन में हुआ. वहां डिजरायली सरकार गिर गई और इसी के साथ कोलकाता से लॉर्ड लिटन की विदाई भी हो गई. इसी के साथ अफगानिस्तान तक फौज भेज कर अपनी सीमा को सुरक्षित रखने की नीति भी खत्म हो गई.
 
यानी ब्रिटिश फौज की वापसी का रास्ता साफ हो गया था. इसके बाद तय हुआ कि अब्दुर रहमान को काबुल की सत्ता सौंप दी जाए. यह हो भी गया लेकिन तभी एक खबर यह आई कि कंधार के पास ब्रिटिश सेना की एक बड़ी टुकड़ी को पूरी तरह खत्म कर दिया गया.

अब काबुल में मौजुद फौज के एक बड़े हिस्से को जनरल राॅबर्ट्स के साथ कंधार बदला लेने के लिए भेज दिया गया. कंधार में की इस लड़ाई में बहुत सारे अफगान मारे गए. और उसके बाद ब्रिटिश फौज वहां से भारत रवाना हो गई. काबुल में मौजूद बाकी फौजी भी तब तक भारत पहुंच चुके थे. एक और ब्रिटिश अफगान जंग खत्म हो गई. बड़ी संख्या में लोग मारे गए लेकिन किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ.
 
समाप्त