अफगानिस्ताननामा : सुरक्षा के लिए घूस और खेल का बिगड़ना

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 23-01-2022
अफगानिस्ताननामा
अफगानिस्ताननामा

 

अफगानिस्ताननामा : 39
 
हरजिंदर
 
ब्रिटिश सैनिकों ने अपनी छावनी जरूर बसा ली थी, लेकिन वे सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे थे. उन्होंने अपने परिवार भी बुला लिए थे. साथ ही भारत से बड़ी संख्या में नौकर चाकर भी बुलाकर जमा कर लिए थे.

एक-एक अफसर के पास दर्जनों नौकर थे. यह सब यह सोच कर किया गया था कि अफसरों और सैनिकों पर मानसिक दबाव कम से कम रहे. इसीलिए उनके खेलने वगैरह की भी पर्याप्त व्यवस्थाएं की गई थीं. लेकिन इन सब से भी वहां सेना के प्रमुख विलियम मैकेनघटन संतुष्ट नहीं थे.
 
सबसे बड़ी समस्या यह थी कि शाह शुजा से जो उम्मीदें थीं वे पूरी नहीं हो पा रहीं थीं. वे शाह जरूर बन गए थे लेकिन अफगान जनता से तारतम्य नहीं बिठा पा रहे थे. शाह शुजा से यह भी कहा गया था कि वे उसी तरह से सभी अफगान कबीलों को अपने साथ लें जैसे कि उनके दादा ने कभी किया था.
 
लेकिन शाह शुजा ने यह भी नहीं किया. उन्होंने शायद इसकी कभी कोशिश ही नहीं की. खासकर खिलजी और बरक्जई जैसे कबीलों को. लेकिन शाह शुजा अपने दुर्रानी कबीले को ही अपने साथ नहीं ले सके थे. शाह शुजा के दिमाग में क्या चल रहा है मैकेनघटन यह कभी ठीक से नहीं समझ सके.
 
अफगानिस्तान की अपनी कोई फौज नहीं थी. विभिन्न कबीलों के सरदार जब जरूरत होती थी अपने लोगों को लड़ाई के लिए तैयार कर लेते थे. शाह शुजा से कहा गया कि वे अपने लिए एक पूर्णकालिक सेना तैयार करें लेकिन यह बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. यही बात जब विभिन्न कबीलों के सरदारों से हुई तो उनका जवाब था कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है.
 

मैकेनघटन ने जब इसके लिए दबाव बनाने की कोशिश की तो इसे लेकर कईं कबीले नाराज हो गए.पहला खतरा दोस्त मुहम्मद के रूप में आया. उसने एक सेना तैयार कर ली थी.
 
जल्द ही ब्रिटिश सेना से उसकी मुठभेड़ शुरू हो गई. इस मोर्चे पर ब्रिटिश सफल रहे. दोस्त मुहम्मद तब तक उतनी ताकत नहीं बटोर सका था जितनी अंग्रेजों को टक्कर देने के लिए जरूरी थी. ब्रिटिश फौज उसे गिरफ्तार करने में कामयाब रही. उसे पकड़कर भारत भेज दिया गया.
 
लेकिन खतरे चारों ओर थे. एक अंग्रेज अफसर ने यह तक लिखा कि ज्यादातर अफगान लड़ाके जैसे ही दिखते हैं. उन सबके पास कोई न कोई हथियार होता है.
ऐसे में मैकेनघटन एक दूसरा रास्ता निकाला.
 
उन्होंने खिलजी कबीले के सरदार अकबर खान से बातचीत की. दोनों के बीच यह समझौता हुआ कि कबीले के लोग उन पर आक्रमण नहीं करेंगे. अगर और कहीं से आक्रमण हुआ तो वे अंग्रेजों को बचाएंगे. इसके एवज में उन्हें हर महीने 80 हजार रुपये की रकम दी जााएगी. यह रकम एक तरह से अपनी रक्षा के लिए दी जाने वाली एक घूस थी.
 
एक ऐसा रास्ता चुन लिया गया जो बहुत दूर तक जाने वाला नहीं था. इसे इस तरह भी कहा जाता है कि चारों ओर दुशमन बहुत से थे लेकिन ब्रिटिश फौज ने समझौता करके खुद अपने लिए एक दुशमन चुन लिया था.
 
भारत से उन टुकड़ियों को बहुत सीमित संसाधन ही मिल रहे थे, जिसका एक बड़ा हिस्सा नौकरों की बड़ी फौज पर ही खर्च हो जाता था. जल्द ही इस रकम को घटाकर 40 हजार रुपये करना पड़ा. एक नए तनाव की भूमिका बन गई थी जो भड़कने के लिए बहाना खोज रहा था.
 
जल्द ही यह बहाना भी मिल गया. खिलजी कबीले के एक लड़ाके की एक गुलाम लड़की एक दिन भागकर ब्रिटिश छावनी में आ गई। जब उस लड़ाके के लोग उसे लेने आए तो पता पड़ा कि एक ब्रिटिश अफसर ने उसे अपने पास रख लिया है.
 
इस पर कबीले के लोग भड़क उठे. तुरंत ही जिरगा की बैठक हुई. एक नवंबर 1841 में हुई इस बैठक में कहा गया कि जो हो रहा है वह पख्तून परंपरा के खिलाफ। जल्द ही सारे लड़ाके हमले के लिए तैयार थे. ब्रिटिश फौज ने जितना सोचा था उससे कहीं बड़ा खतरा उनके सामने था.
 
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके अपने विचार हैं