अफगानिस्ताननामा: शुरू हो गया अंग्रेजों का हस्तक्षेप

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 02-01-2022
अफगानिस्ताननामा: शुरू हो गया अंग्रेजों को हस्तक्षेप
अफगानिस्ताननामा: शुरू हो गया अंग्रेजों को हस्तक्षेप

 

अफगानिस्ताननामा 34

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उन्नीसवीं सदी शुरू होते होते अफगानिस्तान चारो तरफ से कईं दबावों में फंसने लग गया था. एक तरफ महाराजा रणजीत सिंह की फौज थी जिसने उनकी सर्दियों की राजधानी पेशावर पर कब्जा जमा लिया था.

दूसरी तरफ ईरान था जो खोरसान तक आ गया और फिर यह इलाका भी पेशावर की तरह हमेशा के लिए अफगानिस्तान के नक्शे से विदा हो गया.
 
ठीक इसी समय दो ऐसी ताकतों ने अफगानिस्तान पर नजर गड़ा दी जिनसे निपटने का इस मुल्क के पास पहले का कोई अनुभव नहीं था. इनमें से एक ताकत थी रूस जिसकी सरहद अफगानिस्तान से बहुत दूर नहीं थी.
 
दूसरी ताकत पश्चिमी यूरोप का एक ऐसा देश था जो पूरी दुनिया में अपने उपनिवेश कायम कर रहा था. वाटरलू में नेपोलियन बोनापार्ट की हार के बाद ब्रिटेन अब बाकी दुनिया में हाथ आजमाने के लिए खुद को स्वतंत्र महसूस कर रहा था.
 
हालांकि भौगोलिक रूप से ब्रिटेन भी अफगानिस्तान से बहुत दूर नहीं था. ईस्ट इंडिया कंपनी के तौर पर भारत लगातार अपनी ताकत बढ़ा रहा था. ब्रिटेन का अफगानिस्तान में हस्तक्षेप शुरू भी हो चुका था. शाह शुजा को इसी के लिए तैयार भी किया गया था.
 
लेकिन रूस ने भी जल्द ही अपना ध्यान अफगानिस्तान से हटा कर अपने पुराने दुश्मन तुर्की पर केंद्रित करना शुरू कर दिया था. अफगानिस्तान के मुकाबले उसके लिए यही बड़ी प्राथमिकता थी. इन्हीं कोशिशों में रूस ने न सिर्फ तुर्की के ओटोमन साम्राज्य को हरा दिया बल्कि आर्मीनिया जैसे देशों पर कब्जा भी हासिल कर लिया.
 
ब्रिटेन के लिए अफगानिस्तान का खेल बहुत आसान नहीं था. सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि जहां तक ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था और जहां अफगानिस्तान शुरू होता था उनके बीच महाराजा रणजीत सिंह का राज था.
 
कंपनी को मैसूर की तीन बड़ी लड़ाइयों में टीपू सुल्तान से मात मिल चुकी थी. तीसरी लड़ाई में कपंनी मराठा फौज और हैदराबाद के निजाम की मदद से टीपू को हराने और उन्हें मार देने में कामयाब रही और मैसूर पर कब्जा भी हासिल कर लिया.

लेकिन इस लड़ाई के अनुभव अभी ताजा थे और कंपनी अब इसी तरह का पंगा महाराजा से नहीं लेना चाहती थी. इसलिए उनसे संधि में ही समझदारी मानी गई.लेकिन एक दूसरी तरह से ब्रिटेन ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप की अपनी नियत साफ कर दी थी.

ब्रिटेन, शाह शुजा और महाराजा रणजीत सिंह के बीच हुआ त्रिपक्षीय समझौता इसी दिशा में उठाया गया कदम था. और जब रणजीत सिंह का निधन हुआ तो अंग्रेजों को अपनी पंजाब बाधा भी दूर होती दिखाई दी.
 
उस दौर के तमाम प्रतापी राजाओं, सुल्तानों और शहंशाहों की तरह ही महाराजा रणजीत सिंह भी अपनी तमाम कामयाबियों के बावजूद पंजाब को शासन की कोई स्थाई व्यवस्था देने में असफल रहे थे.
 
उनके शासन की जो भी उपलब्धियां थीं वे उनकी निजी क्षमताओं के बलबूते ही हासिल हुई थीं. हालांकि उन्होंने अपनी सेनाओं को पश्चिम की शैली पर प्रशिक्षित किया था, लेकिन पश्चिमी देशों की सत्ता प्रणालियों में जो बदलाव हो रहे थे उनसे उन्होंने कुछ नहीं सीखा था. लेकिन इससे भी ज्यादा बड़ी समस्या यह थी कि उनका कोई भी वारिस इस योग्य नहीं था जो पंजाब की बागडोर को ठीक से संभाल सकता.
 
नतीजा यह हुआ कि महाराजा रणजीत सिंह ने दुनिया के जिस पहले सिख साम्राज्य की स्थापना की थी वह उन्हीं के निधन के बाद बिखर गया. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ईस्ट इंडिया कंपनी को पंजाब की सत्ता बहुत आसानी से मिल गई. इसके लिए उन्हें दो लड़ाइयां लड़नी पड़ीं जिन्हें एंग्लो सिख वार के नाम से जाना जाता है.
 
इसमें से पहली लड़ाई 1845-46 में फीरोजपुर के आसपास हुई. इसके बाद अंग्रेज पंजाब के एक बड़े हिस्से पर काबिज हो गए और जम्मू-कश्मीर का इलाका भी उनसे छिन गया, लेकिन अफगानिस्तान अभी बहुत दूर था.
 
अगली लड़ाई 1848-49 में हुई. इसके बाद सिख साम्राज्य हमेशा के लिए खत्म हो गया. अफगानिस्तान के जिन हिस्सों को महाराजा रणजीत सिंह ने जीता था उन्हें नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के रूप में एक अलग प्रदेश बना दिया गया. यह प्रदेश आज भी पाकिस्तान का हिस्सा है. अंग्रेज अब अफगानिस्तान के दरवाजे पर पहुंच चुके थे.
 
नोट: यह लेखक के अपने विचार हैं ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )