अफगानिस्ताननामा : काबुल से समझौते की कोशिश सिरे नहीं चढ़ी

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 03-01-2022
अफगानिस्ताननामा : काबुल से समझौते की कोशिश सिरे नहीं चढ़ी
अफगानिस्ताननामा : काबुल से समझौते की कोशिश सिरे नहीं चढ़ी

 

अफगानिस्ताननामा 35

harjinderहरजिंदर 

ब्रिटेन अफगानिस्तान कीतरफ रातो-रात नहीं बढ़ा. इसके लिए उसनेलंबी तैयारी की- तीन दशक लंबी तैयारी. बहुत सेइतिहासकार इसे 1801 से शुरू करतेहैं जब ब्रिटेन ने ईरान से एक सैनिक समझौता किया. हालांकि यहसमझौता हथियारों की आपूर्ति और सैन्य प्रशिक्षण का था लेकिन माना जाता है कि इसकाअसल मकसद अफगानिस्तान में दुर्रानी वंश की सत्ता को कमजोर करना था.

इसमें कामयाबी भी मिली. ब्रिटेन की शह का ही नतीजा था कि ईरान ने खुरासान को अपने कब्जे में ले लिया औरबहुत बाद में हेरात को भी घेर लिया था जहां अभी तक कामरान का ही राज चल रहा था.इसके बाद ब्रिटेन ने 1809 में माउंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन को अफगानिस्तानभेजा.

स्काॅटलैंड के रहने वाले एल्फिंस्टोन वैसे तोइतिहासकार थे लेकिन वह ब्रिटिश सरकार से जुड़े हुए थे. उन्होंने अफगानिस्तान की स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्टतैयार की और लंदन भेज दी. बाद मेंएलफिंस्टन ने अफगानिस्तान पर एक किताब भी लिखी.

यह माना जाता है कि उन्होंने अपनी किताब में जोलिखा वह सब उनकी रिपोर्ट का भी हिस्सा था. इसमेंएलफिंस्टन हमें बताते हैं कि किस तरह से अफगानिस्तान में केंद्रीय सत्ता का असरएक हद से आगे नहीं जाता और वहां के स्थानीय जंगजू या वारलाॅर्ड ज्यादा महत्वपूर्णहो जाते हैं. 

उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह अफगानिस्तान कोसमझने में आज भी मददगार हो सकता है. मसलन एक जंगजूने एक मौके पर उनसे कहा, ‘हम कलह के साथ रहसकते हैं, हम खतरों के साथ रह सकतेहैं, हम खून खच्चर के साथ रहसकते हैं, लेकिन हम ऐसे आदमी के साथकभी नहीं रहेंगे जो खुद को हमारा मालिक समझता हो.‘एलफिंस्टन को हम एक औरवजह से भी जानते हैं.

1819 से 1827 तक वे भारत में बांबे प्रेसीडेंसी के गवर्नर भी रहे. बाद में उन्होंने भारत पर भी एक किताब लिखी.इस बीच काबुल में भी कईंबदलाव हो गए. वहां गृह युद्ध जैसीस्थिति थी और जल्द ही दुर्रानी या अब्दाली वंश को सत्ता से बाहर कर के दोस्तमुहम्मद ने कब्जा जमा लिया.

ब्रिटेन को लगाकि अब दोस्त मुहम्मद से संपर्क बनाने का समय आ गया है. ब्रिटिश सरकार ने एलेक्जेंडर बन्र्स को अपना दूतबनाकर काबुल भेजा. बन्र्स राजनयिक भी थे औरजाने माने घुमक्कड़ भी. स्काटिश मूल के बन्र्सने बाद में अपनी बुखारा यात्रा पर एक किताब - ट्रैवल इनटू बुखारा भी लिखी थी.

1835 में छपी यहकिताब उस जमाने में बेस्ट सेलर थी. इसके बाद सेउन्हें बुखारा बन्र्स भी कहा जाने लगा था.बन्र्स जिस समयअफगानिस्तान पहुंचे उस समय एक और घटना हुई. एशिया में अपनाप्रभाव बढ़ने की कोशिश में रूस के जार साम्राज्य ने भी अपना एक दूत काबुल भेज दिया.

kabul

अब दोनों में स्पर्धा थी कि कौन काबुल की सरकार को प्रभावितकर पाता है.हालांकि दोस्त मोहम्मद कीदिलचस्पी ब्रिटेन के सहयोग में ज्यादा थी. दोस्त मुहम्मदने बन्र्स के सामने यह शर्त रखी कि अगर ब्रिटेन पेशावर को हासिल करने में उसकी मददकरे तो वे समझौते के लिए तैयार हैं. 

पेशावर उस समय सिखों के कब्जे में था और ब्रिटिशसरकार महाराज रणजीत सिंह से पंगा नहीं लेना चाहती थी. ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर उस समय तक पूरे भारत पर थी और उसभारत का हिस्सा बन चुका पेशावर वह अफगानिस्तान को नहीं देना चाहती थी.

एक वजह यह भी थी कि सिखों से पहले ही संधि हो चुकी थी औरपेशावर के मामले में मदद का मतलब था उस संधि को तोड़ना. दोस्त मोहम्मद को ब्रिटेनके साथ मिलाने में बन्र्स असफल रहे. लेकिन उन्हें एककामयाबी जरूर मिली.

उनके प्रयासों ने जार केदूत की भी नहीं चलने दी और वह दूत जल्द ही लौट गया. इस बीच बन्र्सने कई वारलाॅर्ड से भी बात की. वे इस नतीजे परपहुंचे कि दोस्त मुहम्मद जरूरत से ज्यादा महत्व दिया जा रहा है जबकि उसका प्रभावकाबुल से बहुत दूर तक नहीं जाता.

वैसे भी दोस्त मुहम्मद केसाथ समझौता ब्रिटेन का प्लान बी था. उनका पहला प्लानतो काबुल पर शाह शुजा को स्थापित करना ही था, जो उस समय लुधियाना में ब्रिटिश पेंशन के साथ आराम कीजिंदगी गुजार रहा था. या यूं कहें कि उस मौकेका इंतजार कर रहा था जब ब्रिटिश सरकार उसे उसका खोया हुआ ताज वापस दिलाएगी.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं 

ALSO READ अफगानिस्ताननामा: शुरू हो गया अंग्रेजों का हस्तक्षेप