अफगानिस्ताननामा : समरकंद और बुखारा की हार के बाद दिल्ली कूच

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 30-10-2021
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अफगानिस्ताननामा 16

 

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हरजिंदर

काबुल और उसके आस-पास के इलाके पर कब्जे के बाद बाबर का पुराना सपना एक बार फिर जागा.एक बार फिर उसने अबू दरिया को पार करके समरकंद और बुखारा पर कब्जे की योजना बनानी शुरू कर दी.मध्य एशिया के उन दो महान शहरों को वह इतनी आसानी से भुलाने के लिए तैयार नहीं था जहां कभी उसके पिता का शासन था.

इसके लिए बाबर ने अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण किया, कुछ स्थानीय स्तर के शासकों को अपने साथ जोड़ा और इसके साथ ही ईरान के शाह इस्माइल के साथ रणनीतिक संबंध स्थापित किए.ये सबंध बाद में पारिवारिक रिश्ते में भी बदल गए.उज्बेक सत्ता की ताकत जिस तरह से बढ़ रही थी उसे लेकर शाह इस्माइल भी परेशान थे और इसकी वजह से उन्हें ईरान पर भी खतरा मंडराता दिख रहा था.

इस बार बाबर की रणनीति सफल होती दिखी और इन दोनों ही शहरों पर उसका कब्जा हो गया.लेकिन यह कब्जा भी ज्यादा दिन नहीं चला.उज्बेक फौज ने जब इस इलाके को मुक्त कराने के लिए जवाबी हमला बोला तो बाबर की सेनाएं टिक नहीं सकीं और उसे खाली हाथ काबुल लौटना पड़ा.अपने सपने को वह कभी हकीकत में नहीं बदल सका.

बाबर वंशानुगत रूप से चंगेज खान और तैमूर दोनों से ही सीधे तौर पर जुड़ा था, लेकिन वह कभी अजेय नहीं रहा.चंगेज खान ने बहुत कम लड़ाइयां हारी थीं और तैमूर को तो कोई कभी मात ही नहीं दे सका, लेकिन बाबर की शुरुआत ही लड़ाइयां हारने से हुई.

अपने इन दोनों पूर्वजों से बाबर एक और तरह से अलग था.उसने लड़ाइयां लड़ी और इसके लिए हत्याएं भी कीं या करवाईं, लेकिन उसने कभी कोई नरसंहार नहीं करवाया, कटे हुए सिरों की मीनारें नहीं बनवाई या किसी नगर को पूरी तरह बरबाद कर देने का बीड़ा नहीं उठाया.

समरकंद और बुखारा की हार से बाबर को यह लगा कि उज्बेक सेनाएं कभी भी कंधार और काबुल की तरफ बढ़ सकती हैं और उसे इस इलाके से भी हाथ धोना पड़ सकता है.हालांकि ऐसा हुआ नहीं, फिर वह पूरा इलाका जिसे बाबर अफगानिस्तान कहता था उसके कब्जे में नहीं था.उसके एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण हिस्से पर ही वह अपना राज कायम कर सका था.

बाबर को लगा कि अगर अपने राज को विस्तार देना है तो उसे भारत की ओर बढ़ना होगा.फिर जल्द ही उसकी सेनाओं ने सिंधु नदी का पार किया और वे दिल्ली की तरफ बढ़ने लगीं.लेकिन बाबर ने अपनी शुरुआत हमले से नहीं की.सबसे पहले उसने इब्राहिम लोदी को दिल्ली में ‘शांति का एक संदेश‘ भेजा। इस संदेश में लोदी से कहा गया था कि वे सभी इलाके जिन्हें तुर्कों ने जीता था उसे बाबर के हवाले कर दिया जाए.

बाबर को पता था कि इस संदेश से कुछ ज्यादा होने वाला नहीं है लेकिन वह तो एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई लड़ रहा था.इस बीच उसने अपने तोपखाने को मजबूत करना शुरू कर दिया था और इसे लिए उसने एक तुर्क सिपहसालार उस्ताद अली कुली को अपनी फौज में शामिल किया.अब बस उसे मौके का इंतजार था.जल्द ही यह मौका भी आ गया.

सिकंदर लोदी के निधन के बाद दिल्ली की सल्तनत इब्राहिम लोदी को मिल तो गई थी लेकिन उसका रास्ता काफी कठिन हो गया था.जगह-जगह पर उसकी सरकार के खिलाफ बगावत हो रही थी.एक बगावत जो उसे सबसे ज्यादा परेशान कर रही थी वह थी पंजाब की.

पंजाब में उसके दो चाचा आलम खान और दौलत खान किसी भी तरह से अपने भतीजे को दिल्ली के तख्त से उतारना चाहते थे.बाबर की फौज जब सीमा पर आ जमी तो उन्हें भी मौका मिल गया.

दोनों ने काबुल में बाबर को संदेश भेजा कि दिल्ली सल्तनत के खिलाफ सहयोग के लिए वे दोनों तैयार हैं.बाबर को मौका तो मिल गया लेकिन मुश्किलें वहां भी उसका इंतजार कर रहीं थीं.बाबर की फौज लाहौर तक पंहुच गई और वहां कब्जा भी हासिल कर लिया.लेकिन तभी एक नई मुसीबत शुरू हो गई.पंजाब का कौन सा हिस्सा किसके पास रहेगा इसे लेकर आलम खान और दौलत खान दोनों ही आपस में भिड़ गए.

बाबर और उसके सेना आगे बढ़ने के लिए तैयार थे लेकिन उसे लगा कि इन्हें आपस में लड़ता छोड़कर आगे बढ़ना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है इसलिए लाहौर तक पहुंचकर भी वह काबुल लौट गया.

लेकिन एक साल बाद ही जब सर्दी का माौसम शुरू हुआ तो नवंबर 1525में बाबर ने फिर हमला बोला.दौलत खान की सेना इस आक्रमण का मुकाबला नहीं कर सकी और भाग खड़ी हुई.दौलत खान अपने कुछ सैनिकों के साथ एक किले में छुप गया.

किले को घेर लिया गया और जल्द ही दौलत खान के सामने आत्मसमर्पण के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.लेकिन बाबर ने उसे मारा नहीं बल्कि उसे रहने के लिए एक घर दिया, हां उसकी सारी संपत्ति जरूर अपने कब्जे में ले ली.बाबरनामा के अनुसार इस संपत्ति में सबसे महत्वपूर्ण चीज थी दौलत खान की बहुत बड़ी लाईब्रेरी.

बाबर की सेना ने अगले कुछ महीने पंजाब में ही गुजारे। जगह-जगह छोटी-छोटी रियासतें थीं जिन्हें आगे बढ़ने से पहले जीतना जरूरी था, हालांकि इस काम में ज्यादा उर्जा खर्च नहीं हुई और ज्यादा कुछ हासिल भी नहीं हुआ लेकिन अपनी जमीन को मजबूत बनाने के लिए यह सब जरूरी था.

अब बाबर तैयार था हिंदुस्तान के तख्त को जीतने के लिए.फरवरी 1526 में उसकी फौज ने हिसार से दिल्ली की ओर कूच कर दिया.इसके बाद जिस लड़ाई का मोर्चा खुला उसे हम पानीपत की लड़ाई के नाम से जानते हैं.इस लड़ाई में फौज का नेतृत्व बाबर के अलावा एक नौजवान भी कर रहा था.वह था बाबर का बेटा हुमायूं.यह हुमायूं की पहली लड़ाई थी.

नोट: यह लेखक के अपने विचार हैं

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )