अफगानिस्ताननामा : तीस साल बाद काबुल में शाह शुजा की वापसी

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 16-01-2022
तीस साल बाद काबुल में शाह शुजा की वापसी
तीस साल बाद काबुल में शाह शुजा की वापसी

 

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गज़नी के किले में कुछ सैनिकों को छोड़कर ब्रिटिश अफसरों के नेतृत्व वाली यह फौज अब काबुल की ओर निकल पड़ी। तब तक दोस्त मुहम्मद को समझ आ चुका था कि इस भारी भरकम फौज से निपटना उसके बस की बात नहीं है. इसलिए वह काबुल से निकल भागा. ब्रिटिश फौज जब काबुल पहुंची तो उसे बहुत ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा. जिन ठिकानों से उन पर कुछ गोलियां और तोपें दागी गईं वे ठिकाने भी जल्द ही कब्जे में ले लिए गए.

अब समय आ गया था शाह शुजा के विजय जुलूस को काबुल में ले जाकर उन्हें पूरे तीस साल बाद अफगानिस्तान के तख्त पर बिठाने का. शाह शुजा शाही परिधान और जेवरों-जवाहरातों से लदे हुए एक सफेद घोड़े पर सवार थे.
 
हालांकि उनके वहां पहंुचने पर कोई बहुत ज्यादा खुशियां नहीं मनाई गईं. औरतें और बच्चे घरों की खिड़कियों से झांक रहे थे. मर्द बाहर जरूर निकले लेकिन वे भी कोई उत्साह दिखाने के बजाए अभी हालात का जायजा ही ले रहे थे.
 
ब्रिटिश इतिहासकार सर जाॅन के ने लिखा है कि चारों तरफ इतनी शांति थी कि यह जुलूस किसी विजय यात्रा की तरह नहीं बल्कि किसी जनाजे की तरह लग रहा था.
 
दोस्त मुहम्मद भाग गया था, लेकिन उसने एक अंतिम कोशिश की. उसने शाह शुजा को संदेश भेजा कि वह उनकी सरपरस्ती स्वीकार करने को तैयार है .उनके वजीर के रूप में काम करना चाहता है. लेकिन शाह शुजा ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया.
 
अफगान लोगों के मन में शाह शुजा को लेकर कई तरह की नाराजगी थी. एक तो उसने महाराजा रणजीत सिंह और ब्रिटिश के साथ जो त्रिपक्षीय समझौता किया था उसमें अफगानिस्तान का एक हिस्सा उससे अलग हो गया था.
 
दूसरे वे शाह शुजा को एक अयोग्य शासक के रूप में ही याद कर पाते थे. हालांकि अफगान लोगों के मन में उस समय ज्यादा समस्या शाह शुजा को लेकर नहीं थी बल्कि उस ब्रिटिश फौज को लेकर थी जो बड़ी संख्या में उनके देश में जमा हो चुकी थी.
 
अफगानिस्तान में और दुनिया में जहां भी ब्रिटिश थे. उनके लिए यह जश्न का मौका था. शाह शुजा को भले ही काबुल में स्थापित कर दिया गया था, लेकिन उनके लिए तो इसका अर्थ यही था कि अफगानिस्तान ब्रिटेन की झोली में आ चुका है.
 
न सिर्फ अफगानिस्तान बल्कि रेशम मार्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी.  एक और बड़ी खुशी इस बात की थी कि ब्रिटेन ने राजनय और सैन्य बल दोनों ही मामलों में रूस को पीछे छोड़ दिया था.
 
 
रूस की नजर लंबे समय से अफगानिस्तान पर थी, लेकिन वह यह तय नहीं कर सका था कि उसे इस मुल्क से कैसा बर्ताव करना है. कभी उसने सीधे अफगानिस्तान पर काबिज होने की सोची तो कभी ईरान की मदद से वहां पहुंचने की. दोस्त मोहम्मद के सहयोग से ब्रिटेन को अफगानिस्तान से दूर रखने का मौका भी उसने खो दिया था.
 
काबुल पर काबिज होने के बाद ब्रिटेन ने बामियान और जलालाबाद में अपनी अपनी छावनियां स्थापित की. गजनी और कंधार में उसकी सैनिक टुकड़ी पहले से ही मौजूद थी. इसके बाद दिसंबर 1839 में  तय हुआ कि बाकी फौज को भारत वापस भेज दिया जाए. सिर्फ आठ हजार सैनिक ही अफगानिस्तान में रहने दिए गए.
 
वापसी में बांबे प्रेसीडेंसी की टुकड़िया जब बोलन दर्रे के पास पहुंची तो उन पर बलोच सैनिकों ने हल्ला बोला. कलात के किले में हमलावर पहले ही इसकी तैयारी कर चुके थे.
 
हालांकि इस छापामार लड़ाई में ब्रिटिश फौज को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन इसने यह तो बता दिया कि अफगानिस्तान ब्रिटेन के लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाला है.
 
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके अपने विचार हैं